नहीं खुल पायी मोहब्बत की दुकान
–जितेन्द्र शुक्ला
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम आ गए हैं। इन चुनावों को लोकसभा चुनाव से पहले सेमीफाइनल मुकाबला कहा जा रहा था। यदि इसे सेमीफाइनल मान भी लें तो यह तय हो गया है कि भाजपा एक बार फिर फाइनल खेलने जा रही है और उसका मुकाबला करते फिलहाल कोई भी नहीं दिख रहा है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा कन्याकुमारी से कश्मीर तक की गयी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को जिस प्रकार का जनसमर्थन मिला, वह मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वोटों में तब्दील नहीं हुआ। यानि हिन्दी पट्टी पर ‘मोहब्बत की दुकान’ नहीं खुल पायी। वास्तव में इस चुनाव में राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ राज्य में जहां कांग्रेस की सरकार थी, सरकार के प्रति जनाक्रोश उभरता कहीं से नजर नहीं आ रहा था। इन राज्यों में सरकार ने आम जन के साथ-साथ किसान, कर्मचारी, महिलाओं, युवा वर्ग को संतुष्ट करने का हरसंभव प्रयास किया है, जिससे इन वर्गों के लोगों में सरकार के प्रति कहीं से असंतोष नजर नहीं आ रहा था। सरकार के कामकाज पर इन राज्यों में अधिकांश ने विश्वास जताया था जिससे इन राज्यों में कांग्रेस को फिर से सत्ता में वापसी की भविष्यवाणी की जा रही थी।
वहीं मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार थी जहां सरकार ने लाडली योजना से राज्य की महिलाओं को प्रभावित करने का भरपूर प्रयास किया, जिस आधार पर उसे फिर से सत्ता में वापिस आने की पूरी आशा थी और ऐसा हुआ भी। मध्य प्रदेश में 2018 के चुनाव से सबक लेते हुए भाजपा इस बार खासी सतर्क थी और जहां भी पिछली बार चूक हुई थी, उसे समय रहते दुरुस्त कर लिया गया। हालांकि भाजपा आलाकमान भी मध्य प्रदेश में वापसी को लेकर सशंकित था। इसीलिए उसने केन्द्रीय मंत्रियों सहित सांसदों तक को विधानसभा चुनाव में उतार दिया था। उधर, कांग्रेस अति आत्मविश्वास में थी। उसे भरोसा हो चला था कि इस बार छीका जरूर और बहुत मजबूती से टूटेगा और मक्खन उसी के हिस्से में आयेगा। यही अति आत्मविश्वास कांग्रेस को सत्ता से दूर ले गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा शिवराज सिंह चौहान के भरोसे चुनाव में उतरने से कतरा रही थी लेकिन शिवराज की ही लाडली बहना योजना ने भाजपा को प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करायी। आधी आबादी ने मामा यानि शिवराज सिंह चौहान का बढ़-चढ़कर साथ दिया। स्थिति यह थी राज्य की 72 सीटों पर 80 फीसदी महिलाओं ने मतदान किया। माना जा रहा है कि यह मतदान सिर्फ और सिर्फ शिवराज के लिए था और लाडली बहना योजना के धन्यवाद स्वरूप।
साफ है कि तीनों हिन्दी भाषी प्रदेशों मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में इस बार भाजपा अन्य दलों पर भारी पड़ी है, जबकि इन तीन राज्यों में से दो में फिलहाल कांग्रेस की सरकारें थीं और भाजपा शासित अकेला मध्य प्रदेश है, किंतु इस बार इन राज्यों में चूंकि प्रमुख प्रतिपक्षी दल कांग्रेस भाजपा के सर्वोच्च नेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कोई अपने पक्ष में विकल्प नहीं खोज पाई, इसलिए राजनीतिक ज्योतिषी भी इन राज्यों में इस बार भाजपा को ही अहमियत दे रहे थे। इसका कारण भाजपा अपने सर्वोच्च नेता नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता बता रही है और कांग्रेस को अंगूठा दिखाकर पूछ रही थी कि ‘हमारे पास मोदी है, तुम्हारे पास कौन?’ और कांग्रेस इस प्रश्न का सीधा-सीधा जवाब नहीं दे पायी।
हिंदी भाषी बेल्ट माने जाने वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला रहा। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने इन तीनों प्रदेशों में सरकार बनाई थी। मगर भाजपा ने कांग्रेस की अंदरूनी कलह का लाभ उठाते हुए मध्य प्रदेश की सरकार को गिराकर शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में अपनी सरकार बना ली थी। मध्य प्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बीजेपी को कड़ी टक्कर दी थी। 2018 के चुनावों में यहां कांग्रेस ने 114 सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि बीजेपी को 109 सीटें मिली थीं। पहले कांग्रेस ने सरकार बना ली थी लेकिन यह सरकार 20 महीने ही टिक पाई थी। इस बार के विधानसभा चुनाव में यह मानकर चला जा रहा था कि कांग्रेस बीजेपी को कड़ी टक्कर देगी और हो सकता है कि बीजेपी पिछड़ जाए लेकिन ऐसा नहीं हो पाया है। एग्जिट पोल में भी कांग्रेस-बीजेपी में कड़ी टक्कर का अनुमान लगाया गया था लेकिन रुझान एकदम उलट हैं। मध्य प्रदेश में मामा के नाम से चर्चित राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एक लोकप्रिय नेता हैं। बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं घोषित किया था लेकिन पूरे चुनाव प्रचार का जिम्मा उन्होंने अपने कंधों पर उठा रखा था। शिवराज सिंह चौहान की छवि एक उदार नेता की रही है, साथ ही जनता से उनके ‘कनेक्ट’ करने की कला ने उन्हें राज्य में खासा पहचान दिलाई है।
बीजेपी को जीत दिलाने में आदिवासी और पिछड़ी जाति के वोटों की अहम भूमिका रही है। शिवराज सिंह चौहान ख़ुद किरार जाति के हैं जो मध्य प्रदेश में ओबीसी श्रेणी में आती है। शिवराज सिंह चौहान की सरकार कई लोकप्रिय योजनाओं के लिए भी जानी जाती है। यह सरकार लड़कियों के जन्म पर एक लाख रुपए का चेक देती है, जिससे 18 साल की उम्र में पैसे मिलते हैं। गरीबों के घरों में किसी की मौत पर पांच हजार रुपए अंत्येष्टि लिए देती है। सरकार सामूहिक शादियां कराती है और खर्च भी ख़ुद ही उठाती है। आदिवासी और दलितों के बीच सरकार की यह योजना काफी लोकप्रिय हुई है। इनके अलावा शिवराज सरकार की लाडली बहन योजना की खासी चर्चा है। इस योजना को बीजेपी की जीत में अहम भूमिका निभाने वाला बताया जा रहा है। इस योजना के तहत मध्य प्रदेश में 23 से लेकर 60 साल तक की उम्र वाली एक करोड़ 25 लाख महिलाओं के खाते खोले गए हैं, जिनमें प्रति माह एक हजार रुपये की धनराशि ट्रांसफर करने की प्रक्रिया चल रही है। वैसे तो योजना शुरू करने की घोषणा मार्च महीने में ही की गई थी, लेकिन इसको पूरी तरह से अमल में लाने की प्रक्रिया को तीन महीने लग गए। इस दौरान प्रदेश के शहरी और ग्रामीण अंचलों में महिलाओं को इसके बारे में बताया गया था और फिर उनके बैंक खाते खोलने और योजना के लिए उनके पंजीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई।
हालांकि मध्य प्रदेश का रण भाजपा के लिए कतई आसान नहीं था। भाजपा ने ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक विधायकों से दल-बदल करवाकर कमलनाथ सरकार को गिराकर भाजपा की सरकार तो बना ली थी। मगर कांग्रेस से भाजपा में आए सिंधिया समर्थक विधायकों व भाजपा के मूल कार्यकर्ताओं का टकराव कभी समाप्त नहीं हो पाया था। यहां तक की टिकट वितरण में भी भाजपा दोनों गुटों को एक जगह करने में असफल रही। यही वजह थी कि बड़ी संख्या में भाजपा के बागी मैदान में उतर गए लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों ने समय रहते सभी घावों पर मरहम लगाकर उसे सुखा दिया। उधर, कांग्रेस ने इस बार भी चुनाव की जिम्मेदारी कमलनाथ को दी हुई थी। अब से पहले भी जब-जब राज्य में कांग्रेस की सरकार बनी, सत्ता की बागडोर सवर्ण नेताओं के हाथों में रही। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस ने पिछले दो वर्षों में बहुत सी जनहितकारी योजनाएं शुरू की थीं, जिसका असर इन चुनाव में भी देखने को मिला। चुनाव के दौरान राजस्थान में कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में प्रदेश की जनता से सात वायदे किए और कहा था कि यदि फिर से कांग्रेस की सरकार बनती है तो वह इन वादों को लागू करेगी लेकिन राजस्थान ने अपनी परम्परा को कायम रखा और एक बार फिर ‘रोटी’ पलट दी।
राजस्थान में कांग्रेस ने कमजोर स्थिति वाले बहुत से विधायकों का टिकट काट कर नए लोगों को मौका दिया था, जिससे सरकार के प्रति व्याप्त नाराजगी को दूर किया जा सके। राजस्थान विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस तरह से चुनावी चक्रव्यूह की रचना की थी जिसमें भाजपा के दिग्गज नेता भी उलझ जायें। कई बड़े जाट नेताओं के भाजपा में जाने के बावजूद कांग्रेस पार्टी ने जाट समाज के लोगों को बढ़-चढ़कर टिकट दिया था लेकिन उनका यह दांव भी नहीं चला। राजस्थान में भी भाजपा ने मध्य प्रदेश की तर्ज पर सात सांसदों को चुनाव मैदान में उतारा था। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के अन्तरविरोध को भाजपा ने इस बार के चुनाव में बखूबी भुनाया।
छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कांग्रेस के पहले ऐसे नेता हैं जो पांच साल शासन करने के उपरांत भी प्रदेश की जनता में पहले की ही तरह लोकप्रिय बने हुए थे। जमीन से जुड़े होने के कारण बघेल को आम आदमी की समस्याओं की जानकारी थी। अपने कार्यकाल में उन्होंने आम आदमी के कल्याण से जुड़ी अनेकों योजनाएं जारी कर लोगों में अपनी सरकार के प्रति नकारात्मक भावना पैदा ही नहीं होने दी। लेकिन इसका लाभ उनको विधानसभा चुनाव में नहीं मिल सका। सरकार के अंतिम वर्ष में उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी टीएस सिंह देव को उपमुख्यमंत्री बनाकर उनकी नाराजगी तो दूर कर दी लेकिन कांग्रेस संगठन को मजबूती की ओर उनका ध्यान नहीं गया। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के मुख्यमंत्री रमन सिंह के 15 साल के कार्यकाल से तंग आ चुकी जनता को भूपेश बघेल ने एक नया नेतृत्व देकर प्रदेश के सभी वर्गों के विकास का वादा किया था, जिस पर उन्होंने खरा उतरने के लिए पूरा प्रयास किया। छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस मजबूती के साथ चुनाव लड़ी लेकिन भाजपा फिर से सरकार बनाने जा रही है। तेलंगाना में कांग्रेस ने सबसे अधिक मजबूती दिखाई है। 2014 के बाद तेलंगाना में कांग्रेस बहुत कमजोर स्थिति में पहुंच गई थी।
तेलंगाना में पिछले कुछ वर्षों में बीजेपी जो वोट बैंक बनाने में सफल रही थी, अब वह कमजोर हुआ है। कमल के बजाय अब कांग्रेस मजबूत हो गई। तमाम लोकप्रिय कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के बावजूद, सत्ताधारी भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) इस चुनाव में रक्षात्मक स्थिति में नजर आई। उसे कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिली। यहां के बहुत से मतदाता कुछ नया चाहते थे। वहीं राज्य के अधिकांश लोग केसीआर और उनके परिवार के रवैये से नाखुश थे। विपक्षी दलों ने इसे अपने प्रचार अभियान के दौरान भुनाया भी। उन्होंने इसे केसीआर के परिवार के शासन के अहंकारी रवैये के रूप में प्रचारित किया। तेलंगाना आंदोलन के दौरान पानी, फंड और सरकारी नौकरियों (नई नियुक्तियों) को राज्य के विकास के मंत्र के रूप में प्रचारित किया गया था। लेकिन बीआरएस ने रोजगार यानी नौकरी के अवसर पैदा करने पर बहुत कम ध्यान दिया। राज्य में राजनीतिक हालात ऐसे हुए कि जो मतदाता कभी बीजेपी की ओर झुक गए थे, अब उन्होंने कांग्रेस का रुख कर लिया। जिस समय बंडी संजय बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष थे, तब बीजेपी हैदराबाद नगर निगम जीतने की दहलीज पर थी। उसने दुब्बाका और हुजूराबाद विधानसभा क्षेत्रों में हुए महत्वपूर्ण उपचुनाव में भी जीत हासिल की थी।
केसीआर और उनके परिजनों के खिलाफ बंडी संजय बहुत ही आक्रामक ढंग से बोलते थे, लेकिन जब किशन रेड्डी ने प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर उनकी जगह ली तो राज्य में एक नया अध्याय शुरू हुआ। कांग्रेस ने बार-बार आरोप लगाया कि बीआरएस और बीजेपी के बीच मिलीभगत है। यह संदेश राज्य की जनता के बीच तेजी से और बड़े स्तर पर फैल गया, जिससे बीजेपी की मजबूती कम हो गई। वहीं तेलंगाना में भले ही कम्युनिस्ट पार्टियां कमजो हो गई हों, लेकिन वामपंथी झुकाव रखने वाले वे वर्ग अभी भी मुखर हैं, जिनका पार्टियों से नाता नहीं है। वामपंथी और उदारवादी तबकों की इन मुखर आवाजों का बड़ा हिस्सा कांग्रेस की ओर मुड़ गया। 119 विधायकों वाली तेलंगाना विधानसभा में 60 सीटों पर जीत हासिल करने पर बहुमत मिल जाता है। साल 2018 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में बीआरएस (तब टीआरएस) ने 46.8 प्रतिशत वोट लेकर 88 सीटों पर जीत हासिल की थी। तब कांग्रेस 28.4 प्रतिशत वोट लेकर सिर्फ 19 सीटें जीत पाई थी। वहीं बीआरएस को हराने के लिए कांग्रेस को ऊंची कूद लगानी पड़ी थी।