नागपुर : मुंबई के गवली चाल का डैडी, जिसे दुनिया अंडरवर्ल्ड डॉन अरुण गवली के नाम से जानती है, 70 साल पूरे कर चुका है। जिसमें से 14 साल उसने जेल में बिताए हैं। अब जाकर अरुण गवली ने महाराष्ट्र हाईकोर्ट की नागपुर बेंच के सामने याचिका दायर कर सजा माफ करने की प्रार्थना की है। याचिका में गृह विभाग के उस सर्कुलर का हवाला दिया गया है जिसके तहत जिन दोषियों ने 14 साल की सजा काट ली है और जिनकी उम्र 65 साल से ज्यादा है उन्हें जेल से रिहा किया जा सकता है।
बता दें कि अंडरवर्ल्ड सरगना अरुण गवली साल 2008 से ही जेल में बंद है। सजा के 14 साल बीतने के बाद उसने यह याचिका दायर की है। याचिका में बताया गया है कि उसकी उम्र 70 साल है। बढ़ती उम्र की वजह से वह स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याओं से पीड़ित है। वहीं साल 2006 में गृह विभाग का सर्कुलर उसकी याचिका को बल देता है। जिसके अनुसार 14 साल की सजा पूरी करने वाले वे कैदी रिहा होने के हकदार हैं, जिनकी उम्र 65 साल से ज्यादा है।
इस रिट याचिका में सरकार के 2015 के सर्कुलर का भी उल्लेख किया गया है। जिसके अनुसार महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) के तहत बुक किए गए अपराधी इसके हकदार नहीं हैं और उन्हें 2006 की अधिसूचना से छूट दी गई है। जिस पर अरुण गवली ने महाराष्ट्र कारागार नियम, 1972 के नियम-6 के उपनियम 4 को चुनौती दी है। जिसे 1 दिसंबर 2015 की अधिसूचना के जरिए जोड़ा गया था। इसके नियम 6 के तहत 20 जनवरी 2006 को मकोका अधिनियम के तहत दोषी ठहराए गए व्यक्तियों को अधिसूचना का लाभ लेने के लिए संशोधित किया गया था। रिट याचिका में यह उल्लेख किया गया है कि गवली को साल 2012 में दोषी ठहराया गया था, इसलिए 2015 की अधिसूचना उस पर लागू नहीं होती है।
नागपुर बेंच के जस्टिस विनय जोशी और जस्टिस वाल्मीकि मेनेजेस की डबल बेंच ने गवली की याचिका पर नोटिस जारी किया है और 15 मार्च तक जवाब तलब किया है।
दरअसल साल 2007 में शिवसेना के कॉरपोरेटर कमलाकर जमसांडेकर को विजय गिरी नाम के शख्स ने साकीनाका अंधेरी में उसके घर पर ही गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया था। जांच में पता चला कि जमसांडेकर को अरुण गवली के इशारे पर खत्म कर दिया गया था। गवली को 30 लाख रुपए की सुपारी मिली थी। इस मामले में साल 2008 में अरेस्ट किया गया। उस वक्त वह आमदार यानि की विधायक था। साल 2012 में निचली अदालत ने उसे उम्रकैद की सजा सुनाई। बाद में हाईकोर्ट ने भी निचली अदालत के आदेश को बरकरार रखा था।