दस्तक-विशेषसाहित्य

आज का स्त्री विमर्श बंदर के हाथ में उस्तरा

चर्चित स्त्रीवादी लेखिका गीताश्री ने अपने लेख की शुरुआत में आलोचक व लेखक अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’ का नाम लिए बगैर उनकी एक टिप्पणी के आधार पर उनके मर्दवादी नज़रिए पर लानत-मलानत भेजी। एक लेखक की टिप्पणी पर एक नामचीन लेखिका इतनी भड़क जाएं कि अपनी बात शुरू करने के लिए उन्हें संदर्भित करना पड़े तो जाहिर है लेखक की टिप्पणी बेमानी नहीं रही होगी। उसने कोई ऐसी रग छुई है जहां किसी कोने में दर्द छुपा है। बीते 20 साल के स्त्री विमर्श लेखन का एक समानांतर पक्ष जानने के लिए ‘दस्तक टाइम्स’ ने चमनजी से आग्रह किया कि जो ‘सदविचार’ उन्होंने किसी साहित्यिक जलसे में दिया था, उसे वह हमारे मंच पर विस्तार दें ताकि मौजूदा दौर के स्त्री विमर्श की एक सटीक तस्वीर पाठकों के सामने आए। तो मुलाहिज़ा फरमाइये मि.चमन का यह आलेख।

आजकल की बेजा महत्वाकांक्षी लेखिकाओं का स्त्री विमर्श यानी बंदर के हाथ में उस्तरा। बेजा महत्वाकांक्षी लेखिकाओं से मेरा आशय उन स्वयंभू लेखिकाओं से है जो अपने डैनों की औकात से बहुत ऊंची उड़ान भरने के दुस्साहस की शिकार हैं। स्त्री विमर्श को ये लेखिकाएं एक औजार या कह सकते हैं कि एक सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं। इस बात की उन्हें कतर्ई चिंता नहीं है कि उनके इस कृत्य से कितनी विकृति, विघटन या अराजकता उत्पन्न हो रही है। इन दिनों विभिन्न समाचार पत्रों और चैनलों की सुर्खियों में रहीं ए.आई. इंजिनियर अतुल सुभाष की आत्महत्या को भी आधुनिक स्त्री विमर्श के बाई प्रोडक्ट के रूप में देखा जाना चाहिए। इस प्रकार के हजारों अतुल सुभाष हैं जो स्त्री प्रताड़ना के शिकार होकर आए दिन आत्महत्या कर रहे हैं या फिर मृत्यु से भी बदतर स्थिति में घुट-घुट कर जीने के लिए अभिशप्त हैं। लेकिन उनकी यातना का विमर्श किसी भी प्लेटफॉर्म पर नहीं होता है। मेरे इस कथन पर स्त्री विमर्श की झंडाबरदार आपत्ति कर सकती हैं कि मैंने एक पत्नी प्रताड़ित अतुल सुभाष की आत्महत्या का तो उल्लेख कर दिया लेकिन पति प्रताड़ित स्त्रियों की आत्महत्याओं के बारे में क्या कहना है? इस आपत्ति का जवाब भारत सरकार की एक संस्था के सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ों से मिल जाएगा। ध्यान रहे कि ये आंकड़े सिर्फ शादीशुदा स्त्री, पुरुषों के हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि आत्महंता शादीशुदा पुरुषों की संख्या महिलाओं के मुकाबले लगभग तीन गुनी है।

आज विशेष रूप से नई लेखिकाओं के लिए स्त्री विमर्श एक फैशन बन चुका है। इस फैशन में स्त्री विमर्श को स्त्री की देह तक सीमित कर दिया गया है। आज स्त्री के देह दर्शन, उसकी कामेच्छा, सहवास की स्थितियां, दाम्पत्य जीवन से उसकी असंतुष्टि, उसके विवाहेत्तर सम्बन्ध, लिवइन रिलेशन तथा नैतिक मर्यादाओं से परे व्यसनों की शिकार स्त्री र्की बिंदास जीवन शैली को ही स्त्री विमर्श का समग्र मान लिया गया है। जबकि स्त्री का अस्तित्व उसकी देह से इतर भी है। स्त्री के अंदर कामेच्छा से इतर भी इच्छाएं होती हैं। स्त्री का मूल भाव वासना नहीं बल्कि दया, ममता, वात्सल्य और सहृदयता है। एक स्त्री मर्यादाओं का अतिक्रमण किए बगैर, दाम्पत्य जीवन को तोड़े बगैर और पर पुरुषगामिनी हुए बगैर भी स्वावलम्बन तथा अपने अस्तित्व की राह तलाश सकती है।

आज के जेण्डरवादी स्त्री विमर्श में पुरुष को स्त्री का शत्रु मान लिया गया है। जबकि सच्चाई यह है कि व्यवहार में स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु स्त्री ही है। समाज हो चाहे परिवार जहां कहीं भी स्त्री की प्रताड़ना या उसके अधिकारों के हनन की घटना सामने आती है हर कहीं उसके मूल में स्त्री ही होती है। चाहे वह सास के रूप में हो, ननद के रूप में हो, प्रेमिका के रूप में हो, रखैल के रूप में हो या फिर कार्यालय में सहकर्मी के रूप में हो। वस्तुत: स्त्री विमर्श कोई नई चीज नहीं है। स्त्री की बदतर सामाजिक स्थिति सदैव से ही विमर्श का विषय रही है। क्या रमाबाई या सावित्रीबाई फूले ने स्त्री जाति के लिए जो कुछ किया वह स्त्री विमर्श नहीं है? यदि साहित्य की बात करें तो क्या प्रेमचंद के लेखन में स्त्री विमर्श नहीं है? गोदान की धनिया, कर्मभूमि की सुखदा और सलोनी, रंगभूमि की सोफिया, सेवासदन की सुमन या फिर प्रतिज्ञा की सुमित्रा क्या स्त्री अस्मिता की उदाहरण नहीं हैं? निराला की कविता ‘वह तोड़ती पत्थर’ क्या अपनी तरह से स्त्री विमर्श की बात नहीं करती। महिला लेखिकाओं में भी महादेवी वर्मा, मन्नू भंडारी, शिवानी और नासिरा शर्मा आदि ने स्त्री विमर्श की पुरज़ोर वकालत की है लेकिन मर्यादा की ल़क्ष्मण रेखा के भीतर रह कर की है। उन्होंने पुरुषसत्ता के विरुद्ध लिखते समय पुरुष को स्त्री का शत्रु नहीं बल्कि पूरक और सहचर के रूप में देखा है। लेकिन आज कतिपय लेखिकाएं सिर्फ कुछ नया दिखाने के लिए, एक सनसनी पैदा करने के लिए या फिर अपने लेखन में चटपटापन लाने के लिए सारे सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त करने पर तुली हुई हैं।

आज की स्त्री विमर्श का मुख्य स्वर नारी मुक्ति को ले कर है। लेकिन मजे की बात यह है कि यह मुक्ति कैसी और किससे, यह स्पष्ट नहीं है। इर्स बिंदु पर सभी का अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग है। इनकी मुक्तिकार्मी चिंता पुरुष जाति से मुक्ति की है या कि मातृत्व से मुक्ति की है या कि परिवार से मुक्ति की है या कि सामाजिकता से मुक्ति की है या कि अपनी स्त्रियोचित नैसर्गिकता से मुक्ति की है या फिर अपनी कुंठाओं से मुक्ति की है, कुछ भी साफ़ नहीं है। वैसे सच्चाई यही है कि स्त्री की पुरुष से या पुरुष की स्त्री से मुक्ति संभव ही नहीं है। और सबसे ऊपर एक मज़ेदार सच्चाई यह भी है कि जिस प्रकार कम्युनिस्ट लोग सार्वजनिक मंचों पर कर्मकाण्डों की घोर्र ंनदा करते हैं लेकिन अपने पारिवारिक जीवन में सारे कर्मकाण्ड करते, कराते हैं, ठीक उसी प्रकार स्त्री विमर्श के नाम पर वर्जनाओं के विरुद्ध क्रांति की तलवारें भांजने वाली लेखिकाएं अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में उन तमाम वर्जनाओं को सर-माथे लगाती देखी गयी हैं।

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