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उत्तराखण्ड ने विगत 23 वर्षों में लगाई लम्बी छलांगें

राज्य गठन के समय बैंकों की संख्या 873 थी जो कि आज 1452 तक पहुंच गयी। उस समय प्रति 10 हजार जनसंख्या पर एक बैंक था, अब 8 हजार की जनसंख्या पर एक बैंक माना जा रहा है। सन 2002 में जब पहली निर्वाचित सरकार ने सत्ता संभाली तो उस समय बैंकों का ऋण जमा अनुपात मात्र 19 था। मतलब यह कि बैंक जनता से 100 रुपये जमा करा रहे थे तो मात्र 19 रुपये यहां कर्ज दे रहे थे और बाकी धन का कहीं और व्यवसायिक उपयोग कर रहे थे।

नवगठित उत्तंराचल की अंतरिम सरकार के पहले वित्तमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने 3 मई 2001 को जब राज्य का पहला बजट पेश किया था तो उसमें कुल व्यय 4,505.75 करोड़ और राजस्व प्राप्तियों 3,244.71 करोड़ प्रस्तावित थीं। राज्य गठन के समय उत्तरांचल को लगभग 1,750 करोड़ का घाटा विरासत में मिला था और अंतरिम सरकार ने 10 करोड़ के ओवर ड्राफ्ट के साथ अपना काम शुरू किया था। यही नहीं, नये राज्य को विरासत में भारी-भरकम कर्ज भी मिला था, जिसका ब्याज पहले बजट में 250 करोड़ बताया गया था। उसके बाद 10 मार्च 2008 को मुख्यमंत्री भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने जब राज्य का 2008-09 का सालाना बजट पेश किया तो बजट राशि बढ़ कर 12,441.32 करोड़ हो गयी, जिसमें राजस्व प्राप्तियां 10,456.56 करोड़ बतायी गयीं थी। जबकि 15 मार्च 2023 को मौजूदा वित्तमंत्री प्रेमचन्द अग्रवाल ने 2023-24 का सालाना बजट पेश किया तो उसमें कुल व्यय 77407.08 करोड़ और राजस्व प्राप्तियां 76592.54 करोड़ प्रस्तावित थीं। इसके बाद फिर वित्तमंत्री अग्रवाल ने 11321.12 करोड़ अनुपूरक बजट भी पेश किया। मतलब साफ है कि जितना अब अनुपूरक बजट हो रहा है, उतना शुरुआती सालों में सालाना बजट भी नहीं होता था। उत्तरांचल के रूप में जन्म लेने वाले उत्तराखण्ड के बजट ने जिस तरह लम्बी छलांगें लगाई हैं, वे आसमान छूने जैसी हैं और इससे कल्पना की जा सकती है कि उत्तराखण्ड राज्य ने अपने मात्र 23 साल के जीवनकाल में आशातीत सफलताएं हासिल की हैं। हम कल्पना कर सकते हैं कि अगर प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता और केदारनाथ की जैसी आपदाएं न आतीं तो यह राज्य इससे भी कहीं अधिक तरक्की कर चुका होता। लेकिन इतनी तरक्की के बावजूद अभी उत्तराखण्डवासियों के कई सपने अधूरे ही हैं, जिनका उल्लेख अवश्य होना चाहिये ताकि प्रदेश के भाग्य निर्माता कमियों पर भी गौर कर सकें।

उत्तराखण्ड राज्य 9 नवम्बर को 24वें साल में प्रवेश कर रहा है। राज्य की वर्तमान सरकार ने 2025 तक उत्तराखण्ड को देश का अग्रणी राज्य बनाने का संकल्प भी लिया है। अगर उस लक्ष्य को हासिल करना है तो राज्य की वर्षगांठ पर अतीत के अनुभवों से सीख लेते हुये आगे के संकल्प तय करने होंगे, क्योंकि अतीत हमेशा आगे का रास्ता दिखाता है। उत्तरांचल राज्य के विकास की बुनियाद रखते समय पहली अंतरिम सरकार की वार्षिक योजना लगभग 900 करोड़ की थी जिसको उछालने की शुरुआत पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने की। उन्होंने योजना आकार को 900 करोड़ से 1600 करोड़ और फिर उसे 2800 करोड़ से सीधे 4 हजार करोड़ तक पहुंचा दिया। अगले मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खण्डूड़ी को 4775 करोड़ का वार्षिक योजना आकार विकास पुरुष नारायाण दत्त तिवारी से विरासत में मिला। उत्तरांचल के जन्म के समय राज्य को विरासत में भारी भरकम घाटा और कर्ज मिलने के साथ ही 11वें वित्त आयोग से भी पूरा न्याय नहीं मिला था।

इन भारी रुकावटों के बावजूद केन्द्र की तत्कालीन बाजपेयी सरकार ने अन्य हिमालयी राज्यों के साथ ही उत्तरांचल को भी 1 मई 2001 को विशेष श्रेणी का दर्जा दे दिया जिससे विकास के मार्ग में आने वाली वित्तीय कठिनाइयां काफी आसान हो गयीं। इसके बाद अटल विहारी बाजपेयी के विशेष लगाव और पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के संबंधों और प्रयासों से केन्द्र सरकार ने राज्य को विशेष औद्योगिक पैकेज भी दे दिया, जिससे राज्य का तेजी से औद्योगिक विकास होने के साथ ही राज्य की जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय बढ़ती गयी। चूंकि खुसरो की अध्यक्षता में 11वां वित्त आयोग 1998 में गठित हो चुका था, इसलिये भविष्य में जन्म लेने वाले राज्य का पक्ष उसमें रखा नहीं जा सका, लेकिन 2002 में सी. रंगराजन की अध्यक्षता में 12वां वित्त आयोग गठित हुआ तो तत्कालीन सरकार के तगड़े होमवर्क के फलस्वरूप न केवल 11वें वित्त आयोग के नुकसान की काफी हद तक भरपाई हो गयी बल्कि अपेक्षा के अनुरूप आयोग ने नये राज्य पर दरियादिली भी दिखाई। उसी समय के होमवर्क का फायदा 15वें वित्त आयोग तक मिलता जा रहा है।

1 जनवरी 2007 को उत्तरांचल का चोला त्याग कर उत्तराखण्ड नाम धारण करने वाले इस राज्य की विकास यात्रा में राजनीतिक अस्थिरता, पदलोलुपता और केदारनाथ जैसी आपदाओं के कारण व्यवधान अवश्य रहे, फिर भी विशेष श्रेणी का दर्जा, औद्योगिक पैकेज और नये राज्य के प्रति केन्द्र सरकारों की सहानुभूति के चलते इन 23 सालों में राज्य की जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय ने भी आश्चर्यजनक छलांगें लगाईं। नवीनतम अनुमान के अनुसार राज्य की जीडीपी 3.33 लाख करोड़ और प्रति व्यक्ति आय 2,33,565 तक पहुंच गयी है, जबकि 1999.2000 में राज्य की प्रति व्यक्ति आय मात्र 14,086 रुपये और जीडीपी लगभग 1.60 लाख करोड़ के आसपास थी। यद्यपि आंकड़ों में यह उछाल देहरादून, हरिद्वार और उधर्मंसहनगर जैसे जिलों के कारण है। अन्यथा रुद्रप्रयाग जैसे पहाड़ी जिलों की प्रतिव्यक्ति सालाना आय लाख के कम या थोड़ी ज्यादा ही है। राज्य गठन के समय विद्युतीकृत गावों की संख्या 12519 थी जो कि अब 15745 तक पहुंच गयी है। हालांकि सरकार सभी गावों तक बिजली पहुंचाने का दावा कर रही है। कम से कम बिजली के खम्बे तो गावों में पहुंच ही गये, चाहे उन पर बिजली हो या नहीं।

राज्य गठन के समय बैंकों की संख्या 873 थी जो कि आज 1452 तक पहुंच गयी। उस समय प्रति 10 हजार जनसंख्या पर एक बैंक था, अब 8 हजार की जनसंख्या पर एक बैंक माना जा रहा है। सन 2002 में जब पहली निर्वाचित सरकार ने सत्ता संभाली तो उस समय बैंकों का ऋण जमा अनुपात मात्र 19 था। मतलब यह कि बैंक जनता से 100 रुपये जमा करा रहे थे तो मात्र 19 रुपये यहां कर्ज दे रहे थे और बाकी धन का कहीं और व्यवसायिक उपयोग कर रहे थे। आज की तारीख में यह ऋण जमा अनुपाल 51 तक पहुंच गया है। जाहिर है कि 100 में 51 रुपये यहीं लोगों को काम धन्धे चलाने के लिये दिये जा रहे हैं। पहाड़ों में यह ऋण जमा अनुपात अब भी चिन्ताजनक स्थिति में हैं। राज्य गठन के समय पुरुष साक्षरता 84 प्रतिशत तो महिला साक्षरता 60.3 प्रतिशत थी, जो सन् 2011 तक 87 और 70 प्रतिशत हो गयी।

इसी तरह ऐलापैथिक अस्पतालों की संख्या तब से अब 553 से 716 तक, आयुर्वेदिक अस्पतालों की संख्या 415 से 544 और जन्म दर 19.6 से घट कर 16.6 और बाल मृत्यु दर 6.5 से घटकर 6.3 तक आ गयी है। वर्ष 1999 में नेशनल हाइवे से लेकर जिला और ग्रामीण मार्गों की लम्बाई 14,976 किमी थी जो कि 2022 के आंकड़ों के अनुसार 40,457.29 किमी तक पहुंच गयी है। वर्ष 2001-02 की सरकारी सांख्यिकी डायरी के अनुसार उस समय राज्य में 191 उद्योग स्थपित थे, जिनमें से 69 के बंद होने से कुल 122 ही उद्योग शेष रह गये थे। अब 2021-22 की सांख्यिकी डायरी के अनुसार राज्य में वृहद उद्योगों की संख्या 329 तक पहुंच गयी है जिनमें 37,957.94 करोड़ का निवेश है और इनमें 1,11,451 लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इन बड़े उद्योगों के अलावा राज्य में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की संख्या 73,961 हो गयी है जिनमें 15,334.56 करोड़ का निवेश और 382431 लोगों को रोजगार मिला हुआ है।

हिमाचल प्रदेश एक ही भौगोलिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के कारण उत्तराखण्ड के लिये रोल मॉडल रहा है। हिमाचल का गठन उत्तराखण्ड से 52 साल पहले 1948 में केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में हो चुका था और उत्तराखण्ड से 29 साल पहले 1971 में उसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिल चुका था। इसलिये हिमाचल प्रदेश को केन्द्रीय शासन और सभी पंचवर्षीय योजनाओं का लाभ मिला। विशेष श्रेणी केराज्य का दर्जा भी उसे मिलता रहा। जबकि उत्तराखण्ड छठी पंचवर्षीय येजना से जुड़ा। फिर भी उत्तराखंड कई मामलों में हिमाचल से आगे निकल गया है। उत्तराखण्ड में सड़कों की लम्बाई 47,292 और हिमाचल में 38,454 बताई गयी हैं। हालांकि प्रति लाख जनसंख्या पर हिमाचल की सड़कें ज्यादा है। उत्तराखण्ड में पर्यटकों की आमद भी ज्यादा है। इसी तरह उत्तराखण्र्ड सिंचाई और स्वास्थ्य सुविधाओं में भी आगे हैं। उत्तराखण्ड में प्रति व्यक्ति आय 2,33,565 रुपये तक पहुंच गयी जबकि हिमाचल की प्रति व्यक्ति आय उत्तराखण्ड से कम 2,22,226.54 तक ही पहुंची है।

इसी प्रकार हिमाचल की जीएसडीपी भी उत्तराखण्ड की कहीं कम 2.14 लाख करोड़ है। वहां बैंकों का ऋण जमानुपात भी उत्तराखण्ड से बहुत कम 30.80 है। इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद उत्तराखंड में कृषि क्षेत्र का सिकुड़ता जाना एक चिन्ता का विषय बना हुआ है। बेरोजगारी बढ़ रही है और सरकारी स्कूलों में विद्यार्थी घटते जा रहे हैं। सरकार पलायन पर रोक नहीं लगा पायी है। प्रदेशवासी कहां तो स्वायत्तता के लिए अनुच्छेद 371 की मांग कर रहे थे और कहां उद्योग के नाम पर पहाड़ियों की जमीनों की खुली लूट मची हुयी है। तराई में जनजातियों की जमीनें बचाने के बजाय जमीनें हड़पने वालों को संरक्षण दिया जाता रहा है। वर्ष 2003 में जो भूकानून बना था, उसका 2017 के बाद निरन्तर क्षरण हो रहा है जिस कारण पहाड़ की जनसांख्यिकी बदल रही है। नव धनाढ्य भूखोर लोगों की जमीनें खरीद कर उन्हें और उनकी पीढ़ियों को भूमिहीन बना रहे हैं। राज्य आन्दोलन के दौरान हुये मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को आज तक सजा नहीं हो पायी।

राज्य में कृषि जोतों का आकार निरन्तर घटता जा रहा है। सन् 1995-96 में राज्य में 4 से 10 हेक्टेअर के बीच जोतों का प्रतिशत 3.1 था जो कि 2021-22 तक 1.64 प्रतिशत रह गया। इसी तरह 2 से 4 हेक्टेअर आकार की जोतें 8.7 प्रतिशत थीं जो घटकर 6.59 प्रतिशत रह गयीं। राज्य में 2015-16 में कुल कृषि जोतें 9,12,650 थी, जिनमें 6,75,246 पहाड़ की और 2,37,404 मैदान की थी। इनमें से टिहरी, देहरादून, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा नैनीताल, बागेश्वर, चम्पावत में 6.49 प्रतिशत जोतें घट गयीं और चमोली, उत्तरकाशी, हरिद्वार में जोतें बढ़ गयी। मैदानी क्षेत्रों में जोतों की संख्या में 5.25 की वृद्धि दर्ज की गयी है। खेती का दायरा किस तरह घट रहा है, उसका अनुमान 1998-99 और 2021-22 के सरकारी आंकड़ों की तुलना से लगाया जा सकता है। वर्ष 1998-99 में राज्य में कुल शुद्ध या वास्तविक बोये गये क्षेत्र को 7,84,113 हैक्टेअर बताया गया था जो कि अब 2020-21 में केवल 6,20,629 हेक्टेअर दर्ज किया गया है। इसका मतलब है कि इन 24 वर्षों में उत्तराखण्ड का 1,63,488 हेक्टेअर कृषि क्षेत्रघट गया। इसी प्रकार एक से अधिक बार बोया गया क्षेत्र भी 99,075 घट गया है।

एक चौंकाने वाली बात यह है कि शुद्ध बोया गया क्षेत्र मैदानों में 2,47,570 और पर्वतीय क्षेत्र में 3,73,058 है। इसका मतलब है कि पहाड़ी जिलों, जिनका कुल भौगोलिक क्षेत्र 84.6 प्रतिशत है, में अब आबादी क्षेत्र केवल 3,73,059 हेक्टेअर ही रह गया है। जबकि राज्य गठन से पूर्व हरिद्वार को छोड़ कर कृषि आबादी क्षेत्र लगभग 7 लाख हेक्टेअर माना जाता था। पहाड़ों में इसमें से भी कर्म संचित क्षेत्र 77,274 ही रह गया है। इतने बड़े पैमाने पर खेतों का सिमट जाना कृषि के प्रति लोगों की अरुचि और बड़े पैमाने पर पलायन का ही संकेत है। सरकार द्वारा मुफ्त राशन और मनरेगा में सौ दिन के रोजगार की गारंटी माना जा रहा है। खेतों की उर्वरकता घटते जाने और जंगली जानवरों द्वारा किये जाने वाले भारी नुकसान के कारण भी लोगों में खेती का मोह बहुत घट गया है। राज्य में पलायन आयोग तो बन गया मगर उसके लाभों का पता नहीं चल पा रहा है।

तमाम दावों के बावजूद सरकारी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं आ रहा है। अगर सुधार आता तो तो लोग सरकारी स्कूलों से अपने बच्चों का क्यों हटाते? यहां तक कि सरकारी शिक्षक भी अपने बच्चों को निजी अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। नयी शिक्षा नीति का भी सरकारी स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता पर असर नहीं पड़ रहा है। इसका ज्वलंत उदाहरण सरकारी स्कूलों में बच्चों की घटती संख्या है। राज्य गठन के समय जूनियर बेसिक स्कूलों की संख्या 12,791 थी जो कि 2021-22 में 13,422 हो गयी मगर विद्यार्थियों की संख्या इस अवधि में 11,20,218 से घट कर 4,91,783 रह गयी। विद्यार्थी घटे तो शिक्षक भी 28,340 से 26,655 रह गये। इसी तरह राज्य गठन के समय सीनियर बेसिक स्कूलों की संख्या 2,970 से 5,288 तो हो गयी मगर विद्यार्थियों की संख्या 5,47,009 से घटकर 5,04,296 रह गयी। छात्रों की कमी के कारण इस दौरान लगभग 3000 स्कूल अवश्य ही बंद हो गये। केंद्र सरकार के नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार उत्तराखंड में वर्ष 2021-22 में बेरोजगारी दर 7.8 प्रतिशत रही है। हालांकि, 2022-23 में बेरोजगारी दर के आंकड़ों में गिरावट देखी गई है। राज्य गठन के समय सेवायोजन कार्यालयों में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या 3,08,868 थी जो कि 2021-22 में 8,39,679 हो गयी।

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