दिल्ली में प्रदूषण बढ़ने का खतरा: पराली जलाने की संख्या बढ़ी, अगले 15 दिनों में ‘बेहद खराब’ स्थिति में पहुंच सकती है हवा
दिल्ली के पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी है, जिससे आने वाले दिनों में परेशानी बढ़ सकती है. हालांकि, पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष अभी तक काफी कम संख्या में पराली जलाई गई है. 15 सितंबर से 10 अक्टूबर तक पंजाब में पराली चलाने की 764 घटनाएं दर्ज की गईं जबकि पिछले साल इसी अवधि में ऐसी 2,586 घटनाएं सामने आई थीं. वहीं, इस अवधि में हरियाणा में पराली जलाने की 196 घटनाएं हुईं जबकि पिछले साल इस दौरान ऐसे 353 मामले सामने आए थे. पंजाब में 1 अक्टूबर से 5 अक्टूबर तक पराली जलाने के बस 63 मामले सामने आए जबकि 6 अक्टूबर से 10 अक्टूबर तक ऐसे 486 मामले सामने आए. इसी प्रकार हरियाणा में 1 अक्टूबर से 5 अक्टूबर तक पराली जलाने के बस 17 मामले सामने आए जबकि 6 अक्टूबर से 10 अक्टूबर तक ऐसे 172 मामले सामने आए.
वैज्ञानिक विनय सहगल ने बताया कि अक्टूबर के पहले सप्ताह में पराली जलाने के कम मामले सामने आए और उसकी वजह यह थी कि मानसून की देर से वापसी के कारण फसल की कटाई विलंब से शुरू हुई. उन्होंने जमीनी स्तर से प्राप्त रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा, ‘यहां तक, जिन किसानों ने फसल कटाई कर ली थी उन्होंने भी पराली नहीं जलाई, क्योंकि वह गीली थी. सहगल ने कहा कि आईएआरआई को उम्मीद है कि पिछले वर्ष की तुलना में इस सीजन में पराली जलाने की घटनाएं कम होंगी. उन्होंने कहा, ‘सरकार इस बार पराली प्रबंधन को लेकर अधिक सचेत है. यह भी पिछले साल बहुत सारे किसानों ने (कृषि कानूनों के विरोध में) में पराली जलाई थी.’
रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली के पड़ोस में खेतों में आग लगने की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी है, लेकिन राजधानी की हवा में पराली जलाने की घटना से हवा के खराब होने में योगदान 5% से भी कम है, जिसमें पीएम 2.5 के स्तर में मामूली वृद्धि दर्ज की गई है. साथ ही इस बात चेतावनी भी जारी की गई है कि देश से मानसून के पूरी तरह से हटने के बाद, स्थिर मौसम की स्थिति दिल्ली में हवा की गुणवत्ता को प्रभावित करना शुरू कर देगी. इसलिए, अगर पराली जलाने की संख्या में वृद्धि होती है, तो यह दिल्ली की वायु गुणवत्ता को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है. सहगल ने कहा कि पराली जलाने की घटनाएं 6 अक्टूबर से बढ़ी हैं लेकिन दैनिक आंकड़े 2020 की तुलना में अब भी कम हैं. उन्होंने कहा कि राज्यों में 2016 से 2019 तक पराली जलाने के मामले कम होते गए और पिछले साल उसमें वृद्धि की वजह किसानों का आंदोलन हो सकता है. उन्होंने कहा, ‘हम 2019 से बेहतर की आस नहीं कर सकते लेकिन उम्मीद है कि पिछले साल की तुलना में आंकड़े कम होंगे.’
पंजाब में पहली अक्टूबर से 30 नवंबर तक 2016 में पराली जलाने की 1.02 लाख, 2017 में 67,079 , 2018 में 59,684 और 2019 में 59,684 घटनाएं हुई थी. उसी प्रकार, हरियाणा में पहली अक्टूबर से 30 नवंबर तक 2016 में पराली जलाने की 15,686 , 2017 में 13,085 , 2018 में 9,225 और 2019 में 6,364 और 2020 में 5,678 घटनाएं हुई थीं. पंजाब और हरियाणा अक्टूबर एवं नवंबर में धान की फसल की कटाई के बाद पराली जलाई जाती है.
फिलहाल पराली जलाए जाने के पीक टाइम में अभी दो सप्ताह का समय बचा है. नवंबर के पहले हफ्ते में पराली जलाने की संख्या तेजी से बढ़ती है जिसके प्रतिदिन 3,000-4,000 तक बढ़ने की उम्मीद है. अगर ऐसा होता है तो दिल्ली एक बार प्रदूषण की गिरफ्त में नजर आ सकती है. आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी में लोग हर साल एक से 15 नवंबर के बीच ‘सबसे खराब’ हवा में सांस लेते हैं. राष्ट्रीय राजधानी का औसत पीएम2.5 स्तर 16 अक्टूबर से 15 फरवरी के बीच ‘बहुत खराब’ और ‘गंभीर’ श्रेणी के बीच रहता है. वहीं एक नवंबर से 15 नवंबर के बीच पीएम2.5 सांद्रता औसतन 285 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रहती है.
पीएम 2.5 को 61 से 120 के बीच ‘मध्यम से खराब’, 121 से 250 के बीच ‘बेहद खराब’, 251 से 350 के बीच ‘गंभीर’ और 350 से अधिक होने पर ‘अति गंभीर’ श्रेणी में माना जाता है. पर्यावरण विभाग के एक अधिकारी ने कहा, ’15 अक्टूबर से एक नवंबर के बीच प्रदूषण में व्यापक वृद्धि दर्ज की जाती है. पीएम2.5 का औसत स्तर 80 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से 285 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक पहुंच जाता है.’
दिल्ली में 16 दिसंबर से 31 दिसंबर के बीच दूसरा सबसे अधिक प्रदूषित समय होता है. इस दौरान पीएम 2.5 सांद्रता औसतन 218 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रहती है. अधिकारी ने कहा कि वायु प्रदूषण स्तर अधिक होने का मुख्य कारण अपशिष्ट जलाना है, क्योंकि यही वह समय है, जब दिल्ली में तापमान काफी कम रहता है और त्योहार भी अधिक होते हैं. इसके बाद तीसरी अवधि जब प्रदूषण सबसे अधिक फैलता है, वह एक जनवरी से 15 जनवरी के बीच का समय है. इस दौरान पीएम2.5 सांद्रता औसतन 197 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रहती है.