यूपी उपचुनाव : योगी हुए मजबूत, सपा के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध
–संजय सक्सेना
इस साल कुछ महीने पहले समाजवादी पार्टी ने आम लोकसभा चुनाव में पिछड़े-दलित-अल्पसंख्यक (पीडीए) के सहारे जो ‘करिश्मा’ किया था, वह यूपी के उपचुनाव में पूरी तरह से धराशायी हो गया। सभी नौ सीटों पर जीत का दावा कर रहे अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी उपचुनाव में केवल दो सीटों पर सिमट गई। इसमें से भी एक सीट उनके परिवार के सदस्य की थी, जबकि 2022 के विधानसभा चुनाव में वह नौ में से पांच सीटें जीतने में सफल रही थी। अखिलेश के लिए सबसे अधिक चिंताजनक हार मुस्लिम बाहुल्य कुंदरकी विधानसभा की रही। यहां की हार के बाद अब सवाल यह भी उठने लगा है कि क्या मुसलमानों का अखिलेश के प्रति मोह कम हो रहा है। ऐसा इसलिए भी कहा जा रहा है क्योंकि कुंदरकी में मुसलमानों ने सपा के मुस्लिम प्रत्याशी को अनदेखा करके बिना हिचक बीजेपी के हिन्दू प्रत्याशी के पक्ष में मतदान किया था। कुंदरकी में भाजपा प्रत्याशी रामवीर सिंह ने ऐतिहासिक जीत हासिल की। रामवीर सिंह ने सपा के चर्चित उम्मीदवार मोहम्मद रिजवान को हराकर जीत हासिल की।
हैरत की बात यह रही कि रामवीर सिंह ने सपा के उम्मीदवार को करीब डेढ़ लाख वोटों से हराया। उपचुनाव के नतीजों से यह भी साफ हो गया कि अखिलेश का गठबंधन को तरजीह न देना भारी पड़ गया। अखिलेश ने इंडिया गठबंधन के लड़ने की बात तो कही मगर इंडिया गठबंधन के प्रमुख दल कांग्रेस को विधानसभा चुनावों में वो सीटें नहीं दी जो कांग्रेस चाहती थी, जिसकी वजह से कांग्रेस नेताओं ने भी इस चुनाव से दूरी बनाए रखी। इंडिया गठबंधन का हिस्सा होने के बाद भी अखिलेश ने सात सीटों पर एकतरफा तौर पर प्रत्याशियों का ऐलान कर दिया। जबकि कांग्रेस प्रयागराज की फूलपुर सीट पर उपचुनाव लड़ना चाहती थी। जानकार मानते हैं कि अगर कांग्रेस को सीट मिलती और वह भी सपा केसाथ पूरी ताकत से चुनावी मैदान में रहती, तब नतीजे कुछ अलग हो सकते थे। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि मुस्लिम वोटरों में राहुल गांधी और कांग्रेस की स्वीकार्यता काफी तेजी से बढ़ रही है।
समाजवादी पार्टी को इतनी बड़ी हार क्यों मिली? यह कैसे हुआ? इसके बारे में जानने-समझने के लिए अतीत के पन्नों को पलटना होगा। अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव में दूर की सोच दिखाते हुए मुस्लिम नेताओं को टिकट देने में कंजूसी दिखाई थी, इसके पीछे अखिलेश की यही सोच थी कि उनके द्वारा मुस्लिम प्रत्याशी को मैदान में उतारने पर बीजेपी के पक्ष में हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण हो जाता है, जबकि सपा किसी हिन्दू नेता को टिकट देती है तो हिन्दू वोटर तो बंट जाते हैं लेकिन अल्पसंख्यक वोटर पहले की तरह सपा के पक्ष में ही लामबंद रहते हैं जिसका सीधा फायदा समाजवादी पार्टी को होता है। इसी को ध्यान में रखकर ही अखिलेश ने पीडीए की सियासत शुरू की थी, लेकिन कहा जाता है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है, ऐसा ही अखिलेश के साथ हुआ।
दरअसल, अखिलेश यादव मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत में इतनी बुरी तरह से उलझ गये हैं कि वह इससे बाहर ही नहीं निकल पा रहे हैं। अखिलेश का हाल यह है कि वह बात तो पीडीए की करते हैं, लेकिन जब कोई दबंग मुसलमान किसी पिछड़ा (पी) या दलित(डी) समाज के व्यक्ति से दबंगई करता है तो अखिलेश चुप्पी साध लेते हैं। यह बात पिछड़ा और दलित समाज को अखिलेश से दूर ले ही जाती है, इसके साथ-साथ मुसलमानों का एक वर्ग जो सही-गलत की पहचान करना जानता है, अखिलेश के रवैये से नाराज हो जाता है। उसे लगता है कि अपराधी किस्म के मुसलमानों के साथ अखिलेश के खड़े होने का खामियाजा पूरे मुस्लिम समाज को उठाना पड़ता है। वे जानते हैं कि अपराधी का कोई धर्म नहीं होता है।
फार्मूला हुआ फेल
लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने जिस पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) की बदौलत 37 सीटों पर जीत हासिल की थी, महज 6 महीने बाद हुए उपचुनावों में अखिलेश यादव का वही पीडीए फार्मूला धराशायी हो गया। सपा नेता अखिलेश यादव ने इन चुनाव में भी पीडीए फॉर्मूला चलाने की कोशिश की लेकिन मायावती, चंद्रशेखर और ओवैसी की पार्टियों ने अखिलेश यादव के हिस्से के वोट काटे और बीजेपी की जीत का रास्ता साफ हो गया। वहीं लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को बड़ी संख्या में दलित वोट मिले थे। साथ ही मुस्लिम वोटों का भी बंटवारा नहीं हुआ था। यूपी के उपचुनावों वाली 9 सीटों पर चन्द्रशेखर की आजाद समाज पार्टी ने बड़ी संख्या में दलित वोटों को अपने पाले में किया, जिसका नतीजा रहा कि समाजवादी पार्टी ने 2022 विधानसभा चुनावों में जिन सीटों को जीता था, उसमें से भी दो सीटें कटहरी और कुंदरकी को गवाना पड़ा। वहीं एसपी की परंपरागत सीट करहल में जीत का अंतर सिमटकर 14,000 तक आ गया। कानपुर की सीसामऊ विधानसभा सीट पर समाजवादी पार्टी ने करीब 8000 वोटों से जीत हासिल की।
बीजेपी को गए मुस्लिम वोट
समाजवादी पार्टी ने उप चुनाव में 4 मुस्लिम प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था, जिसमें से तीन को हार का सामना करना पड़ा। सपा ने मीरापुर से सुम्बुल राणा, कुंदरकी से हाजी रिजवान, सीसामऊ से नसीम सोलंकी और फूलपुर से मुज्तबा सिद्दीकी को टिकट दिया था। सिर्फ कानपुर की सीसामऊ सीट से ही सपा का मुस्लिम का प्रत्याशी जीत पाया। 9 में से चार सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशियों को उतारना सपा की बड़ी भूल माना जा रहा है। इससे हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण हुआ, जो अखिलेश की मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत पर भारी पड़ गया। कुंदरकी जैसी मुस्लिम बाहुल्य सीट पर तो बीजेपी मुसलमान वोटरों में डिवीजन करवाने में भी सफल रही। यहां भाजपा के प्रत्याशी रामवीर सिंह लगातार नमाजी टोपी और अरबी गमछा पहनकर मुसलमानों के बीच बने रहे। बीजेपी के प्रत्याशी रामवीर सिंह बेशक तीन चुनाव हारे हैं लेकिन मुसलमानों के सबसे ज्यादा काम बिना विधायक रहते अपने क्षेत्र में उन्होंने कराया। यही नहीं, किसी भी विधायक से बड़ा दरबार अपने क्षेत्र में लगाने और मुसलमानों के किसी भी समारोह में शिरकत करने के लिए वह मशहूर रहे हैं। मुसलमानों के बीच मुस्लिम छवि लेकर घूमते रामवीर सिंह को इस बार मुसलमानो ने जमकर वोट दिया, खासकर शेख बिरादरी रामवीर सिंह के पीछे खड़ी नजर आई। जबकि तुर्क बिरादरी से आने वाले हाजी रिजवान अपनी बिरादरी के मुसलमानों के बीच ही पिछड़ गए।
सन्नाटे में कांग्रेस, बसपा बेदखल
पूरे प्रचार के दौरान इंडिया गठबंधन में शामिल कांग्रेस ने अपने गठबंधन के सहयोगी समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के प्रचार से दूरी बनाए रखी। मतदान वाले दिन किसी भी विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस का बस्ता लगा नहीं दिखा। कांग्रेस के नेता भी नदारद थे। मतगणना वाले दिन तक भी लखनऊ के माल एवेन्यू रोड स्थित कांग्रेस के प्रदेश कार्यालय में सन्नाटा पसरा हुआ था। कांग्रेस जैसी ही स्थिति बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशियों की भी नजर आई। काफी हद तक बसपा का दलित वोटर चन्द्रशेखर की आजाद समाज पार्टी के पक्ष में मतदान करता दिखा, जिसकी वजह से चंद्रशेखर की पार्टी का प्रदर्शन बसपा के मुकाबले काफी बेहतर रहा। उधर, नतीजों से नाराज बसपा सुप्रीमो मायावती ने भविष्य में उप-चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर दी है।
दलित वोटों का नया ठिकाना
चन्द्रशेखर ने अपनी आजाद समाज पार्टी से कई दलित प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था। उपचुनाव के नतीजों में वैसे तो बीएसपी और आजाद पार्टी दोनों ही को एक भी सीट नहीं मिली है लेकिन दलितों के बीच बसपा का प्रभाव कम होता, वहीं चन्द्रशेखर की आजाद समाज पार्टी का दायरा बढ़ता हुआ दिखाई दिया। चंद्रशेखर के बारे में खास बात यह है कि जहां अन्य नेता ड्राइंग रूम में बैठकर राजनीति करते हैं, वही चंद्रशेखर सड़क पर संघर्ष करते हुए नजर आते हैं। वह हर उस जगह पहुंचने की कोशिश करते हैं जहां उन्हें लगता है कि कुछ गलत हो रहा है। इसी वजह से लोग उनके साथ लगातार जुड़ते जा रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में काफी तेजी के साथ चंद्रशेखर का राजनीतिक वर्चस्व बढ़ रहा है, यह बसपा के लिए तो खतरे का संकेत है ही, समाजवादी पार्टी को भी इससे कई सीटों पर नुकसान हो जाता है क्योंकि यह रुझान आ रहा है कि लोकसभा चुनाव के समय जो दलित वोटर समाजवादी पार्टी के साथ खड़े थे, उपचुनाव में उसमें से काफी बड़ी संख्या में दलित वोटर आज आजाद समाज पार्टी के साथ खड़े नजर आ रहे हैं।