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मनोवांछित फल प्रदान करने वाली वनखंडी देवी मंदिर में नहीं लगेगा मेला

जालौन : चंदेलवंशी राजाओं की कर्मभूमि और महर्षि व्यास की जन्मस्थली के तौर पर विख्यात ऐतिहासिक नगरी कालपी में मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाली पौराणिक वनखंडी देवी के मंदिर में इस साल कोरोना के मद्देनजर मेले का आयोजन नहीं किया जायेगा। बुंदेलखंड का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले जालौन जिले के कालपी कस्बे में स्थित मंदिर के महंत जमुना दास ने बताया कि कोरोना संक्रमण के चलते एहतियात के तौर पर शारदीय नवरात्र में इस साल मेले का आयोजन नहीं किया जायेगा जबकि मंदिर में श्रद्धालुओं को कोविड-19 प्रोटोकाल का पालन करते हुये देवी के दर्शन करने होंगे।

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भव्य मंदिर में मां वनखंडी छोटी से मठिया में आज भी विराजमान है। महंत दास ने बताया कि जब कभी भी मठिया को विशाल रूप देने का विचार आया तो मां ने स्वप्न में दर्शन देकर ऐसा नहीं करने की चेतावनी दी। मान्यता है कि मठिया में पिंडी की शक्ल में विराजमान माता भवानी भक्तों की मनोवांछित इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। महंत ने बताया कि सृष्टि के प्रारंभ से निराकार स्वरुप में प्रतिष्ठित यह शक्तिपुंज जो वर्तमान में वनखंड में विराजत होने के कारण वनखंडी तथा अच्छे-अच्छे शूरमाओं अभिमानिओं एवं विघ्नों का खंडन करने के कारण बलखंडी नाम से जानी जाती हैं।

किवदंती के अनुसार प्राचीन काल में सुधांशु नाम के एक ब्राह्मण के कोई संतान नही थी। एक बार देवर्षि नारद मृत्युलोक में घूमते हुए उनके घर के सामने से निकले और ब्राम्हण से उसके दुख का कारण पूछा। ब्राम्हण ने संतान सुख न होने की अपनी व्यथा कही। नारद ने कहा कि वह उसकी प्रार्थना भगवान विष्णु से कहकर दुख दूर की प्रार्थना करेंगे।

नारद से ब्राम्हण की व्यथा सुनकर भगवान् विष्णु ले कहा कि इस जन्म में उसके कोई संतान योग नही है। यही बात नारद जी ने ब्रम्हा एवं शिव से पूछी | उन्होंने ने भी यही उत्तर दिया। नारद ने वापस लौटकर ब्राम्हण को यह रहस्य बताया। निसंतान ब्राम्हण यह सुनकर दुखी हुआ पर भावी को कौन बदल सकता है।

कुछ सालों बाद एक दिन सात वर्ष की एक कन्या उसके द्वार के सामने से कहते हुए निकली कि जो कोई मुझे हलुआ-पूड़ी का भोजन कराएगा वह मनवांछित वर पायेगा। यह बात उस सुधांशु ब्राम्हण की पत्नी ने सुनीं तो दौड़कर बाहर आयी और कन्या को आदर के साथ हलुआ-पूड़ी का भोजन कराया। भोजनोपरांत ब्राम्हण पत्नी ने कहा कि देवी मेरे कोई संतान नही है ,कृपया मुझे संतान सुख का वर दीजिये। कन्या ने “तथास्तु” कहा।

ब्राम्हण पत्नी ने उस कन्या से उसका नाम व धाम के बारे में पूछा। कन्या ने अपना नाम जगदम्बिका तथा अपना धाम अम्बिकावन बताया। कुछ समय बाद ब्राम्हण को पुत्र प्राप्ति हुई। पुत्र जब कुछ बड़ा हुआ तो एक दिन देवर्षि नारद का पुन: आगमन हु और उन्होने ब्राम्हण से पूछा ये पुत्र किसका है तो ब्राम्हण ने बताया कि यह पुत्र मेरा है। ब्राम्हण कि बात सुन नारद ने विष्णु के लोक में जाकर उनसे ब्राम्हण पुत्र के बारे में चर्चा की। भगवान् ने कहा ऐसा हो ही नही सकता। तब नारद जी के अनुरोध पर त्रिदेव नारद जी के साथ ब्राम्हण के यहाँ पधारे।

ब्राम्हण से पुत्र प्राप्ति का सम्पूर्ण वृतांत जानकार त्रिदेव नारद जी एवं ब्राम्हण के साथ अम्बिकावन को प्रस्थान किये। अम्बिकावन में उन्हें वह देवी एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई दिखी। उस समय सर्दी का मौसम था एवं शीत लहर ले साथ वर्षा भी हो रही थी। शीत लहर के कारण ब्राम्हण कांप रहा था। देवी के सिर पर बहुत बड़ा जूड़ा बंधा हुआ है एवं पास में ही एक पात्र में घृत(घी) रखा हुआ है। ठण्ड से कांपते ब्राम्हण को देख देवी ने पास में रखे हुए घी को अपने बालों में लगाकर उसमे अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी ताकि इनकी ठण्ड दूर हो सके लेकिन यह दृश्य देखकर सभी अत्यतेंन भयभीत हो गए एवं देवी से अग्नि शांति की प्रार्थना करने लगे, तब देवी ने अग्नि को शांत कर पूछा कि आप किस लिए यहाँ आये हुए हैं।

त्रिदेव अपने आने का सम्पूर्ण कारण बताते हुए बोले, “देवी हम सब कुछ जान चुके हैं कि आप सर्व समर्थ हैं। जो हम नही कर सकते है वो आप कर सकती हैं ।” यह अम्बिका वन ही अपना कालपी धाम है और माता जगदम्बिका ही माँ वनखंडी हैं। कोई-कोई इन्हें योग माया के नाम से जानते हैं।

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