वक्फ बोर्ड के सहारे फलती-फूलती मुस्लिम तुष्टीकरण की सियासत
–संजय सक्सेना, लखनऊ
कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद अब मोदी सरकार की नजर वक्फ बोर्ड पर लगी है। कांग्रेस शासनकाल में मुस्लिम तुष्टीकरण की सियासत के चलते अस्तित्व में आये वक्फ बोर्ड में पुनर्गठन को लेकर मोदी सरकार बड़ा फैसला ले सकती है। इसकी वजह भी है, वजह जानने से पहले वक्फ बोर्ड के बारे में थोड़ा समझ लेना भी जरूरी है कि कब इसकी स्थापना हुई और वक्फ बोर्ड हमेशा विवादों में क्यों रहता है? दरअसल 1947 में अंग्रेजों से आजादी मिलने के साथ भारत के बंटवारे से पाकिस्तान नया देश बना। तब जो मुसलमान भारत से पाकिस्तान चले गए, उनकी जमीनों को वक्फ संपत्ति घोषित कर दी गई। इसके बाद 1950 में हुए नेहरू-लियाकत समझौते में तय हुआ था कि विस्थापित होने वालों का भारत और पाकिस्तान में अपनी-अपनी संपत्तियों पर अधिकार बना रहेगा। वो अपनी संपत्तियां बेच सकेंगे। हालांकि, पाकिस्तान में नेहरू-लियाकत समझौते के अन्य प्रावधानों का जो हश्र हुआ, वही हश्र इसका भी हुआ। पाकिस्तान र्में ंहदुओं की छोड़ी जमीनें, उनके मकानों व अन्य संपत्तियों पर वहां की सरकार या स्थानीय लोगों का कब्जा हो गया, लेकिन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि भारत से पाकिस्तान गए मुसलमानों की संपत्तियों को कोई हाथ नहीं लगाएगा। नेहरू द्वारा इन सम्पतियों को वक्फ की सपत्ति घोषित कर दिया गया। तत्पश्चात 1954 में वक्फ बोर्ड का गठन हुआ या यूं कहें कि यहीं से भारत के इस्लामीकरण का एजेंडा शुरू हुआ, क्योंकि दुनिया के किसी इस्लामी देश में वक्फ बोर्ड नाम की कोई संस्था नहीं है, यह सिर्फ भारत में है जो इस्लामी नहीं, धर्मनिरपेक्ष देश है।
वक्फ बोर्ड को लेकर पहली बार विवाद तब गहराया जब वर्ष 1995 में पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने वक्फ एक्ट 1954 में संशोधन किया और कई नए प्रावधान जोड़कर वक्फ बोर्ड को असीमित शक्तियां दे दीं जिसके अनुसार वक्फ एक्ट 1995 का सेक्शन 3(आर) के मुताबिक, कोई संपत्ति, किसी भी उद्देश्य के लिए मुस्लिम कानून के मुताबिक पाक (पवित्र), मजहबी (धार्मिक) या (चेरिटेबल) परोपरकारी मान लिया जाए तो वह वक्फ की संपत्ति हो जाएगी। वक्फ एक्ट 1995 का आर्टिकल 40 कहता है कि यह जमीन किसकी है, यह वक्फ का सर्वेयर और वक्फ बोर्ड तय करेगा। बता दें कि वक्फ बोर्ड का एक सर्वेयर होता है, वही तय करता है कि कौन सी संपत्ति वक्फ की है, कौन सी नहीं। इस निर्धारण के तीन आधार होते हैं- अगर किसी ने अपनी संपत्ति वक्फ के नाम कर दी, अगर कोई मुसलमान या मुस्लिम संस्था जमीन की लंबे समय से इस्तेमाल कर रहा है या फिर सर्वे में जमीन का वक्फ की संपत्ति होना साबित हुआ। बड़ी बात है कि अगर आपकी संपत्ति को वक्फ की संपत्ति बता दी गई तो आप उसके खिलाफ कोर्ट नहीं जा सकते। आपको वक्फ बोर्ड से ही गुहार लगानी होगी। वक्फ बोर्ड का फैसला आपके खिलाफ आया, तब भी आप कोर्ट नहीं जा सकते। तब आप वक्फ ट्रिब्यूनल में जा सकते हैं। इस ट्रिब्यूनल में प्रशासनिक अधिकारी होते हैं। उसमें गैर-मुस्लिम भी हो सकते हैं। हालांकि, राज्य की सरकार किस दल की है, इस पर निर्भर करता है कि ट्रिब्यूनल में कौन लोग होंगे। वैसे तुष्टीकरण की सियासत के चलते अधिकांश सरकारों की कोशिश यही होती है कि ट्रिब्यूनल का गठन ज्यादा से ज्यादा मुस्लिमों के साथ ही हो। वक्फ एक्ट का सेक्शन 85 कहता है कि ट्रिब्यूनल के फैसले को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती नहीं दी जा सकती है।
देश में एक सेंट्रल वक्फ बोर्ड और 32 राज्य वक्फ बोर्ड हैं। केंद्रीय अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री सेंट्रल वक्फ बोर्ड का पदेन अध्यक्ष होता है। ज्यादातर किसी मुसलमान को ही अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री बनाया जाता है। मोदी सरकार में पहले मुख्तार अब्बास नकवी इस पद पर थे, उनके हटने के बाद से स्मृति ईरानी अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री हैं। वो पारसी अल्पसंख्यक समुदाय से हैं, मगर खास बात यह है कि सेंट्रल वक्फ बोर्ड का अध्यक्ष तो गैर-मुस्लिम हो सकता है, लेकिन सारे सदस्य मुस्लिम ही होते हैं। यह कानून में सुनिश्चित किया गया है। इसी प्रकार राज्य वक्फ बोड्र्स में भी सभी सात सदस्य मुसलमान ही होते हैं। वरिष्ठ वकील और बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय बताते हैं कि वक्फ बोर्ड में एक वकील, एक विधायक, एक सांसद, एक टाउन प्लानर, एक आईएएस ऑफिसर, एक स्कॉलर, एक मुतवल्ली होते हैं। वक्फ एक्ट कहता है कि ये सभी मुस्लिम होंगे। बोर्ड किसी भी जमीन पर कह दे कि यह जमीन वक्फ की है तो उसके नोटिस के खिलाफ कोर्ट नहीं, वक्फ ट्रिब्यूनल से गुहार लगानी होगी। सोचिए, जिस वक्फ बोर्ड ने गलत दावा किया, उसके खिलाफ शिकायत की सुनवाई भी उसी का एक्सटेंडेड इंस्टीट्यूशन करेगा। अश्वनी कहते हैं कि अगर किसी को लगता है कि ट्रिब्यूनल के फैसलों पर संदेह नहीं किया जा सकता है तो फिर इसी तरह का कानून, इसी तरह का ट्रिब्यूनल गैर-मुस्लिमों के लिए क्यों नहीं है? इन्हीं विवादों के चलते वक्फ बोर्ड के खिलाफ अश्विनी उपाध्याय कोर्ट का दरवाजा भी खटखटा चुके हैं।
खैर, वक्फ बोर्ड को लेकर ताजा विवाद उस समय सामने आया जब राज्यसभा में 08 दिसंबर 2023 को वक्फ बोर्ड अधिनियम 1995 को निरस्त करने संबंधी एक निजी विधेयक पेश किए जाने का विपक्षी सदस्यों द्वारा विरोध किए जाने पर मत विभाजन किया गया और विधेयक के पक्ष में 53 मत मिलने के बाद उसे सदन में पेश किया गया। इससे पहले भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश से राज्यसभा सांसद हरनार्थ ंसह यादव ने वक्फ बोर्ड अधिनियम 1995 को निरस्त करने के लिए ‘वक्फ बोर्ड निरसन विधेयक 2022 सदन में पेश करने की अनुमति मांगी थी। यादव ने वक्फ बोर्ड अधिनियम 1995 को समाज में वैमनस्य बढ़ाने वाला और अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने वाला कानून बताते हुए कहा कि इसे निरस्त करने के लिए वह सदन में एक निजी विधेयक पेश करना चाहते हैं। इस पर सदन में मौजूद ज्यादातर विपक्षी सदस्यों ने विरोध जताया और सभापति जगदीप धनखड़ से इस निजी विधेयक को सदन में पेश करने की अनुमति नहीं देने का अनुरोध किया। विरोध करने वालों में आईयूएमएल के अब्दुल रहमान, माकपा के इलामारम करीम के अलावा यूपी से समाजवादी पार्टी के जावेद अली खान शामिल थे, जिन्होंने आरोप लगाया कि मोदी सरकार अपना छद्म एजेंडा इस विधेयक के जरिये आगे बढ़ाना चाहती है, वहीं द्रमुक सदस्य पी विल्सन ने कहा कि इस विधेयक को अनुमति देना संविधान का उल्लंघन होगा, तो कांग्रेस की जेबी माथेर हीशम ने दावा किया कि सरकार जानबूझकर संवेदनशील मुद्दों को छेड़ती है।
कांग्रेस के सैयद नासिर हुसैन ने कहा कि अल्पसंख्यकों की भावनाएं आहत करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की फौजिया खान ने कहा कि अल्पसंख्यकों के मन में इस विधेयक से असुरक्षा की भावना बढ़ेगी। झारखंड मुक्ति मोर्चा की महुआ मांझी ने कहा कि ‘सबका साथ सबका विकास’ की बात करने वाली सरकार वास्तव में सबको साथ ले कर नहीं चलती। कुल मिलाकर विधेयक पेश किया जाया या नहीं इसको लेकर बीजेपी और गैर बीजेपी दलों की लॉबी बन गई। इसके बाद सभापति ने इस विधेयक को पेश करने के लिए मत विभाजन की अनुमति दी। विधेयक पेश करने के प्रस्ताव के पक्ष में 53 और विरोध में 32 मत पड़े। आसन की अनुमति से हरनार्थ ंसह यादव ने इस निजी विधेयक को सदन में पेश किया। सबसे पहले तो यह जान लीजिए कि वक्फ बोर्ड के पास भारतीय सेना और रेलवे के बाद सबसे ज्यादा जमीन है। वक्फ मैनेजमेंट सिस्टम ऑफ इंडिया के मुताबिक, देश के सभी वक्फ बोर्डों के पास कुल मिलाकर 8 लाख 54 हजार 509 संपत्तियां हैं जो 8 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन पर फैली हैं। सेना के पास करीब 18 लाख एकड़ जमीन पर संपत्तियां हैं जबकि रेलवे की चल-अचल संपत्तियां करीब 12 लाख एकड़ में फैली हैं। साल 2009 में वक्फ बोर्ड की संपत्तियां 4 लाख एकड़ जमीन पर फैली थी, लेकिन बीते 13 वर्षों में वक्फ बोर्ड की संपत्तियां दोगुनी से भी ज्यादा हो गई हैं। जमीनी हकीकत पर गौर करने पर यह साफ हो जाता है कि वक्फ बोर्ड देशभर में जहां भी कब्रिस्तान की घेरेबंदी करवाता है, उसके आसपास की जमीन को भी अपनी संपत्ति करार दे देता है। इसी के चलते पूरे देश में अवैध मजारों, नई-नई मस्जिदों की भी बाढ़ सी आ रही है। इन मजारों और आसपास की जमीनों पर वक्फ बोर्ड का कब्जा हो जाता है। चूंकि 1995 का वक्फ एक्ट कहता है कि अगर वक्फ बोर्ड को लगता है कि कोई जमीन वक्फ की संपत्ति है तो यह साबित करने की जिम्मेदारी उसकी नहीं, बल्कि जमीन के असली मालिक की होती है कि वो बताए कि कैसे उसकी जमीन वक्फ की नहीं है? 1995 का कानून यह जरूर कहता है कि किसी निजी संपत्ति पर वक्फ बोर्ड अपना दावा नहीं कर सकता, लेकिन यह तय कैसे होगा कि संपत्ति निजी है? इसमें भी झोल है।
अक्सर पुश्तैनी जमीनें जिसके कोई कागज नहीं होते हैं, उसे बोर्ड बड़ी चालाकी से गैर निजी बता कर हथिया लेता है क्योंकि वक्फ बोर्ड को सिर्फ लगता है कि कोई संपत्ति वक्फ की है तो उसे कोई दस्तावेज या सबूत पेश नहीं करना है, सारे कागज और सबूत उसे देने हैं जो अब तक दावेदार रहा है। कौन नहीं जानता है कि कई परिवारों के पास जमीन का पुख्ता कागज नहीं होता है। वक्फ बोर्ड इसी का फायदा उठाता है क्योंकि उसे कब्जा जमाने के लिए कोई कागज नहीं देना है। सबसे खास बात यह है कि वक्फ बोर्ड किस जमीन पर कब्जे के लिए कब तक नोटिस जारी कर सकता है, इसकी कोई सीमा नहीं है। वक्फ इसका फायदा उठाकर वसूली कर रहा है, उसे जिससे उगाही करनी होती है, उसे धमकाता है कि उसकी जमीन को वक्फ संपत्ति घोषित कर दी जाएगी। डर के मारे वह व्यक्ति वक्फ अधिकारियों की जी-हुजूरी करने लगता है और फिर मनमाने शर्त मानने को मजबूर होता है। इतना ही नहीं, वक्फ बोर्ड अपने असीमित अधिकारों के दुरुपयोग से गरीबों का धर्मांतरण करवाने के भी आरोप लगते रहे हैं।
धर्मांतरण के दबाव की अधिकांश शिकायतें पिछड़े व आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सुनने को मिलती हैं। इसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र जैसे राज्य प्रभावित रहे हैं। यहां एक घटना का जिक्र करना जरूरी है, जो ज्यादा पुरानी नहीं है। तमिलनाडु के त्रिची जिले के एर्क ंहदू बहुल गांव तिरुचेंथुरई को वक्फ बोर्ड ने अपनी मिल्कियत घोषित कर दी। बोर्ड ने कहा कि इस गांव की पूरी जमीन वक्फ की है जबकि उस गांव में सिर्फ 22 मुस्लिम परिवार हैं जबकि हिन्दू आबादी 95 प्रतिशत है। हैरत की बात तो यह है कि वहां के मंदिर पर भी वक्फ की संपत्ति घोषित कर दी गई है। ग्रामीणों का कहना है कि यह मंदिर 15 सौ वर्ष पुरानी है, यानी दुनिया में इस्लाम के आने से पहले से ही तमिलनाडु का यह मामला वक्फ बोर्ड को मिली असीमित शक्तियों और उसके दुरुपयोग का शानदार उदाहरण है। इसी तरह से दिल्ली सरकार की एंटी करप्शन ब्रांच (एसीबी) ने वक्फ बोर्ड से जुड़े घोटाले के आरोप में ओखला से आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान को गिरफ्तार किया था।
सबसे हैरानी की बात यह है कि मोदी सरकार के प्रारंभ में वक्फ को लेकर उदारता दिखाई गई थी, जिसके अनुसार सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने नियम बनाया कि यदि वक्फ की जमीन पर स्कूल, अस्पताल आदि बनते हैं तो पूरा खर्च सरकार का होगा। यह तब हुआ जब मुख्तार अब्बास नकवी के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री थे। संभवत: इसी के चलते बाद में नकवी हाशिये पर चले गये। आश्चर्य की बात है कि एक तरफ सरकार मंदिरों से पैसे लेती है, दूसरी तरफ वक्फ को अनुदान देती है। सरकार मंदिर ट्रस्ट का निर्माण करती है, उसके लिए गैरर्-ंहदुओं को भी ट्रस्ट में शामिल करने का प्रावधान है। यही नहीं, मंदिर परिसर में दुकानें खोलने की इजाजत भी गैरर्-ंहदुओं को होती है। वक्फ के नाम पर वक्फ बोर्ड में जोड़ी गई इतनी संपत्तियों को लेकर पर पिछले दिनों बहुत सवाल उठे थे, इसके बाद उत्तर प्रदेश की योगी सरकार उ.प्र. वक्फ बोर्ड की संपत्तियों की जांच के आदेश भी दे चुकी है।
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में पिछले साल वक्फ बोर्ड को अंसवैधानिक करार देने के लिए एक याचिका डाली गई थी। याचिका डालने वाले अश्विनी उपाध्याय इसकी संवैधानिक मान्यताओं पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं, ‘वक्फ के नाम से भारतीय संविधान में एक शब्द नहीं है। सरकार ने 1995 में वक्फ एक्ट बनाया और ये सिर्फ मुस्लिमों के लिए बना दिया।’
उन्होंने पूछा कि जब संविधान में ही ऐसा शब्द नहीं था तो ये वक्फ एक्ट बना कैसे? इसमें मुस्लिम विधायक, एमपी, वकील, आईएएस, स्कॉलर और टाउन प्लॉनर और एक मुतवल्ली होता है। मगर जो इसका पूरा खर्चा होता है वो पूरा का पूरा जनता के टैक्स से दिया जाता है। उन्होंने सवाल उठाया कि जब सरकार मस्जिद, मजारों से पैसे ही नहीं लेती और वक्फ पर उसके सदस्यों के वेतन में पैसे खर्च करेगी तो ये आर्टिकल 27 का उल्लंघन नहीं हुआ?