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चीन सीमा से जुड़े गांव फिर होंगे गुलजार

बीते महीने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 1962 के दौरान भारत-चीन युद्ध में खाली हुए गांवों को फिर से बसाने की बात की। प्रधानमंत्री न 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध को भूले हैं न चीन को। अभी ये गांव सीमा सुरक्षा बलों की निगरानी में हैं। सामरिक महत्व के इन गांवों को फिर से बसाने के पीछे मोदी की मंशा स्थानीय ग्रामीणों के मनोभावों से ही नहीं बल्कि देश की सुरक्षा से भी जुड़ी है। इन दुर्गम गांवों की कहानी बता रहे हैं ‘दस्तक टाइम्स’ के प्रधान संपादक रामकुमार सिंह।

इस दफा अपनी उत्तराखंड यात्रा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के प्रकृति प्रेमियों और उत्तरकाशी जिले के जादुंग गांव के लिए एक नायाब तोहफा लेकर हर्शिल आए। गंगोत्री के करीब बसे हर्शिल की हरी-भरी वादियों से आदिवासी बहुल जादुई सीमान्त गांव जादुंग तक ट्रैक और बाइक रैली को हरी झंडी दिखाते हुए प्रधानमंत्री बोले, ‘हम यह नहीं भूले हैं कि 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान सीमावर्ती गांव जादुंग को खाली करा दिया गया था और अब ऐसे गांवों को रहने योग्य बनाया जा रहा है।’ चीन सीमा यहां से बमुश्किल 122 किमी दूर है। इस लिहाज से यह बेहद संवेदनशील इलाका है। अक्टूबर-नवंबर 1962 के चीनी संघर्ष ने इस क्षेत्र को वीरान कर दिया था। 1962 से पहले नेलांग गांव में करीब 40 परिवार और जादुंग गांव में करीब 30 परिवार रहते थे। युद्ध के दौरान सेना ने इन गांवों को खाली कर अपने कब्जे में ले लिया था। तब से ये गांव भारत-तिब्बत सीमा पुलिस यानी आईटीबीपी के नियंत्रण में है। इसे इनर लाइन इलाका कहा जाता है। फिलहाल यहां किसी को भी आने जाने की मनाही है। भैरोघाटी से एक सड़क एनएच134 ए नेलांग घाटी की ओर जाती है। घाटी में प्रवेश करने के लिए उत्तरकाशी के एसडीएम कार्यालय से नेलांग घाटी परमिट हासिल करना पड़ता है। नेलांग गांव भैरोघाटी से कोई 22 किमी दूर है और जादुंग गांव के लिए आपको 16 किमी और आगे जाना होगा।

उत्तराखंड का लद्दाख
अब तक आम लोगों को नेलांग चेक प्वाइंट तक जाने की इजाजत केवल तभी दी जाती है जब उनके पास इनर लाइन परमिट हो। जादुंग के लिए परमिट केवल विशेष मामलों में ही दिए जाते हैं। 2022 से कुछ पर्वतारोहियों को यह विशेष परमिट दिए जाने लगे। वर्तमान में इस गांव तक पहुंचने के लिए एक बहुत पुराना रास्ता है, जहां एक छोटा लकड़ी का पुल बना हुआ है, जो गांवों को मुख्यालय की सड़क से जोड़ता है। अब यहां सड़क बनाने का काम भी शुरू हो गया है।

1962 से पहले इन गांवों के लोग तिब्बत तक व्यापार तक करते थे। अब यह घाटी गंगोत्री नेशनल पार्क का एक हिस्सा है। नेलांग घाटी के खूबसूरत नजारे और यहां जलवायु काफी हद तक लद्दाख-स्पीति घाटी से मिलती जुलती है। इसीलिए नेलांग घाटी को ‘उत्तराखंड का लद्दाख’ कहा जाता है। गांव में तिब्बती शैली के बने घर खंडहर में तब्दील हो चुके हैं। यहां कई घरों के खंडहर में आपको ऐसे पत्थर मिलेंगे जिन पर तिब्बती लिपि में कुछ लिखा है। गांव में नीले साफ पानी का एक जनक ताल भी है। यहां गए लेखक आशुतोष मिश्र ‘जादुंग एक्सप्लोरेशन’ में लिखते हैं- ‘अगली सुबह हम जादुंग के परित्यक्त गांव के खंडहरों में घूमते हुए एक सुंदर सैर पर निकले। गांव में 30 से ज्यादा घर हैं। यहां रहने वाले लोगों के जीवन के अवशेषों को हम छू सकते थे, उसकी महक महसूस कर सकते थे। बढ़िया लकड़ी के काम वाले खंभे, ठंडे स्टोव और धुआं रहित चिमनियां और खाली अन्न भंडार एक बीते हुए समय की कहानी बयां करते हैं।’

विस्थापन का दर्द
विस्थापन का असली दर्द चीन के सीमावर्ती इन गांवों के जाड़ भोटिया लोगों ने झेला। उनके पुरखे सदियों से अपनी जमीन से जुड़े थे। इनका जीवन बेहद सादा था। ये खेती करते और भेड़ पालते। नेलांग में उनकी 375.61 हेक्टेयर और जादुंग में 8.54 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है जो परती पड़ी है। 1962 में गांव छोड़ने के बाद इन ग्रामीणों ने अपने रिश्तेदारों के यहां बगोरी और डुंडा में शरण ली। तब से लेकर आज तक प्रभावित ग्रामीणों को न तो विस्थापित किया गया और न फिर से गांव में बसने की अनुमति दी गई, लेकिन जाड़ भोटिया लोग अपने गांव को कभी नहीं भूल पाए। इन गांवों के मूल निवासी फिर घर वापसी चाहते हैं। गांव में फिर से बसाने की मांग को लेकर तीन पीढ़ियां खत्म हो चुकी हैं। बीते साठ सालों में केन्द्र और राज्य की कितनी सरकारें आईं और गईं लेकिन इसे अति संवेदनशील मामला बता कर सब खामोश रहे।

धामी सरकार ने की पहल
पहली बार मौजूदा पुष्कर सिंह धामी सरकार ने इस बारे में गंभीर प्रयास किए। मुख्यमंत्री ने इस बारे में दिल्ली हाईकमान से बात की। इस बीच गांव के विस्थापित लोगों ने भी प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखकर लांग-जादुंग गांव के मूल निवासियों को फिर से वहां बसाने की मांग की। सूत्र बताते हैं कि केन्द्र से हरी झंडी मिलने के बाद राज्य सरकार ने इन गांवों को फिर बसाने और इसे एक पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित करने का एक प्रस्ताव तैयार किया जिसे केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने मंजूरी दी।

धामी सरकार ने 2022 में जादुंग और अप्रैल में ग्राम नेलांग का संयुक्त सर्वे करने का आदेश दिया। ग्रामीणों को उम्मीद की किरण नज़र आई। फरवरी 2023 को केन्द्र सरकार ने वाइब्रेंट विलेज के लिए 140 परियोजनाओं को मंजूरी दे दी। इसके लिए 192.24 करोड़ रुपए का बजट मंजूर किया गया। फरवरी 2024 चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ जनरल अनिल चौहान ने सेना की टुकड़ियों को उत्तराखंड में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के पास सीमावर्ती गांवों के पुनर्वास में सहायता करने का निर्देश दिया। विशेष रूप से चीन सीमा के पास नेलांग और जादुंग को लक्ष्य बनाया गया। एलएसी के जोशीमठ के मध्य क्षेत्र के अग्रिम इलाकों के दौरे के दौरान चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ ने स्थानीय बलों से इन गांवों के पुनर्वास में मदद करने को कहा। लेकिन इन गांवों के पुनर्वास सबसे बड़ी मुश्किल ये थी कि गांव वाले 1962 में यहां से चले गए थे, जिससे खाली पड़ी जमीन के असली उत्तराधिकारियों की पहचान करना एक कठिन काम बन गया क्योंकि 60 साल से अधिक समय बीत चुका था और कई मूल भूस्वामियों की मृत्यु हो चुकी है, पर सर्वे का काम जारी है।

होम स्टे क्लस्टर
उत्तराखंड में धामी कैबिनेट ने पिछले साल जनवरी में नेलांग और जादुंग गांवों को होम-स्टे क्लस्टर के रूप में विकसित करने का फैसला किया। सरकार इन दोनों गांवों को सुविधाएं देने के अलावा पर्यटन की दृष्टि से भी विकसित कर रही है। वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम के तहत इन गांवों में मोबाइल नेटवर्क और इंटरनेट की सुविधा दी जा रही है। उत्तरकाशी के इन सीमान्त इलाकों में मोबाइल टावर का जाल बिछाया जा चुका है। इससे न केवल सेना को फायदा हुआ है बल्कि मोबाइल कनेक्टीविटी से पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। यानी अब गंगोत्री नेशनल पार्क में आने वाले पर्यटक गांव के इन ऐतिहासिक स्थलों को भी देख सकेंगे। जादुंग गांव में तो होम स्टे बनाने का काम भी शुरू हो गया है।

तो इसलिए बसाए जा रहे जीवंत गांव
यह इलाका सामरिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। दरअसल तिब्बत पर कब्ज़ा करने के 70 साल से ज्यादा समय बाद भी चीन दलाई लामा के आध्यात्मिक प्रभाव को पूरी तरह से मिटा नहीं पाया है और तिब्बत और भारत के बीच सांस्कृतिक संबंध चीन के लिए चिंता का विषय हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तिब्बती सीमा क्षेत्र को सुरक्षित करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है, जिसके बाद ऐसी रिपोर्टें सामने आईं कि तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (टीएआर) में सीमा पर गांव विकसित किए जा रहे हैं और वहां एक वफ़ादार आबादी को बसाया जा रहा है। ऐसे में भारत के लिए भी जरूरी हो गया था कि चीन सीमा पर बसे भारतीय गांवों और उनके निवासियों पर ध्यान केन्द्रित किया जाए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का साफ मानना था कि सीमावर्ती गांव अंतिम गांव नहीं, बल्कि प्रथम गांव हैं। अब वक्त आ गया है कि इन गांवों की अर्थव्यवस्था, आजीविका, सामाजिक संरचना, बुनियादी ढांचे, शिक्षा, बिजली और दूरसंचार व्यवस्था आदि का समग्र विकास किया जाए। मोदी सरकार ने इन सीमावर्ती गांवों को पहली बार ‘वाइव्रेंट विलेज’ या जीवंत गांव का नाम दिया। भारत सरकार ने वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम (वीवीपी) के तहत, देशभर में 3,400 किलोमीटर लंबी सीमा पर चुने गए लगभग 3,000 गांवों को बेहतर बुनियादी सुविधाएं देने की योजना तैयार की है। हर मौसम में यहां तक पहुंचने के लिए सड़कों के निर्माण किया जा रहा है। इसके लिए 2,500 करोड़ रुपये अलग रखे गए हैं। सरकार का दृष्टिकोण न केवल सीमा सुरक्षा को मजबूत करने के बारे में है, बल्कि इस क्षेत्र को निवासियों के लिए अधिक आकर्षक बनाने के बारे में भी है, इस प्रकार बेहतर शिक्षा और नौकरी के अवसरों की तलाश में प्रमुख शहरों में पलायन को रोकना है। चीन ने सीमा के अपने हिस्से में इसी तरह की विकास परियोजनाएं चलाई हैं, जिसमें आधुनिक सुविधाओं वाले आदर्श गांव बसाए गए हैं। हालांकि, भारत की रणनीति विशुद्ध सैन्य दृष्टिकोण के बजाय नागरिक विकास पर अधिक केन्द्रित है।

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