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कारगिल के जांबाज शेरशाह की दिलेरी की दास्तान, नाम सुनते ही कांप गई थी पाकिस्तानी सेना

नई दिल्ली : आज कारगिल विजय दिवस है। इस दिन देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले जांबाज जवानों के शौर्य और बलिदान को याद किया जाता है। कारगिल की जंग मई से जुलाई 1999 के बीच लड़ी गई थी। इस जंग में एक नहीं सैंकड़ों नाम हैं, जिन्होंने अपनी जान देकर दुश्मन देश पाकिस्तानी सेना के दांत खट्टे कर दिए थे। इन्हीं दिलेरों में एक नाम है कैप्टन विक्रम बत्रा का। शेरशाह के नाम से बहुचर्चित फिल्म भी आई थी। यह फिल्म कैप्टन विक्रम बत्रा की जीवनी पर आधारित बताई जाती है। बत्रा को कारगिल जंग के दौरान शेरशाह नाम दिया गया था। शेरशाह जंग के दौरान दुश्मन देश पर कहर बनकर ऐसे टूटे थे कि उनका नाम सुनते ही पाकिस्तानी सेना कांप जाती थी।

बिना सैन्य परिवार में जन्मे कैप्टन विक्रम बत्रा का पैतृक आवास हिमाचल प्रदेश का पालमपुर स्थित कांगड़ा घाटी है। विक्रम के जुड़वा भाई का नाम विशाल है। 1999 में पाकिस्तानी सेना द्वारा कारगिल पर आक्रमण के बाद जवाबी कार्रवाई में विक्रम बत्रा को युद्ध शुरू होने के पांच सप्ताह बाद 19 जून 1999 को भारतीय हिस्से को छुड़ाने का टास्क मिला था।

चोटी 5140 पर पाकिस्तानी कैंप लगा चुके थे। भारत के लिए यह चोटी काफी अहम थी और बत्रा ने अपनी टीम के साथ इस चोटी को फतह कर पाकिस्तानी सेना को युद्ध में खदेड़ दिया। यह चोटी ऐसी जगह पर है, जहां से दुश्मन की हर हरकत पर नजर रखी जा सकती थी। इसलिए यहां तिरंगा होने का मतलब साफ था पाकिस्तानी सेना की युद्ध से छुट्टी।

पीक 5140 जीतने के बाद सेना के आला अफसरों ने बत्रा को युद्ध के दौरान ही प्रमोट करते हुए कैप्टन से नवाजा। अब नए मिशन के लिए सेना बत्रा और उनकी टीम को आराम देना चाहती थी लेकिन, बत्रा युद्ध से हटने को तैयार नहीं थे। उन्होंने सेना के अफसरों से आराम करने की सलाह पर जवाब में कहा- ये दिल मांगे मोर..। उस वक्त बत्रा के ये बोल मीडिया में काफी वायरल हुए थे। लोग बत्रा की बहादुरी के कायल हो गए और इस तरह कारगिल युद्ध में बत्रा का सफर हमेशा के लिए अमर हो गया।

पीक 5140 मिशन पूरा करने के बाद जब शेरशाह (युद्ध के दौरान विक्रम बत्रा का कोडनेम) अपने पिता को फोन करके गुड न्यूज दी तो उस वक्त न ही बत्रा और न उनके परिवार को अंदाजा था कि आने वाले दिनों में बत्रा के लिए नई चुनौतियां आने वाली हैं। उस फोन कॉल के नौ दिन बाद, विक्रम बत्रा ने एक और फोन किया और बताया कि उन्हें चोटी 4875 को फिर से हासिल करने का जरूरी मिशन मिला है। यह पीक सबसे कठिन चोटियों में से एक थी क्योंकि पाक सेना 16 हजार फीट की ऊंचाई पर बैठकर भारतीय सेना के हर मूवमेंट को देख सकती थी और जरूरत पड़ने पर हमला भी कर सकती थी। इस चोटी पर चढ़ाई का ढलान 80 डिग्री था। कोहरे ने बत्रा और उनकी टीम के लिए मुश्किल बढ़ा दी। यह मिशन शेरशाह का आखिरी मिशन साबित हुआ।

चोटी के ऊपर बैठे दुश्मन को बत्रा के आने की खबर मिल गई और वह युद्ध में गंभीर रूप से घायल हो गए। एक अन्य युवा अधिकारी अनुज नैय्यर ने 7 जुलाई 1999 की रात को अपनी आखिरी सांस तक उनके साथ लड़ाई लड़ी। 8 जुलाई 1999 की सुबह तक भारत ने चोटी 4875 पर फिर से कब्ज़ा कर लिया था लेकिन कैप्टन विक्रम बत्रा को खो दिया। विक्रम बत्रा को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

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