मरहम लगा सको तो गरीब के जख्मों पर लगा देना
समाजसेवी डॉक्टर हसमत अली की मौत पर गम का माहौल
बाराबंकी (भावना शुक्ला): मरहम लगा सको तो किसी गरीब के जख्मों पर लगा देना हकीम बहुत हैं बाजार में अमीरों के इलाज खातिर…. जी हां किसी शायर की लिखी ये पंक्तियां मशहूर समाजसेवी डाक्टर हसमत अली पर सटीक बैठती जिनकी 85 साल की उम्र में गुरुवार को मसौली थाना के कस्बा सआदतगंज में हमेशा के लिए सांसे थम गयी। ये खबर इलाके में जिधर से भी गुजरी माहौल को मातम में तब्दील करती गयी।
गरीबों के मसीहा थे डॉक्टर हसमत
वर्तमान में जो समाज हिन्दू मुस्लिम की आग में झुलश रहा हो उस तपिस के बीच डाक्टर हसमत अली हिन्दू की चौखट पर “दिया” तो मुस्लिम की दहलीज पर “चिराग” जलाकर इंसानियत की रौशनी से समाज को जगमगाने का काम करते थे। यही वजह है कि मौत की खबर से पूरे कस्बे की आंखे नम होकर एक साथ छलक पड़ी। हाजी इरफान अंसारी बताते है कि डॉक्टर साहब फ़रायज़ एहतिमाम और तौहीद परस्त थे।
इलाके के गरीब, बेसहारा, अनाथ के मसीहा थे। इनकी मौत से यह तबका बहुत परेशान देखा गया क्यों कि चिकित्सीय को पेशा नही सेवाभाव मानकर जीवन भर गरीबो का निशुल्क इलाज किया यही नही अगर पता चल गया तो दवा के पैसे पास से देकर उसका सम्पूर्ण इलाज करते थे इनके पास गरीबो रोगियो का मेला लगता था जो इस उम्र में भी दिन भर लोगो को देखते थे। इसी लिए इस मौत से चारो तरफ गहरा सदमा है।
इलाके को इल्म से रौशन किया
जिम्मेदार लोगों ने बताया कि 1955 में महज 20 साल की उम्र में कस्बे में पहला मदरसा फैजानुल उलूम नाम से कायम किया जो आज सहायता प्राप्त इंटर कालेज है। दीनी तालीम के लिए इस्लामिया स्कूल कायम किया जिसमें बच्चे हिफ़्ज़ मुकम्मल कर रहे है। लोगो के मुताबिक विधवा,वृद्धा, विकलांगो से इनका बहुत लगाव था।
पढ़ने वाले बच्चों, इल्म मुकम्मल करने वाले लोगो से बेपनाह मोहब्बत के साथ इनकी मेहमान नवाजी बहुत चर्चा में रहती थी। गरीब परिवारों की बेटियों की गोपनीय मदद के साथ शादी कराने जैसे अनगिनत कार्यो में लगे रहने वाले डॉक्टर हसमत अली अंसारी यकीनन टिमटिमाते सितारे की तरह थे। रमजान में रोजे की हालात में मौत उनकी नेकियों का अमाल है। नमाज जनाजा मुफ़्ती मो. आरिफ ने पढ़ाई इसके बाद उन्हें कब्रिस्तान में जब सुपुर्दे खाक किया जा रहा था तो लॉक डाऊन और कस्बे में 6 कोरोना संक्रिमित होने के बाद भी एक झलक पाने को जन समूह बेताब दिखा।