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राम कथा से सत्संग का पुण्यफल : विश्वामित्र की शंका का समाधान हो गया

एक बार मुनि वशिष्ठ विश्वामित्र ऋषि के आश्रम में गए उनका बड़ा स्वागत, सत्कार और आतिथ्य किया गया। कुछ दिन आदरपूर्वक रहने के बाद जब वशिष्ठ चलने लगे, तो विश्वामित्र ने उन्हें एक हजार वर्ष की अपनी तपस्या का पुण्यफल उपहार स्वरूप दिया। बहुत दिन बाद संयोगवश विश्वामित्र भी वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे। उनका भी वैसा ही स्वागत-सत्कार हुआ।

जब विश्वामित्र चलने लगे, तो मुनि वशिष्ठ ने उन्हें अपने एक दिन के सत्संग का पुण्यफल भेंट किया। विश्वामित्र मन ही मन बहुत खिन्न हुए। वशिष्ठ को एक हजार वर्ष की तपस्या का पुण्य भेंट किया था।  वैसा ही मूल्यवान उपहार न देकर वशिष्ठ जी ने केवल एक दिन के सत्संग का तुच्छ फल दिया।  इसका कारण उनकी अनुदारता और मेरे प्रति तुच्छता की भावना का होना ही हो सकता है। यह दोनों ही बातें अनुचित हैं।

मुनि वशिष्ठ विश्वामित्र के मनोभाव को समझ गए और उनका समाधान करने के लिए विश्वामित्र को साथ लेकर विश्व भ्रमण के लिए चल पड़े। लते-चलते दोनों वहां पहुंचे जहां शेष जी अपने फन पर पृथ्वी का बोझ लादे हुए बैठे थे। दोनों ऋषियों ने उन्हें प्रणाम किया और उनके समीप ठहर गए।
अब वशिष्ठ ने शेष जी से पूछा-भगवन् एक हजार वर्ष का तप अधिक मूल्यवान है या एक दिन का सत्संग? शेष जी ने कहा- इसका समाधान केवल वाणी से करने की अपेक्षा प्रत्यक्ष अनुभव से करना ही ठीक होगा।

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मैं सिर पर पृथ्वी का इतना भार लिए बैठा हूं। जिसके पास तप बल है वह थोड़ी देर के लिए इस बोझ को अपने ऊपर ले लें। विश्वामित्र को तप बल पर गर्व था। उन्होंने एक हजार वर्ष की तपस्या के बल को एकत्रित करके उससे पृथ्वी का बोझ अपने ऊपर लेने का प्रयत्न किया, पर वह जरा भी नहीं उठी।  अब वशिष्ठ को कहा गया कि वे एक दिन के सत्संग बल से पृथ्वी उठाएं। वशिष्ठ ने प्रयत्न किया और पृथ्वी को आसानी से अपने ऊपर उठा लिया।


शेष जी ने कहा- ‘तप बल की महत्ता बहुत है। सारा विश्व उसी की शक्ति से गतिमान है। परंतु उसकी प्रेरणा और प्रगति का स्त्रोत सत्संग ही है। इसी लिए उसकी महत्ता तप से भी बड़ी है।’
इस तरह विश्वमित्र की शंका का समाधान हो गया कि मुनि वशिष्ठ ने उन्हें तुच्छ उपहार भेंट कर उनका अपमान नहीँ किया है, क्योंकि सत्संग से ही तप की प्रेरणा मिलती है। अतः सत्संग को अधिक प्रशंसनीय माना गया है।

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