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बीस अब तुम इक्कीस तक इंतजार करो

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

स्तम्भ: अब से कोई 23 साल पहले आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक हुई। छह दिन चली बैठक के बाद एक सितम्बर 1997 को एक स्वर्णिम शपथ पत्र अंगीकार किया गया। 65 घंटे की बहस के बाद पारित किए गए प्रस्ताव को नाम दिया गया -‘गोल्डिन प्लैज’। इस पर गरिमा का ठप्प लगाते हुए तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा और तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल सहित विभिन्न दलों के आठ नेताओं के हस्ताक्षर किए।

फाइल फोटो

इस शपथ पत्र में दृढ़ इच्छा व्यक्त की गई कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता और जवाबदेही से काम होगा, अपराधीकरण की राजनीति से तौबा की जाएगी, प्रभावी चुनाव सुधार लागू किए जाएंगे, देश की अर्थ व्यवस्था को बहुत सोच समझकर संवारा जाएगा, लिंग भेद समाप्त किया जाएगा और बढ़ती हुई आबादी पर एक राष्ट्रीय अभियान के तहत काबू पाया जाएगा। लेकिन वास्तव में हुआ क्या और हम मानदण्डों को लागू करने के मामले में कहाॅ पहुॅचे? जरा गौर करिए…

अपराधीकरण: शुचिता और जवाबदेही के मामले में हम एकदम पीछे चले गए हैं। राजनीति के अपराधीकरण पर कोई गंभीर पहल नहीं हुई और चुनाव सुधार बार-बार किसी न किसी चौखट पर अटक जाते हैं। परिवार नियोजन से इमरजेंसी के दिनों की याद कर राजनीतिक नेताओं को डर लगने लगा है।

फाइल फोटो

नरेन्द्र मोदी ने जब देश के प्रधानमंत्री का पद पहली बार ग्रहण किया तो 11 जून 2014 को राज्यसभा को संबोधित किया और विषय था- संसद को अपराधीकरण से मुक्त करना- ‘डिक्रिमिनलाइजेशन आफ पालिटिक्स’।

उन्होंने कहा था कि राजनीति के अपराधीकरण से हर कोई मुक्ति चाहता है। उन्होंने कहा कि हमें सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध करना चाहिए कि अगर ऐसे कोई सांसद हैं जिनके खिलाफ एफआईआर दर्ज है तो न्यायिक प्रक्रिया के जरिए उनके खिलाफ दर्ज मामले का एक साल के अंदर निपटारा हो। दोषी व्यक्ति जेल जाय और निर्दोष सबके सामने खड़ा हो। उनका कहना था कि हमें ऐसे प्रयास करने चाहिए कि 2015 तक लोकसभा और राज्यसभा में ऐसा कोई सदस्य न हो जिसके खिलाफ आपराधिक मुकदमे हों। अगर हम इस माध्यम से संसद को साफ सुथरा कर लेते हैं तो राजनीतिक दल ऐसे लोगों को टिकट देने के बारे में 50 बार सोचेंगे। अगर एक साल में इन मामलों का निपटारा हो जाए तो सीटें खाली हो जाएंगी और राजनीतिक दलों को उचित संदेश मिल जाएगा। इस अनुभव को फिर हम विधानसभाओं और नगरपालिकाओं तक ले जा सकते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी के इतने ओजस्वी भाषण के बाद हुआ क्या? एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स -एडीआर- की एक रिपोर्ट देखिए जिसमें 2014 से 2019 के चुनाव की तुलना की गई है। रिपोर्ट का सनसनीखेज रहस्योद्घाटन है कि 2014 के चुनाव की तुलना में 2019 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक रिकार्ड वाले निर्वाचित सदस्यों की संख्या 26 प्रतिशत बढ़ गई। 2019 के चुनाव में 43 प्रतिशत यानी लगभग आधे ऐसे लोकसभा सदस्य चुने गए जिन पर आपराधिक केस दर्ज थे। इनमें से 29 प्रतिशत तो ऐसे थे जिन पनर गंभीर आपराधिक केस दर्ज थे। गंभीरी मुकदमों में कौन से केस आते हैं?

पूरी रिपोर्ट देखने के लिए लिंक: https://adrindia.org/content/lok-sabha-elections-2019

जरा गौर करिए… बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, महिलाओं के खिलाफ अपराध। इस विश्लेषण में बताया गया है 2009 के चुनाव के बाद से ऐसे सांसदों की संख्या में 109 प्रतिशत यानी दोगुने की वृद्धि हो गई। तो फिर क्या हुआ मोदी जी के उस इरादे का जो उन्होंने पहली बार प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद किया था?

चुनाव सुधारः चुनाव आयोग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक चुनाव सुधारों के बारे में अपनी स्पष्ट और सख्त राय दे चुका है। उसने सुझाव दिए थे कि ऐसे व्यक्तियों को चुनाव मैदान से बाहर किया जाय जिन पर गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज हों। इसके अलावा समय-समय पर और भी सुझाव दिए गए लेकिन यह दावा करने वाली संसद कि कानून बनाने का अधिकार सिर्फ उसका है, चुनाव सुधार सम्बंधी कानून बनाने पर कभी आम सहमति नहीं बन पाई।

परिवार नियोजनः यह अब सिर्फ संभल संभलकर आभाष देने भर की चीज रह गई है। इस पर गंभीरता से अमल में सभी दलों के लोगों को डर लगने लग गया है।

अर्थ व्यवस्थाः 2003 में योजना आयोग ने एक सुनहरा सपना देश को दिखाया था और देशवासियों से कहा था- बस 17 साल का और सब्र कर लो। हमारे देश में 2020 में उत्साह होगा, ऊर्जा होगी, उद्यमशीलता होगा और देश के लोग नया कुछ करने की भावना से सराबोर होंगे। उसने कहा था कि 2020 में देश के लोग अच्छा खा रहे होंगे, अच्छे कपड़े पहन रहे होगें, अच्छे अच्छे घरों में रह रहे होंगे, उनका कद ज्यादा लम्बा होने लगेगा, वे ज्यादा स्वस्थ व ज्यादा शिक्षित होंगे और पहले की तुलना में दीर्घजीवी होंगे।

अब 2020 आधा बीतने वाला है लेकिन अर्थशास्त्री व नीति-निर्धारित करने कह सकते हैं कि कोरोना ने हमारे पैरों में बेड़ी डाल दी है। उनकी बात मान ली जानी चाहिए और उनसे नम्रतापूर्वक कहना चाहिए कि हे योजना आयोग/अब नीति आयोग/ आप जो करिश्मा 2020 दिखाने का वादा कर रहे थे, उसे एक साल के लिए मुलत्बी कर दें और अब वादा करें कि जो सन् 2020 में होने वाला था, अब वह 2021 में होकर रहेगा।

अब तय हो नये लक्ष्य पिछले दो-ढाई दशकों में फिल्मों और फिर निरुद्देश्य पूर्ण टेलीविजन सीरियलों ने अनुशासनहीनता, क्रूरता, अश्लीलता, चरित्रहीनता और खलनायिकी को महिमामंडित कर हमारे संस्कारों पर गहरी चोट की। हमारे नायकों की इस उद्घोषणा को युवा पीढ़ी ने गले से लगा लिया कि ‘लाइन वहीं से शुरू होती है, जहां हम खड़े होते हैं’।

फिल्मों में दबंगई, हिंसा और अश्लीलता की भरमार ने युवामन को पथभ्रष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फिर, सत्तर के दशक में आयाराम-गयाराम की राजनीति शुरू हुई और कुछ साल बाद केन्द्र की सरकार ने दल-बदल विरोधी कानून बना दिया। लेकिन बड़े पदों पर बैठे लोगों ने इस कानून को राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के चश्मे से देखा और उसकी वैसी ही विवेचना कर डाली जो उनके दलीय हितों को साधने मे मददगार थी। नतीजा यह हुआ कि इस कानून के बावजूद आज भी दल-बदल पर कोई प्रभावी रोकटोक नहीं है। सबसे ताजे उदाहरण कर्नाटक और मध्य प्रदेश हैं।

और अंत में, तो अब समय है जब हमारे आचरण पर और 1997 के ‘गोल्डेन प्लैज’ पर नए सिरे से विचार हो और इस समय केन्द्र में अपने दम पर पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार इसे नहीं कर पाई तो फिर कौन करेगा?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)

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