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21वीं सदी का भारत : मनमोहन ने ऐसे बाहर निकाला मुसीबत से

दस्तक रिसर्च डेस्क

नेहरू के मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल पर चलता हुआ देश 80 के दशक तक आते-आते लड़खड़ा गया। कारोबार की दुनिया में ऐसे नियम-कानून बनाए गए कि आर्थिक संवृद्धि और विकास के रास्ते अवरुद्ध हो गए। उद्योग-धंधे बंद हो रहे थे। लोगों के पास पैसा नहीं था। बेरोजगारी बढ़ती जा रही थी। सरकार के पास राजस्व वसूली का कोई जरिया नहीं था। थोड़े बहुत टैक्स के पैसे और फायदे में चल रहे चंद सार्वजनिक उद्यमों की आय से सरकारी योजनाएं किसी तरह से चल रही थीं। बेरोजगारी, गरीबी और जनसंख्या विस्फोट के कारण सरकार को अपने राजस्व से अधिक खर्च करना पड़ रहा था। कच्चे तेल आदि के आयात के लिए देश को डॉलरों में भुगतान करना होता है और ये डॉलर हमें अपने उत्पादन के निर्यात से हासिल होते हैं। तब निर्यात भी एकदम ठप था और डॉलर आने बंद हो गए थे। सरकार अपने विदेशी ऋण के भुगतान करने की हालत में नहीं थी। पेट्रोलियम आदि जरूरी वस्तुओं के आयात के लिए सामान्य रूप से रखा गया विदेशी मुद्रा रिज़र्व पंद्रह दिनों के लिए भी नहीं बचा था। वर्ष 1991 आते-आते ऐसे हालात हो गए कि भारत विदेशी कर्ज में गले तक डूब गया। दुनिया का कोई देश, कोई एजेंसी कर्ज देने को राजी नहीं थी। तत्कालीन सरकार को अपना सारा रिजर्व सोना गिरवी रखना पड़ गया। ऐसा अब तक कभी नहीं हुआ था। ऐसे माहौल में कोई देश या अंतर्राष्ट्रीय निवेशक भी भारत में निवेश नहीं करना चाहता था।

विश्व बैंक ने मरोड़ा हाथ
इन हालात में दुनिया के विकासशील देशों का भारत पर दबाव बढ़ता जा रहा था। अमेरिका जैसे देशों के लिए भारत उपभोक्ताओं का सबसे बड़ा बाजार था जिसके दरवाजे नेहरू मॉडल ने बंद कर रखे थे। भारत ने विश्व बैंक के सामने हाथ पसारे। विश्व बैंक 7 बिलियन डॉलर कर्ज देने को तैयार हो गया लेकिन उसकी कुछ शर्तें थीं। मसलन भारत सरकार उदारीकरण करे। निजी क्षेत्र पर लगे प्रतिबंधों को हटाए। अनेक क्षेत्रों में सरकारी हस्तक्षेप कम करे। उसकी सबसे कठिन शर्त यह थी कि सरकार भारत और अन्य देशों के बीच विदेशी व्यापार पर लगे प्रतिबंध भी हटाए और मल्टी नेशनल कंपनियों के लिए अपने देश के बाजार दरवाजे खोल दे। यह बेहद कठिन वक्त था। ऐसे वक्त में भारतीय राजनीति में डॉ. मनमोहन सिंह की इंट्री हुई। मनमोहन सिंह संयुक्त राष्ट्र में नौकरी कर चुके थे। उन्हें पता था कि भारत के पास अब कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव सरकार के वित्तमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह 1991 में अपने ऐतिहासिक बजट के साथ भारत की आर्थिक सुधार प्रक्रिया की शुरुआत की जिसने इतिहास बदल दिया। भारत ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सारी शर्तें मान लीं और नई आर्थिक नीति की घोषणा की। इसके लिए तत्कालीन राव सरकार को देश में कम्युनिस्टों और समाजवादियों के तमाम विरोधों का सामना करना पड़ा। लेकिन कोई और चारा नहीं बचा था। इस तरह देश मे उदारीकरण की शुरूआत हुई। नई आर्थिक नीति के स्टूल के तीन पाए थे- उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण।

अर्थव्यव्स्था का एक उदार चेहरा
मनमोहन सिंह सबसे पहले उद्योगों के प्रति उदार हुए। वह दौर औद्योगिक लाइसेंस राज का था, जिसमें उद्यमी को एक फैक्ट्री स्थापित करने, उसे बंद करने या उत्पादन की मात्रा तक तय करने के लिए किसी न किसी सरकारी अधिकारी की इजाजत लेनी पड़ती थी। तमाम सारे उद्योग ऐसे थे जिनमें प्राइवेट प्लेयरों के लिए कोई जगह नहीं थी। कुछ वस्तुओं का उत्पादन केवल लघु उद्योग ही कर सकते थे और सभी निजी उद्यमियों को कुछ औद्योगिक उत्पादों की कीमतों के निर्धारण तथा वितरण के बारे में भी अनेक नियंत्रणों का सामना करना पड़ता था। यानी धंधा करना एक बड़ा सिरदर्द था। नई आर्थिक नीति ने यह सारी पाबंदियां हट दी थीं। एल्कोहल, सिगरेट, जोखिमभरे रसायनों, औद्योगिक विस्फोटकों, इलेक्ट्रोनिकी, विमानन तथा औषधि-भेषज, इन छह उत्पाद श्रेणियों को छोड़ अन्य सभी उद्योगों के लिए लाइसेंसिंग व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। अब सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित उद्योगों में भी केवल, परमाणु ऊर्जा उत्पादन और रेल परिवहन की कुछ मुख्य गतिविधियां ही बचे हैं। लघु उद्योगों द्वारा उत्पादित अधिकांश वस्तुएं भी अब अनारक्षित श्रेणी में आ गई हैं। अधिकांश उद्योगों में अब बाज़ार को कीमतों के निर्धारण की इजाजत मिल गई है। पुरानी सदी में यह शानदार भूमिका बन चुकी थी। नई सदी के चौथे ही साल में डा मनमोहन सिंह के हाथ में अगले दस साल तक देश की कमान रही। मनमोहन सिंह ने विक्टर ह्यूगो के मशहूर उद्धरण का इस्तेमाल करे हुए कहा ‘दुनिया की कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ पहुंचा है। दुनिया में भारत का एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उदय एक ऐसा ही विचार है। पूरी दुनिया यह साफ़ तौर पर सुन ले कि भारत जाग चुका है।’

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