अंततः जातिवादी ढोंग का खात्मा हो ही गया !
स्तंभ: जाति-आधारित आरक्षण पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय (7 नवंबर 2022) की राममनोहर लोहिया और डॉ. भीमराव अंबेडकर निस्संदेह अवश्य ताईद करते, अनुमोदन भी। लोहिया का तो सूत्र था : “सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़ा पाये सौ में साठ।” परंतु एक कालखण्ड तक ही। डॉ. अंबेडकर शाश्वत आरक्षण के सदैव विरोधी रहे। लोकसभा के पूर्व प्रधान सचिव सुभाष कश्यप का भाषण : (7 दिसंबर 2021 : दि हिंदू): “फिलहाल चालीस वर्षों की अवधि तक की सीमा के तो डॉ. अंबेडकर कतई पक्षधर नहीं थे।” डॉ. अंबेडकर द्वारा तय की गयी हद तो दशकों पूर्व ही समाप्त हो गई थी। फिर भी सुधार की इच्छाशक्ति के अभाव में वोटार्थी राजनेता आरक्षण को पोषित करते रहे।
संविधान में आर्थिक आधार को तजकर, जातिगत प्रावधान को मूलतः दस वर्ष वाली तिथि से सरकारें बढ़ाती गई। तबसे सात बार संविधान संशोधित किया गया। धारा 335 को बदल कर 95वें संशोधन में 2030 तक की अवधि तय की गयी। यूं उसे 1960 में ही खत्म होना था, मगर 104वें संशोधन द्वारा फिर बढ़ा। अर्थात 24 जनवरी 2030 को पूर्ण विराम लग जाएगा। अंबेडकर सदैव लंबे काल तक आरक्षण के विरोधी रहे। डॉ. लोहिया ने मांग की थी: “अगर आर्थिक बेरोजगारी खत्म करोगे तो जातिगत आवश्यकता अपने आप खत्म हो जाएगी।” वे जाति को जड़ मानते थे। उन्होने लिखा भी था: “शूद्रों के भी दोष हैं। जाति की संकीर्णता उनमें और भी है। अफसरी की जगह पाने के बाद शूद्र की कोशिश रहती है कि वह बिरादरी के जहर के द्वारा अपनी जगह को कायम रखे। वह अपनी दृष्टि को जल्दी व्यापक नहीं बना पाता और व्यापक विषयों की बहस में पिछड़ जाता है।”
तीन दशकों बीते। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय (इंद्रा साहनी-1992) में पिछड़ी जाति के मलाई मरानेवालों द्वारा आर्थिक रूप से विपन्न जन को वंचित रखने की ओर इंगित किया था। इस संदर्भ में पसमांदा मुसलमानों और निर्धन ईसाइयों पर भी गौर करें। उनकी दयनीयता को देखें। उसी भाँति पीढ़ी दर पीढ़ी से अमीर होते दलित हिंदुओं को भी। क्या वस्तुतः ये सब आरक्षण के अधिकारी हो सकते हैं? पहले मुसलमानों को देखें। सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान ने अपनी भारत यात्रा (अक्तूबर 1969) में कहा भी था: “तुम मुस्लिम बिरादर को मैं सचेत करता था कि इन पसमांदा मुसलमानों की तुलना में ये लोग मुस्लिम जमींदार हैं? वैसे ही धनपति हैं। नवाब लोग हैं। जिन्ना के साथ पाकिस्तान भाग जाएंगे। तुम लोग यतीम रह जाओगे।” तो क्या अल्पसंख्यकों के साथ पर इन्ही सम्पन्न लोगों के वंशज भी आरक्षण के अधिकारी बनेंगे?
यही हुआ भी जो बड़ी जायदाद के स्वामी थे, जो बजाए दारूल इस्लाम मे बसने के अपनी संपत्ति बनाए रखने के लिए भारत मे ही रहे। मेरठ मे मुस्लिम लीग के सर्वोच्च नेता नवाब मोहम्मद इस्माइल खान जो जिन्ना के बाद सबसे बड़े नेता थे पाकिस्तान नहीं गए। जमींदारी बचाएं रखने के कारण। बेगम कुदूसिया एजाज रसूल और मोहम्मद आमिर अहमद खान, महमूदाबाद के राजा, जिन्ना के निकटतम रहे, मगर पाकिस्तान नहीं गए। अब सर्वोच्च न्यायालय के इस अति महत्वपूर्ण फैसले की रोशनी में पिछड़े आयोग के प्रतिपादकों पर भी एक नजर डालें। बाबू बिंधेश्वरी प्रसाद मंडल मुरहो-रानीपट्टी रियासत (मधोपुरा) के सामंत थे। बिहार के सातवें मुख्य मंत्री भी रहे। मंडल (पिछड़ा जाति) आयोग के अध्यक्ष थे। उनके पूर्वजों को ब्रिटिश सरकार ने राय बहादुर के खिताब से नवाजा था। स्वयं बिंध्येश्वरी जी स्वतन्त्रता के पश्चात राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुये। वे संसद के लिए चुने गए थे पर बिहार में सरकारी पद की लालच में समाजवादी पार्टी छोड़ दी थी। डॉ. लोहिया ने उनकी पदलोलुपता पर भार्सना की थी।
तात्पर्य यह है कि पिछड़ों के नाम पर तिजारत करने वाले ऐसे नेता ही संविधान मे आरक्षण के प्रावधान के अधिकांशतः लाभार्थी रहे। यहां एक विचारणीय मौलिक मसला है। सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायधीशों के कथन तथा विचार पर गौर करें। श्रीमती बेला माधुर्य त्रिवेदी (निचली अदालत से शीर्ष कोर्ट तक जानेवाली जज) ने अपने पृथक निर्णय में लिखा कि: “आजादी के 75 वर्षों बाद तो कम से कम समाज के वृहद हित में आरक्षण के प्रश्न पर विचार करें। अस्सी वर्षों मे दलितों और आदिवासियों का आरक्षण तो स्वतः समाप्त हो जाएगा। आंग्ल-भारतीयों का आरक्षण तो अब खत्म हो ही गया।” इसी भांति संविधान की धारा 15 तथा 16 को संशोधित कर समतामूलक, जाति तथा वर्ग-विहीन समाज बनना चाहिए था। न्यायाधीश दिनेश माहेश्वरी ने तो आगे बढ़कर कहा भी कि : “आरक्षण संविधान का मौलिक फीचर नहीं है।” अर्थात संशोधनीय है। न्यायमूर्ति जमशेद बरजोर पार्डीवाला ने स्पष्ट लिखा कि यह प्रथम कदम हो गया कि जाति-आधारित आरक्षण खत्म करने हेतु कमजोर वर्गों को भी यह आरक्षण वाला प्रावधान उपलब्ध हो।” हालांकि न्यायमूर्ति श्रीपति रवींद्र भट्ट और प्रधान न्यायाधीश उदय उमेश ललित ने पृथक फैसला दिया था।
अतः सर्वोच्च न्यायालय का यह दूरगामी निर्णय संकीर्ण-जाति-विरोधी, समतामूलक, शोषण-विरोधी आर्थिक रूप से हितकारी है, गरीब का पक्षधर है। यह दशकों से वंचित और निषिद्ध रहे लोगों हेतु लाभवाला फैसला है। अब अन्याय वाले कालखंड का खात्मा हुआ। भावार्थ यही कि लालू यादव सरीखे मौकापरस्त, अनाचारी तथा कुनबापरस्तों के अस्त का यह निर्णय एक संकेत है। सूचना है। गम्मनीय बात यह है इस विभाजित निर्णय का सिवाय तमिलनाडु की डीएमके पार्टी के, सभी ने (भाजपा और काँग्रेस) ने स्वागत किया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)