दस्तक-विशेषराष्ट्रीय

टुच्चे लोग इतिहास का कर रहे इस्तेमाल

भगवान सिंह

सवाल महाराणा सांगा का हो या औरंगजेब का ये सब इतिहास के सवाल नहीं हैं, ये आज के राजनीति के अधो:पतन के सवाल हैं। एक दिन में काम करके तो ये लोग नाम नहीं कमा नहीं सकते और ये बातें उन टुच्चे लोगों द्वारा हो रही हैं जिनका कोई राजनीतिक अस्तित्व नहीं है। इसके बावजूद उन्हें महत्व मिल रहा है। राणा सांगा ने कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे उनके चरित्र पर बट्टा लगे। उनकी देशभक्ति पर तो कोई संदेह कर ही नहीं कर सकता। ये बात वे लोग भी जानते हैं। सच तो यह है कि राणा सांगा बाबर जितने दूरदर्शी नहीं थे लेकिन वे परम वीर थे। बाबर को कूटनीति आती थी। वह कूटनीति के नाम पर धोखे फरेब में माहिर था। कुछ लोगों को भरम था कि बाबर लूटपाट करके चला जाएगा। लेकिन उसका ये इरादा कतई नहीं था। वह भारत पर राज करना चाहता था। बाबर की कूटनीति थी कि राजपूतों को न छेड़ा जाए। वह राजपूतों की ताकत उनकी नैतिक इच्छा शक्ति को समझ चुका था। इनको मिला कर ही अफगानों को दबा कर रखा जा सकता था क्योंकि उसे मुसलमानों पर बिलकुल भरोसा नहीं था। मुसलमान साजिश करते थे और अपनों को ही मारकर गद्दी पर बैठ जाते थे।

जैसा सल्तनत काल में लगातार हुआ। (राणा सांगा उदयपुर में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राणा रायमल के सबसे छोटे पुत्र थे। ये ऐतिहासिक तथ्य है कि राणा सांगा के बारे में भविष्यवाणी हुई थी कि वह एक महान प्रतापी राजा बनेंगे। उनके दो बड़े भाई इस भविष्यवाणी से भयभीत हो गए थे। उनके खिलाफ साजिशें होने लगीं तो राणा सांगा घर छोड़ कर अज्ञातवास पर चले गए। दोनों भाई बीमारी के कारण मर गए तो सांगा के पिता ने उन्हें बुलाया और सत्ता की बागडोर संभालने को कहा: संपादक) तो ये नैतिक बल था राजपूतों का। बाबर ने राजपूतों से कभी खुद लड़ाई की पहल नहीं की। राणा को रोकने के लिए बाबर को खानवा का युद्ध करना पड़ा। सच तो यह है कि राजपूतों की वजह से मुगलों की सत्ता इतने लंबे समय तक चल सकी।

बाबर को हिंदुस्तान पर राज करना था इसलिए वह जनता को नाराज नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने न दिल्ली में कत्लेआम किया और न आगरा में। जबकि लाहौर में उसने ये सब किया था। और उसने मरते वक्त हुमायूं को सलाह दी कि वह भी ऐसा न करे। सबको साथ लेकर चले। जनता का ख्याल करे। सवाल यह है कि किस तरह के टुच्चे लोग इतिहास का इस्तेमाल कर रहे हैं। सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ के लिए। जिनके पास योग्यता नहीं है अनुभव नहीं है, देश प्रेम नहीं है, राष्ट्रनिष्ठा नहीं है, वे केवल गद्दी पाने के लिए तूफान मचाए हुए हैं। जहां तक मुस्लिम तुष्टीकरण का सवाल है तोये नेहरू ने शुरू किया था। ये नेहरू ने लार्ड माउंटबेटन से सीखा। इसीलिए उन्होंने हिंदू कोड बिल बनाया, इंडियन कोड बिल नहीं बनाया। कहा इंडियन कोड बिल से मुसलमान नाराज होगे। हिंदुओं को हिंदू कोड बिल से एतराज नहीं था। सवाल यह है कि जब राज्य तुम्हारा सेकुलर है तो सिर्फ हिंदुओं के लिए कोड बिल क्यों होना चाहिए। वह संविधान का हिस्सा बन गया। नेहरू जीवन भर मुसलमानों का पक्ष लेते रहे। इससे उन्हें राजनीतिक फायदा भी मिला। पहली बार मोदी ने इसे रिवर्स करने की कोशिश की।
(लेखक प्रसिद्ध इतिकार व साहित्यकार हैं।)

क्या कहते हैं दिग्गज इतिहासकार

इतिहासकार कविराज श्यामलदास
जैसा कि राजपूताना इतिहास की सबसे ज्यादा प्रामाणिक किताब ‘वीर विनोद’ में इतिहासकार कविराज श्यामलदास ने लिखा-‘जब बाबर अफगानिस्तान को फतह कर रहा था उन दिनों इब्राहिम लोदी की अदावत से महाराणा सांगा ने भी उससे ख़त-ओ-किताबत की थी। लेकिन राणा की लोदी से कोई निजी अदावत नहीं थी। बल्कि उनकी अदावत शाही ताज से थी। जब बाबर दिल्ली का बादशाह बना तब वही अदावत उससे भी हो गई।’ कविराज श्यामलदास, वीर विनोद, पेज 364

इतिहासकार रीमा हूजा
इतिहासकार रीमा हूजा ने लिखा- ‘परंपरागत राजपूत संस्करण में यह माना जाता है कि सांगा पहले से ही काफी शक्तिशाली था और मुख्य रूप से विभिन्न दुश्मन राज्यों के खिलाफ सफल था, वह राणा सांगा नहीं था जिसने बाबर के पास एक दूत भेजा था… बल्कि, वह बाबर था जो अपने दुश्मन, इब्राहिम लोदी के खिलाफ मजबूत क्षमता और ताकत वाला एक सहयोगी की तलाश भारत में कर रहा था। रीमा हूजा (2006), राजस्थान का इतिहास, रूपा एंड कंपनी, पेज 453

इतिहासकार सतीश चंद्र
इतिहासकार सतीश चंद्र ने लिखा- राणा सांगा ने बाबर और लोदी के बीच एक लंबे, खींचे गए संघर्ष की कल्पना की होगी, जिसके बाद वह उन क्षेत्रों पर नियंत्रण पाने में सक्षम हो जाएगा, जिन्हें वो पाना चाहता था। चंद्र लिखते हैं, हो सकता है कि सांगा को जब अहसास हुआ हो कि बाबर भारत में ही रहना चाहता है, तो सांगा ने एक ऐसा गठबंधन बनाने की कोशिश की जो या तो बाबर को भारत से बाहर जाने पर मजबूर कर दे या उसे अफ़गानिस्तान तक सीमित कर दे। और हुआ भी यही… 1527 की शुरुआत में, बाबर को सांगा के आगरा की ओर बढ़ने की खबरें मिलनी शुरू हो गईं थीं। [सतीश चन्द्र, मध्यकालीन भारत पेज 32-33]

प्रसिद्ध इतिहासकार डा राधेश्याम
प्रसिद्ध इतिहासकार डा राधेश्याम लिखते हैं कि पानीपत के युद्ध से पहले राणा सांगा सोचते थे कि आक्रांता तैमूर की तरह बाबर भी सुल्तान इब्राहिम लोदी को परास्त करने के बाद काबुल वापस लौट जाएगा। लेकिन धीरे-धीरे बाबर के प्रति उसकी धारणाएं बदलने लगीं। उसे यह समझने में देर न लगी कि उसकी राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं धीरे-धीरे बाबर की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं से टकरा रही हैं। दोनों के सामने भारत पर अपनी-अपनी सार्वभीमिकता स्थापित करने का प्रश्न था। दोनों ही इस समय साम्राज्यवादी एवं विस्तारवादी नीतियों का अनुसरण कर रहे थे। दोनों में अंतर केवल इतना था कि एक को प्रादेशिक शक्तियों की सहायता प्राप्त थी, जबकि बाबर को नहीं। लेकिन फिर भी बाबर को अपने ऊपर विश्वास था कि तोपों की सहायता से पुरानी से पुरानी प्रादेशिक शक्ति को खत्म किया जा सकता है। राणा ने अफ़गानों तथा राजपूतों का सहयोग प्राप्त कर मुग़ल सम्राट बाबर को इस देश से बाहर निकालने का दृढ़ संकल्प कर लिया। डा राधेश्याम, मुगलों की इतिहास बाबर, पेज 285

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