बिना हड़ताल के हम जंग जीते! हाकरों की मदद मिली थी !!
स्तंभ: लखनऊ पुलिस ने नागरिकों को सुझाया है ( कल 24 अगस्त 2022) कि शहर छोड़कर जाएं तो अखबार मंगवाना बंद कर दें। हाकर को बता दें। वर्ना अखबारों का ढेर देखकर चोर को आभास हो जायेगा कि रास्ता सरल बन गया है। मगर एक ने जानना चाहा कि अगर हाकर से ही पता चला गया तो? यहां मेरा मतलब हाकरों पर शुबह करने से नहीं है। शायद पुलिस ने सुरक्षात्मक मतलब से ऐसी राय दी हो। एक श्रमजीवी पत्रकार के नाते मेरी यह मान्यता है कि समाचार पत्र प्रकाशन में संपादक ऊपरी छोर है तो हाकर सबसे निचली ओर है। दैनिक रद्दी हो जायेगा, मर ही जायेगा, यदि पाठकों तक वह न पहुंच पाया तो ? अतः हाकर एक माध्यम है, एक पुल होता है।
यूं भी हाकर कोई साधारण जन नहीं होते। अमेरिका में न्यूजपेपर उद्योग से जुड़े कुछ बड़े नाम पढ़े। वे लोग शुरूआत में अखबार बेचकर जीवन यापन करते थे। चन्द नाम प्रस्तुत है। हेरी ट्रूमन जो अमेरिका के तेतीसवें राष्ट्रपति थे जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर को हराया था। उनके सेनापति रहे जनरल डीडी आइजनहोवर बाद में राष्ट्रपति बने। दोनों हाकर रहे थे। वैज्ञानिक टामस एडिसन जिनके आविष्कारों ने जनसंचार (सिनेमा, उपकरण, रिकॉर्डिंग ) को बढ़ाया, भी कभी अखबार बेचते थे। इन्हें हाकरों ने 18 जुलाई 1899 को अपनी आर्थिक मांगों का समर्थन में बहुत बड़ी हड़ताल भी की थी। भारत में रायपुर के पुराने दैनिक ‘‘देशबंधु‘‘ के विक्रेता पवन दुबे का नाम परिचित है।
अर्थात हम पत्रकार क्योंकि अपनी मांगें मनवाने में बड़े बलहीन रहे, अतः हाकर हमारी यूनियन के शक्ति के स्तंभ रहा। एक बार लखनऊ में अखबार बंद करने पर हम बड़े कमजोर निकले। मगर तभी एक पत्रकार ने जो हाकरों के आत्मीय थे हमारे संघर्ष को सफल बना दिया। वे है भास्कर दुबे। एक योग्य पत्रकार, लेखक और हाकरों के संगठनकर्ता। उनकी मदद से पत्रकारों का आंदोलन बड़ा बलवान बन गया। लखनऊ के अखबारी मालिकों को भास्कर दुबे ने इसका सम्यक अहसास करा ही दिया था।
अपने श्रमिक संघर्ष के लम्बे दौर में हम पत्रकारों को नयी तकनीक भी इजाद करनी पड़ी थी। यह बड़ी दिलचस्प रही। याद आया गुजरात में बड़ौदा के निकट खेड़ा जनपद में कस्बा है मातर। यहीं खेड़ा सत्याग्रह 1918 में बापू ने चलाया था। ब्रिटिश सरकार को लगान देने से किसानों ने मना कर दिया था। सरदार पटेल यहीं गांधीजी से पहली बार मिले थे। तो इस कस्बे के एक वरिष्ठ पत्रकार वजीहुद्दीन हमारी गुजरात पत्रकार यूनियन के पदाधिकारी थे। अपना तखल्लुस (उपनाम) ‘‘वज्र मातरी‘‘ रख लिया था। वे दैनिक ‘‘गुजरात समाचार‘‘ के चीफ सब एडिटर थे। एक बार उन्हें कुछ गुजराती वर्तानी की त्रुटि के कारण मालिक शांतिलाल शाह ने निलंबित कर दिया था। तब मैं गुजरात पत्रकार यूनियन में महासचिव था। हमने शुद्ध गांधीवादी आंदोलन चलाया। सारे साथियों को निर्देश था कि बिना मात्रा के खबरें मुद्रित होंगी। अर्थात कोका कोला छपेगा: ‘‘काला काला‘‘ जैसा। मुख्यमंत्री लिखा जायेगा: ‘‘मख्यमंत्र‘‘। दूसरे दिन मालिक को पाठकों की शिकायत आयी। शाहजी गुस्से से संपादकीय विभाग में आये और चिल्लाये ‘‘मात्री क्यां छे?‘‘ (गुजराती में मात्रा को स्वरमात्री कहते हैं)। सभी डेस्क वाले अत्यंत शील, सधे हुए तरीके से जवाब देते: ‘‘मालिक, मात्री को तो आप ही ने निकाल दिया।‘‘ अंततः मालिक ने वज्र मातरी को बहाल कर दिया। तो फिर मात्रा भी वापस लगने लगी।
लेकिन सबसे यादगार गांधीवादी विरोध हमारा बड़ा कारगर हुआ था। एक निष्ठुर, सामंती प्रवृत्ति के अखबारी मालिक अपने कर्मियों के बोनस के नाम पर सालाना केवल एक स्टील का लोटा देता था। जबकि कानूनन एक या डेढ़ माह का वेतन देना अनिवार्य था। उस दैनिक में आतंक इतना व्यापक था कि हमारे सदस्य संघर्ष ही नहीं कर पाते थे। एक युक्ति हमें सूझी। उनकी पुत्री के विवाह का समारोह था। इसमें मुख्यमंत्री, राजनेता, शासकीय अधिकारी, विशेषकर श्रम विभागवाले अतिथि थे। हमने सूचना जारी कर दी कि हमारी यूनियन के लोग प्लेकार्ड लेकर सड़क पर खड़े रहेंगे और हर एक आगंतुक से आग्रह करेंगे कि हमारी बोनस की मांग का समर्थन करें। खौफ इतना उपजा कि बिना प्रदर्शन किये हमारी मांग स्वीकार कर ली गयी। यह सत्याग्रह की शैली उस साबरमती के संत द्वारा सृजित थी, जिसका आश्रम हमारे ‘‘टाइम्स आफ इंडिया‘‘ कार्यालय से अहमदाबाद में केवल पांच किलोमीटर था। मुझे बापू तब बड़े जबरदस्त आंदोलनकारी लगे, जिन्होंने बिना एक भी गोली चलाये महाबली बर्तानी कब्जेदारों को सागर पार खदेड़ दिया था।
उस समय हमारे ‘‘टाइम्स आफ इंडिया‘‘ एम्लाइज यूनियन, जिसका मैं अध्यक्ष था, ने भी बोनस संघर्ष चलाया। श्रमजीवी संघर्ष के अनुभव के आधार पर मेरी कोशिश रही थी कि हड़ताल न हो, क्योंकि उससे कार्मिकों का वेतन कटता था। हमने ‘‘नियमानुसार काम‘‘ करने का संघर्ष चलाया। दूसरे शब्दों में इसको ‘‘गो स्लो‘‘ कहते है। अर्थात पीटीआई/यूएनआई के टेलिप्रिन्टर से चपरासी खबर की कापी फाड़ कर लाने में दस मिनट ज्यादा लगाने लगा। संपादन-शीर्षक के लिये डेस्क भी बीस मिनट अधिक लेगा। बाकी दारोमदार प्रेस कर्मचारी पर था। अर्थात अखबार छपकर आने तक घंटा ज्यादा लग जाता था। हजारों प्रतियां बिना बिके लौट आती थीं। बस चन्द दिनों में ही वार्ता हुयी। प्रबंधन को समझौता करना पड़ा। हमारा काम फिर अधिक फुर्ती से होने लगा। हमारा नारा था: ‘‘जैसा दाम, वैसा काम।‘‘
गुजरात में हमारी यूनियन के मेहनतकशों की कशमकश को बड़ा समर्थन और हमदर्दी मिली गांधीवादी अर्थशास्त्री श्रीमन नारायण तथा उनकी पत्नी मदालसा नारायण से। वे राज्यपाल थे। तब राष्ट्रपति शासन था। फलस्वरूप राज्य श्रम विभाग बिना दबाव के कार्य करता था। हालांकि आज के एलेक्ट्रोनिक दौर में हम सब संगठन के हिसाब से बड़े कमजोर हो गयें हैं। अधिकतर साथी भी प्रबंधक हो गये जो सीधी कार्रवाही के दायरे से बाहर हो गये। ठेकेदारी पर सेवा की प्रणाली आ गयी। अब शोषण तथा दमन के तरीके भी आधुनिक हो गये। अतः पूरा माहौल ही दूसरा हो गया। नयी पीढ़ी को अधिकारों हेतु लड़ाई के अब नये शस्त्र गढ़ने होंगे। किन्तु हमारा शाश्वत नारा वहीं रहेगा: ‘‘हर जुल्मों सितम के टक्कर में, संघर्ष हमार नारा है।‘‘
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)