दस्तक-विशेष

लोकचेतना में स्वाधीनता की लय

स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) पर विशेष

आकांक्षा यादव

स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी से आत्मसम्मान और आत्मउत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीर्घावधि विदेशी शासन और सत्ता की कुटिल-उपनिवेशवादी नीतियों के चलते परतंत्रता का दंश झेलने को मजबूर होना पड़ा था और जब इस क्रूरतम कृत्यों से भरी अपमानजनक स्थिति की चरम सीमा हो गई तब जनमानस उद्वेलित हो उठा था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए सन् 1857 से सन् 1947 तक दीर्घावधि क्रान्ति यज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्तों ने तन-मन जीवन अर्पित कर दिया था। यह क्रान्ति करवटें लेती हुयी लोकचेतना की उत्ताल तरंगों से आप्लावित है। यह आजादी हमें यूं ही नहीं प्राप्त हुई वरन् इसके पीछे शहादत का इतिहास है। लाल-बाल-पाल ने इस संग्राम को एक पहचान दी तो महात्मा गांधी ने इसे अपूर्व विस्तार दिया। एक तरफ सत्याग्रह की लाठी और दूसरी तरफ भगर्तंसह व आजाद जैसे क्रान्तिकारियों द्वारा पराधीनता के खिलाफ दिया गया इन्कलाब का अमोघ अस्त्र अंग्रेजों र्की हिंसा पर भारी पड़ा और अन्तत: 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय ने अपनी कोमल रश्मियों से एक नये स्वाधीन भारत का स्वागत किया।

इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और्र किंवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। लोकलय की आत्मा में मस्ती और उत्साह की सुगन्ध है तो पीड़ा का स्वाभाविक शब्द स्वर भी। कहा जाता है कि पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रान्ति आरम्भ करने का निश्चय किया गया था, पर 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी के सिपाही मंगल पाण्डे की शहादत से उठी ज्वाला वक्त का इन्तजार नहीं कर सकी और प्रथम स्वाधीनता संग्राम का आगाज़ हो गया। मंगल पाण्डे के बलिदान की दास्तां को लोक चेतना में यूं व्यक्त किया गया है-

‘जब सत्तावनि के रारि भइलि, बीरन के बीर पुकार भइल।
बलिया का मंगल पाण्डे के, बलिवेदी से ललकार भइल।
मंगल मस्ती में चूर चलल, पहिला बागी मसहूर चलल।
गोरनि का पलटनि का आगे, बलिया के बाँका सूर चलल।’

कहा जाता है कि 1857 की क्रान्ति की जनता को भावी सूचना देने हेतु और उनमें सोयी चेतना को जगाने हेतु ‘कमल’ और ‘चपाती’ जैसे लोकजीवन के प्रतीकों को संदेशवाहक बनाकर देश के एक कोने से दूसरे कोने तक भेजा गया। यह कालिदास के मेघदूत की तरह अतिरंजना नहीं अपितु एक सच्चाई थी। क्रान्ति का प्रतीक रहे ‘कमल’ और ‘चपाती’ का भी अपना रोचक इतिहास हैर्। ंकवदन्तियों के अनुसार एक बार नाना साहब पेशवा की भेंट पंजाब के सूफी फकीर दस्सा बाबा से हुई। दस्सा बाबा ने तीन शर्तों के आधार पर सहयोग की बात कही- सब जगह क्रान्ति एक साथ हो, क्रान्ति रात में आरम्भ हो और अंग्रेजों की महिलाओं व बच्चों का कत्लेआम न किया जाय। नाना साहब की हामी पर अलौकिक शक्तियों वाले दस्सा बाबा ने उन्हें अभिमंत्रित कमल के बीज दिये तथा कहा कि इनका चूरा मिली आटे की चपातियां जहां-जहां वितरित की जायेंगी, वह क्षेत्र विजित हो जायेगा। फिर क्या था, गांव-गांव तक क्रान्ति का संदेश फैलाने के लिए चपातियां भेजी गईं। कमल को तो भारतीय परम्परा में शुभ माना जाता है पर चपातियों को भेजा जाना सदैव से अंग्रेज अफसरों के लिए रहस्य बना रहा। वैसे भी चपातियों का सम्बन्ध मानव के भरण-पोषण से है। विचारक वी. डी. सावरकर ने एक जगह लिखा है- ‘हिन्दुस्तान में जब भी क्रान्ति का मंगल कार्य हुआ, तब ही क्रान्ति-दूतों चपातियों द्वारा देश के एक छोर से दूसरे छोर तक इस पावन संदेश को पहुंचाने के लिए इसी प्रकार का अभियान चलाया गया था क्योंकि वेल्लोर के विद्रोह के समय में भी ऐसी ही चपातियों ने सक्रिय योगदान दिया था।’ चपाती (रोटी) की महत्ता मौलवी इस्माईल मेरठी की इन पंक्तियों में देखी जा सकती है-

‘मिले खुश्क रोटी जो आजाद रहकर,
तो वह खौफो जिल्लत के हलवे से बेहतर।
जो टूटी हुई झोंपड़ी वे जरर हो,
भली उस महल से जहाँ कुछ खतर हो।’

1857 की क्रान्ति वास्तव में जनमानस की क्रान्ति थी, तभी तो इसकी अनुगूंज लोक साहित्य में भी सुनायी पड़ती है। भारतीय स्वाधीनता का संग्राम सिर्फ व्यक्तियों द्वारा नहीं लड़ा गया बल्कि कवियों और लोक गायकों ने भी लोगों को प्रेरित करने में प्रमुख भूमिका निभायी। लोगों को इस संग्राम में शामिल होने हेतु प्रकट भाव को लोकगीतों में इस प्रकार व्यक्त किया गया-

‘गांव-गांव में डुग्गी बाजल, बाबू के फिरल दुहाई
लोहा चबवाई के नेवता बा, सब जन आपन दल बदल।
बा जन गंवकई के नेवता, चूड़ी फोरवाई के नेवतार्
सिंदूर पोंछवाई के नेवता बा, रांड कहवार के नेवता।’

राजस्थान के राष्ट्रवादी कवि शंकरदान सामोर ने मुखरता के साथ अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ियां तोड़ देने का आह्वान किया-

आयौ औसर आज, प्रजा परव पूरण पालण
आयौ औसर आज, गरब गोरां रौ गालण
आयौ औसर आज, रीत रारवर्ण हिंदवाणी
आयौ औसर आज, विकट रण खाग बजाणी
फाल हिरण चुक्या फटक, पाछो फाल न पावसी
आजाद हिन्द करवा अवर, औसर इस्यौ न आवसी।‘

1857 की लड़ाई आर-पार की लड़ाई थी। हर कोई चाहता था कि वह इस संग्राम में अंग्रेजों के विरुद्ध जमकर लड़े। यहां तक कि ऐसे नौजवानों को जो घर में बैठे थे, महिलाओं ने लोकगीत के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए प्रेरित किया-

लागे सरम लाज घर में बैठ जाहु
मरद से बनिके लुगइया आए हरि
पहिरि के साड़ी, चूड़ी, मुंहवा छिपाई लेहु
राखि लेई तोहरी पगरइया आए हरि।’

1857 की जनक्रान्ति’ का गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ ने भी बड़ा जीवन्त वर्णन किया है। उनकी कविता पढ़कर मानो 1857, चित्रपट की भांति आंखों के सामने छा जाता है-

‘सम्राट बहादुरशाह ‘जफर’, फिर आशाओं के केन्द्र बने
सेनानी निकले गाँव-गाँव, सरदार अनेक नरेन्द्र बने।
लोहा इस भाँति लिया सबने, रंग फीका हुआ फिरंगी का
हिन्दू-मुस्लिम हो गये एक,रह गया न नाम दुरंगी का
अपमानित सैनिक मेरठ के, फिर स्वाभिमान से भड़क उठे
घनघोर बादलों-से गरजे, बिजली बन-बनकर कड़क उठे
हर तरफ क्रान्ति ज्वाला दहकी, हर ओर शोर था जोरों का
पुतला बचने पाये न कहीं पर, भारत में अब गोरों का।’

1857 की क्रान्ति की गूंज दिल्ली से दूर पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में भी सुनायी दी थी। वैसे भी उस समय तक अंग्रेजी फौज में ज्यादातर सैनिक इन्हीं क्षेत्रों के थे। स्वतंत्रता की गाथाओं में इतिहास प्रसिद्ध चौरीचौरा की डुमरी रियासत बंर्धू ंसह का नाम आता है, जो कि 1857 की क्रान्ति के दौरान अंग्रेजों का सर कलम करके और चौरीचौरा के समीप स्थित कुसुमी के जंगल में अवस्थित माँ तरकुलहा देवी के स्थान पर इसे चढ़ा देते। कहा जाता है कि एक गद्दार के चलते अंग्रेजों की गिरफ्त में आये बंर्धू ंसह को जब फांसी दी जा रही थी, तो सात बार फाँसी का फन्दा ही टूटता रहा। यही नहीं जब फांसी के फन्दे से उन्होंने दम तोड़ दिया तो उस पेड़ से रक्तस्राव होने लगा जहाँ बैठकर वे देवी से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने की शक्ति माँगते थे। पूर्वांचल के अंचलों में अभी भी यह पंक्तियाँ सुनायी जाती हैं-

सात बार टूटल जब, फांसी के रसरिया
गोरवन के अकिल गईल चकराय।
असमय पड़ल माई गाढ़े में परनवा
अपने ही गोदिया में माई लेतु तू सुलाय।
बंद भईल बोली रुकि गइली संसिया
नीर गोदी में बहाते, लेके बेटा के लशिया।’

भारत को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था। पर अंग्रेजी राज ने हमारी सभ्यता व संस्कृति पर घोर प्रहार किये और यहां की अर्थव्यवस्था को भी दयनीय अवस्था में पहुंचा दिया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने इस दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया है-

रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो
सबके पहले जेहि सभ्य विधाता कीनो
सबके पहिले जो रूप-रंग रस-भीनो
सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो
अब सबके पीछे सोई परत लखाई
हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।

1857 की क्रान्ति में जिस मनोयोग से पुरुष नायकों ने भाग लिया, महिलायें भी उनसे पीछे नहीं रहीं। लखनऊ में बेगम हज़रत महल तो झांसी में रानी लक्ष्मीबाई ने इस क्रान्ति की अगुवाई की। बेगम हज़रत महल ने लखनऊ की हार के बाद अवध के ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर क्रान्ति की चिन्गारी फैलाने का कार्य किया-

मजा हज़रत ने नहीं पाई, केसर बाग लगाई
कलकत्ते से चला फिरंगी, तंबू कनात लगाई
पार उतरि लखनऊ का/, आयो डेरा दिहिस लगाई
आसपास लखनऊ का घेरा,सड़कन तोप धराई।

रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी वीरता से अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये। उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा था कि- ‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो व्रिदोही में एकमात्र मर्द थी।’ ‘झाँसी की रानी’ नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चौहान 1857 की उनकी वीरता का बखान करती हैं-

चमक उठी सन् सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी
बुन्देले हरबोलों के मुँह, हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता व नृशंसता का नमूना था। इस हत्याकाण्ड ने भारतीयों विशेषकर नौजवानों की आत्मा को हिलाकर रख दिया। गुलामी का इससे वीभत्स रूप हो भी नहीं सकता। सुभद्राकुमारी चौहान ने ‘जलियावाले बाग में वसंत’ नामक कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित की है-
(लेखिका कॉलेज में प्रवक्ता के बाद साहित्य लेखन तथा ब्लॉगिंग के क्षेत्र में प्रवृत्त हैं।)

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