दस्तक-विशेष

कीर्तिमान रचा था राष्ट्रपति रेड्डि ने !

के. विक्रम राव

स्तंभ: भारत के अबतक के 14 राष्ट्रपतियों में आठवें क्रमांक वाले नीलम संजीव रेड्डि परसो (1 जून 2022) अपनी पच्चीसवीं पुण्यतिथि पर ही बिसरा दिये गये। वे पहले कांग्रेसी प्रत्याशी ​रहे जो चुनाव हारे, फिर जीते थे। द्वितीय निर्दलीय थे जो विजयी भी हुयें? दक्षिण भारत से चौथे प्रेसिडेन्ट बने। वे (64—वर्ष की आयु में निर्वाचित) एकमात्र सबसे कम उम्र के राष्ट्रपति बने। स्वाधीनता सेनानी संजीव रेड्डि के परिवार से हमारा सामीप्य था। मेरे पिता स्व. के. रामा राव तथा रेड्डि मार्च 1952 में प्रथम राज्यसभा में अविभाजित मद्रास प्रदेश एक साथ निर्वाचित हुए थे। दोनों कांग्रेस प्रत्याशी थे।

चार बार स्वाधीनता संग्राम में जेल जाने वाले संजीव रेड्डि के कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1969 विभाजित हुयी थी। उसके सदियों पूर्व 1907 में सूरत अधिवेशन में नरम और गरम दल में बटी थी, जो 1916 के लखनऊ सम्मेलन में फिर एक हो गयी थी। तब (1969) कांग्रेस (इंदिरा) और कांग्रेस (संगठन) का नाम इन दो गुटों को मिला था। रेड्डि आंध्र प्रदेश के एकमात्र जनता पार्टी के प्रत्याशी थे, जो 1977 में छठी लोकसभा में चुने गये थे। बाकी सभी 41 इंदिरा —कांग्रेस ने जीते थे। उत्तर भारत में तब कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ हो गया था। यूपी की वह सारी 85 सीटें वे हार गयीं थीं। उसी वक्त रेड्डि लोकसभा स्पीकर निर्वाचित हुये। मगर सालभर में निर्विरोध राष्ट्रपति भी बने। रेड्डि एकमात्र राष्ट्रपति थे जिन्होंने तीन प्रधानमंत्रियों (मोरारजी देसाई, चरण सिंह तथा इंदिरा गांधी) को शपथ दिलवायी थी। केन्द्रीय काबीना द्वारा परामर्श तभी से राष्ट्रपति पर अनिवार्यत: लागू हुआ। यह नियम रेड्डि ने संविधान संशोधन द्वारा धारा 74 में पर जुड़वाया था। इसका आधारभूत कारण था कि पहले राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की सलाह न मानने का हक भी था। इतनी ऐतिहासिक विशिष्टायें रेड्डि राज में थीं।

संजीव रेड्डि का योगदान रहा कि राष्ट्रपति मतदान में आम आदमी की गंभीर रुचि उन्हीं ने जगायी। वर्ना अमूमन यह चुनाव पूर्वनिर्धारित हुआ करता था। सभी को पता था कि सांसद और विधायक में जिस पार्टी का बहुमत हो उसी का प्रत्याशी जीतता हैं। अगले माह (जुलाई 2022) होने वाले भारत के पन्द्रवें राष्ट्रपति के निर्वाचन का महत्व इसीलिये बढ़ गया है क्योंकि गैरभाजपा पार्टियां अपने देशव्यापी विधायकों तथा सांसदों के बूते टक्कर देने के स्थिति में है।

भारत के संवैधानिक इतिहास में रेड्डि का पहली बार वाला राष्ट्रपति चुनाव (1969) अत्यधिक यादगार था। वे निर्दलीय, इंदिरा—समर्थित उम्मीदवार वीवी गिरि द्वारा हरा दिये गये थे। वह अभूतपूर्व राजनीतिक घटना है। प्रधानमंत्री की अपनी सत्तारुढ़ कांग्रेस पार्टी ने अनुशासनहीनता पूर्ण हरकतों के इल्जाम में कांग्रेस से हकाल दिया था। उन्हीं दिनों की बात थी। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई—डांगे) के सचिव श्रीनिवास गणेश सारदेसाई अहमदाबाद संजीव रेड्डि के विरुद्ध और वीवी गिरि के पक्ष में प्रचार करने आये थे। गुजरात में तो मोरारजी देसाई के शिष्य हितेन्द्र देसाई मुख्यमंत्री थे तथा कांग्रेस की 24 सदस्यीय कार्यकारिणी के वे सदस्य थे। वे बारहवें थे जिनके वोट से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से निस्कासित करने प्रस्ताव पारित हुआ था। अर्थात हिवेन्द्र देसाई को याद रखते है ईसा के तेरहवें शिष्य जूडास की तरह जिसकी गवाही से ईसा मसीह को पकड़ा गया था तथा सूली पर चढ़ा दिया गया था।

कम्युनिस्ट सारदेसाई की प्रेस कांफ्रेंस थी, काफी जोशीली। मानो सोवियत—टाइप क्रान्ति की देहरी पर भारत खड़ा हो। सारदेसाई, इंदिरा गांधी के वामपंथी विचारों की श्लाधा करने से नहीं अधा रहे थे। तभी ”टाइम्स आफ इंडिया” के संवाददाता के नाते मैंने सारदेसाई से पूछा : ”क्या आपके आंकलन में इंदिरा गांधी निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण द्वारा समाजवादी राष्ट्र तथा अपनी कांग्रेस पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी संजीव रेड्डि को पराजित करने की मुहिम से राष्ट्र में जनवादी क्रान्ति आ जायेगी?” पहले तो सारदेसाई अचकचाये। फिर जवाब देने से मना कर दिया। वह प्रश्नों के पेंच को भांप गये थे। तब तक 84—वर्षीय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ऐसे त्रासदपूर्ण मोड़ पर कभी भी नहीं आयी थी।

चन्द शब्दों में ही नयी पीढ़ी के साथियों (पचास से नीचे आयुवालों) को याद दिला दूं कि कांग्रेस के बंगलौर अधिवेशन में एस. निजलिंगप्पा की अध्यक्षता में कार्यकारिणी ने संजीव रेड्डि को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था। डा. जाकिर हुसैन के निधन से पद रिक्त हुआ था। पार्टी ने चार वोटों से तय किया था कि नीलम संजीव रेड्डि राष्ट्रपति के कांग्रेस प्रत्याशी होंगे। इंदिरा गांधी तो उनकी प्रस्तावक रहीं। दूसरे उम्मीदवार थे जगजीवन राम जिन्हें केवल दो वोट ही मिले थे। इसमें वाई.बी. चह्वाण का भी शामिल था। मगर इंदिरा गांधी दिल्ली आते ही पलट गयीं। उन्होंने कहा कि सभी कांग्रेसी सांसद तथा विधायक अपनी अन्तर्चेना की पुकार सुनकर ही वोट दें। मायने यही कि रेड्डि को हराओ। वीवी गिरि को जिताओ। यही हुआ। कांग्रेस कार्यकारिणी ने तत्काल कांग्रेस—विरोधी साजिश के लिये इंदिरा को निष्कासित कर दिया। मगर रेड्डि हार गये। नतीजन कांग्रेस का विभाजन हो गया। इस प्रकरण का पटाक्षेप नहीं हुआ।

संजीव रेड्डि ने वीवी गिरि के निर्वाचन को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। इसमें सबूत था कि अश्लील पेम्पलैट वितरित किया गया था। इसमें एक वाक्य था कि : ”यदि संजीव रेड्डि चुनाव जीते तो कोई भी महिला राष्ट्रपति भवन अकेले जाने में डरेगी।” ऐसा प्रचार करने वालों में इंदिरा—समर्थक युवा—तुर्क (बाद में बूढे अरब) बलिया के ठाकुर चन्द्रशेखर सिंह का नाम प्रमुखता से था। रेड्डि का चरित्र—हनन, अपसंस्कृति का प्रचार तथा इंदिरा— कांग्रेस द्वारा सरकारी मशीन का दुरुपयोग आरोपित था। राष्ट्रपति गिरि स्वयं कठघरे में हाजिर हुये। हालांकि 73—वर्षीय गिरि के लिये विशिष्ट कुर्सी रखी गयी थी। सुप्रीम कोर्ट ने रेड्डि की याचिका निरस्त कर दी।

तो यह हैं किस्साये संजीव रेड्डि है जो ग्राम इल्लूर (जिला अनंतपुर, आंध्र प्रदेश) का देहाती था। मगर अन्तत: राष्ट्रपति भवन तक पहुंचा ही।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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