कांग्रेस को ले डूबी ‘पुरानी पीढ़ी’, इसलिए नहीं चढ़ पा रही ‘राज्यों की सीढ़ी’
देहरादून। केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों दो बार बुरी शिकस्त झेल चुकी कांग्रेस को अब पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से ही खासी उम्मीद थी, लेकिन वहां से भी निराशा हाथ लगी है। राज्यों के जिन नतीजों ने कांग्रेस हाईकमान के हाथों को लोकसभा चुनाव के लिए मजबूत करना था, वहां हार मिलना पार्टी के लिए अत्यंत कष्टदायी है। अब राजस्थान व मध्य प्रदेश में कांग्रेस की हार के बाद एक बार फिर सवाल उठने लगा है कि क्या कारण है कि राज्यों में जीत की प्रबल संभावनाओं के बावजूद कांग्रेस पार्टी एक के बाद एक राज्यों को गंवा रही है ? इन हार की मूल वजह जानेंगे तो कांग्रेस के ‘बुजुर्ग नेताओं का सत्ता मोह’ सामने आता है, जो हर बार कांग्रेस को उबारने के बजाय डुबोकर नई मुश्किलें पैदा करते आ रहे हैं।
दरअसल, कांग्रेस में ऐसे कई बड़े दिग्गज नेता हैं, जिन्होंने पूर्व पीएम स्व.इंदिरा गांधी व राजीव गांधी के साथ काम किया है। राजीव गांधी की मौत के बाद उन दिग्गज नेताओं ने सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार की भूमिका निभाई, जिससे वे गांधी परिवार के सबसे करीबी हो गए। उन्होंने गांधी परिवार में मजबूत पकड़ होने का राजनीतिक लाभ भी जमकर लिया औऱ कई तो अभी भी ले रहे हैं।
2014 में कांग्रेस केंद्र की सत्ता से हटी तो इन्हीं में से कई नेताओं ने राज्यों का रूख कर लिया। 2018 में मध्य प्रदेश व राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनी तो उन्होंने गांधी परिवार से करीबी का लाभ लेते हुए खुद सीएम की कुर्सी कब्जा ली। जबकि, कांग्रेस हाईकमान ने पांच साल मेहनत करने वाले जमीनी नेताओ को नजरंदाज कर दिया। इससे राजस्थान व मध्य प्रदेश में बुजुर्ग नेता व युवा नेता के बीच गुटबाजी शुरू होने लगी, जिसे हम राजस्थान में अभी तक सीएम रहे अशोक गहलोत व सचिन पायलट टकराव के रूप में देख सकते हैं।
वहीं, मध्य प्रदेश में पूरे चुनाव में कमलनाथ खुद को कांग्रेस का सीएम फेस मानते रहे हैं। जबकि, जीतू पटवारी जैसे युवा नेताओं की पूरी तरह से अनदेखी होती रही। यही वजह है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को 2019 में कांग्रेस छोड़नी पड़ी थी, जिससे कांग्रेस अपनी सरकार ही गंवा बैठी थी।
कांग्रेस हाईकमान अनेक राष्ट्रीय शिविर में युवा पीढ़ी को आगे लाने के दावे तो करता रहता है, लेकिन धरातल पर आज भी इंदिरा गांधी के जमाने के 70 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले नेताओं का सरकार व संगठन पर वर्चस्व बरकरार है। संगठन में फेरबदल का निर्णय हो या फिर चुनाव में टिकट वितरण का, हर फैसले में इनकी राय ही अंतिम मुहर बनती है। पार्टी के हित के बजाय अपने ज्यादा से ज्यादा समर्थकों को संगठन व सरकार में जगह दिलाने को जद्दोजहद होती है।
राजस्थान में कांग्रेस की गहलोत सरकार के दौरान हाईकमान के पर्यवेक्षकों की अनदेखी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी है। इससे कांग्रेस पार्टी एक के बाद एक राज्यों में सरकार बनाने की संभावनाओं को खो रही है। वहीं, पार्टी हाईकमान भी अभी तक इन नेताओं को साइडलाइन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया है। अब देखना होगा कि 2023 चुनाव में मिली हार से कांग्रेस हाईकमान कोई सबक लेगा भी है या नहीं, यह आने वाला समय बतायेगा।
उत्तराखंड में भी कांग्रेस टूटने की वजह बने थे हरीश रावत
उत्तराखंड में भी कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं की मनमानी पार्टी को हाशिये पर धकेलने का कारण बनी है। आपको याद होगा कि उत्तराखंड में 2016 में कांग्रेस की हरीश रावत सरकार से 9 विधायकों ने बगावत की थी, इस बगावत का कारण भी बागियों ने हरीश रावत को बताया था। इस बगावत के बाद से कई कांग्रेस का गढ़ मानी जाने वाली विधानसभाओं में भाजपा का वर्चस्व होने लगा है। 2022 विधानसभा चुनाव में भी हरीश रावत ने कमान अपने हाथों में लेकर रखी, नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस को तो बड़ी हार मिली ही, हरीश रावत भी अपनी सीट पर हार गये। 2019 लोकसभा चुनाव मे भी राज्य की पांचों सीटें भाजपा की झोली में गई थी। उत्तराखंड कांग्रेस के कई बड़े नेता भी हरीश रावत को मार्गदर्शक की भूमिका में करने व अगली पीढ़ी को मौका देने की वकालत करते दिखाई देते हैं।