दस्तक-विशेषस्तम्भ

दास्तां है दो नोबेल विजेताओं की !

एक योद्धा की, दूसरी प्रतीक्षार्थी की !!

के. विक्रम राव

स्तंभ: दो बांग्लाभाषी हैं। दोनों नोबेल विजेता। महान अर्थशास्त्री हैं। एक पड़ोसी गणराज्य बांग्लादेशी। दूसरे पश्चिम बंगाल के। ढाका और कोलकता के ये दोनों अपनी सरकारों से सताये हुए हैं। मगर अमृत सेन कांग्रेसी सरकार के बहुत बड़े लाभार्थी रहे। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के चहेते भी। आजकल उनके दिन बिगड़े हैं। उधर प्रो. मोहम्मद यूनुस राजनीतिक कारणों से प्रधानमंत्री बेगम शेख हसीना से पीड़ित किए गए।

पहले इस बांग्लादेशी की चर्चा कर लें। पश्चिम देशों में 85-वर्षीय प्रो. यूनुस को “गरीबों का बैंक” कहते हैं। ग्रामीण बैंकों की श्रृंखला बनाने के कारण। मगर आवामी लीग की प्रधान मंत्री हसीना उन्हें “निर्धनों का रक्त-पिपासु” बताती हैं। उन्हें दुश्मन मानती हैं। प्रो. यूनुस को खत्म करने के लिए बांग्लादेशी संसद ने एक विशेष कानून बनाया था ताकि ग्रामीण बैंकों का काम करना कठिन हो जाए। यूनुस कई बार पुलिसिया गिरफ्त में भी आए। कई मुकदमों का सामना कर रहे हैं। अपने जौहरी पिता की नौ संतानों में तीसरे मोहम्मद यूनुस माइक्रो-फ़िनांस के सृजक हैं। शेख हसीना को इस नवउदारवादी अर्थनीति से घृण थी। बस शत्रुता का प्रारंभ यहीं से हुआ।

शेख हसीना की सरकार ने ग्रामीण और यूनुस के खिलाफ अभियान चलाया। न्यूयॉर्क टाइम्स ने रिपोर्ट किया : “उनकी हरकतें 2007 में श्री यूनुस की उस घोषणा का प्रतिशोध प्रतीत होती हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि वह सार्वजनिक पद की तलाश करेंगे, भले ही वह अपनी योजनाओं पर कभी अमल नहीं कर सके”। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, यूनुस के खिलाफ उनके फैसले में एक अन्य कारक ने योगदान दिया : नोबेल शांति पुरस्कार। हसीना ने सोचा था कि नॉर्वेजियन नोबेल शांति पुरस्कार समिति उन्हें 1997 में शांति संधि, चटगांव हिल ट्रैक्ट्स (सीएचटी) पर हस्ताक्षर करने के लिए पुरस्कार में देगी। अटॉर्नी जनरल महबुबे आलम ने 9 मार्च को सरकार का रुख व्यक्त किया। उन्होंने कहा : “प्रधानमंत्री शेख हसीना को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिए था।” उन्होंने नोबेल समिति के विवेक को चुनौती दी।

प्रो. यूनुस की ईमानदारी साबित हो गई जब 11 जनवरी 2007 को सेना जनरल मोईन यू अहमद ने तख्तापलट किया। इस बीच खालिदा जिया का कार्यकाल समाप्त होने के बाद देश का चौथा मुख्य सलाहकार बनने का उनका अनुरोध प्रो. यूनुस ने ठुकरा दिया था। हालाँकि, यूनुस ने इस पद के लिए जनरल फखरुद्दीन अहमद को चुनने का सुझाव दिया। फ़ख़रुद्दीन ने 11 जनवरी 2007 को पदभार संभाला और अपने पहले ही दिन यह स्पष्ट कर दिया कि उनका इरादा न केवल स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की व्यवस्था करना है बल्कि भ्रष्टाचार को साफ़ करना भी है। खालिदा और हसीना ने जहां फकरुद्दीन की आलोचना की और दावा किया कि भ्रष्टाचार को साफ करना उनका काम नहीं है, वहीं यूनुस ने संतोष व्यक्त किया। एएफपी समाचार एजेंसी के साथ एक साक्षात्कार में, यूनुस ने टिप्पणी की कि बांग्लादेश में राजनेता केवल पैसे के लिए काम करते हैं। उन्होंने कहा : “यहां कोई विचारधारा नहीं है।” हसीना ने यूनुस की टिप्पणियों पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्हें “सूदखोर” कहा, जो न केवल गरीबी को मिटाने में विफल रहा है, बल्कि गरीबी को बढ़ावा भी दिया है।

इस वैश्विक स्तर के अर्थशास्त्री को तंग करने में प्रधानमंत्री हसीना ने ग्रामीण बैंक पद से उन्हें हटा दिया। दो कारण दिये। पहला : ग्रामीण बैंक ने मिलावटी दही बनाने वाले को बैंक लोन प्रो. यूनुस के कहने पर दिया गया। दूसरा कि उन्होंने साठ वर्ष की रिटायरमेंट आयु से अधिक काम किया। यह सरकारी नियमों के खिलाफ था। हालांकि बैंक के नौ निदेशकों ने, लाखों कर्जदारों और बाइस हजार कार्मिकों ने प्रो. यूनुस का समर्थन किया था। नब्बे लाख उधारकर्ताओं ने भी उनका साथ दिया था। तो गरीबों के मसीहा कहलानेवाले प्रो. यूनुस पर सत्तालोलुप प्रधानमंत्री के अवांछनीय हमले होते रहे। हालांकि अंतरराष्ट्रीय अर्थवेत्ताओं और कई यूरोपीय तथा अमेरिकी सांसदों ने बेगम हसीना को पत्र भी लिखे कि एक नोबेल विजेता बांग्लादेशी का आदर किया जाए। परेशान नहीं।

अब गौर करें भारतीय वंगभाषी नोबेल विजेता बंगभाषी प्रो. अमृत सेन पर। मामला बड़ा मामूली है। उन पर रविंद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित विश्वभारती विश्वविद्यालय में सवा एक एकड़ जमीन हथियाने का आरोप है। सेन इसे अपनी जमीन बताते हैं, जो उन्हें उपहार में मिली थी। इसी बीच प्रो. सेन ने ऐलान कर डाला कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भारत के श्रेष्ठतम प्रधानमंत्री बनने लायक हैं। बस ममता दीदी ने जवाब में कहा यदि विश्वविद्यालय ने जमीन वापस ली तो मुख्यमंत्री बीरभूम जिले के शांतिनिकेतन में धरने पर बैठ जाएंगी। अर्थात इस केंद्र सरकार द्वारा संचालित शिक्षाकेंद्र में राज्य पुलिस को तैनात कर देंगी। भारतीय सेना बनाम बंगाल पुलिस का मुठभेड़ तय है। अमृत सेन अकूत संपत्ति के स्वामी हैं। फिर भी सवा एकड़ जमीन के मालिकाना हक से सटे हुए हैं। वे भारत रत्न भी पा चुके हैं। उन्हें कांग्रेसी प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह ने ऐतिहासिक नालंदा विश्वविद्यालय का प्रथम चांसलर नामित किया था। तो प्रो. सेन ने ऐवज में सरदार मनमोहन सिंह की दोनों बेटी डॉ. उपिंदर कौर तथा उनकी सहेली डॉ. नवजोत लहरी को नालंदा विश्वविद्यालय में नियुक्त कर डाला था।

भूतपूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने का सपना देखा और बिहार सरकार को दिखाया। राज्य सरकार ने हामी भरी तो वे पहले विजिटर भी बने। अमर्त्य सेन को भी विश्वविद्यालय के साथ जोड़ा गया। हालांकि सेन के कुछ विवादास्पद निर्णय के विरोध में तत्कालीन राष्ट्रपति कलाम ने उस विश्वविद्यालय से खुद को अलग कर लिया था। डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने तो नालंदा विश्वविद्यालय के मामलों को लेकर अमर्त्य सेन के खिलाफ मुकदमा चलाने की केंद्र सरकार से मांग भी की थी। अमृत सेन ने वैज्ञानिक, ईमानदार राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को भी नीचा दिखा दिया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Related Articles

Back to top button