हम ओलंपिक से अब खाली हाथ नहीं लौटते
21वीं सदी की शुरुआत से ही भारत ने खेल के बुनियादी ढांचे के महत्व को पहचानना शुरू कर दिया था। इसके नतीजे भी सामने आए। बीते 25 सालों में भारत के खिलाडियों का प्रदर्शन उल्लेखनीय कहा जा सकता है। भारत ने इस नए दौर में कई बड़ी प्रतियोगिताएं व मेडल जीते। पेरिस ओलंपिक में भारत को सोना नहीं मिला लेकर फिर भी हमने छह पदक जीते। तसल्ली ये है कि अब आलंपिक से खाली हाथ लौटने के दिन गए। क्रिकेट में तो ढाई दशकों से भारत ने अपनी धमक से पूरे विश्व को हिला कर रख दिया है। बीते 25 वर्षों में खेल में भारत की यात्रा का ब्योरा दे रहे हैं वरिष्ठ खेल पत्रकार संजीव मिश्र।
21वीं सदी के भारत ने क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों की दुनिया में भी अपनी मौजूदगी दर्ज करवानी शुरू कर दी है। रफ्तार धीमी है लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि अब हम अन्य खेलों में भी दिखने लगे हैं। पिछले 24 वर्षों में खेलों के बड़े प्लेटफॉर्म पर भारत का दखल बढ़ा है। और हां, अब हम ओलंपिक से खाली हाथ नहीं लौटते। यह दीगर है कि हम अभी भी पदक तालिकाओं में काफी नीचे हैं लेकिन धीरे-धीरे कामयाबी की पायदान चढ़ रहे हैं। यह कहने में गुरेज नहीं कि एशिया में हम अगले एक दशक में चीन, जापान और कोरिया को चुनौती देने लगेंगे। यदि खेलों में वर्ष 2000 के बाद की अपनी स्थिति पर नजर डालें तो बहुत कुछ ऐसा है जो तसल्ली देने वाला है। फिर चाहे वह खेलों के बुनियादी ढांचे में सुधार का मसला हो या खेलों में हमारे प्रदर्शन की बरक्कत हो, हमें इन 23-24 वर्षों में तरक्की के निशान साफ दिखाई दिए हैं। क्रिकेट में तो ढाई दशकों से भारत ने अपनी धमक से पूरे विश्व को हिला रखा है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड दुनिया का सबसे अमीर और ताकतवर बोर्ड बन चुका है और आईसीसी में भी मुख्य पद पर बैठा है। और यह भी कि अब हम क्रिकेट अपनी शर्तों पर ही खेलते हैं और पाकिस्तान जैसे देशों को घुटने पर लाकर फैसले करवाते हैं।
ओलंपिक में उम्मीदें बढ़ीं
एक समय ऐसा भी था जब हम ओलंपिक में सिर्फ टूरिस्ट बनकर जाते और खाली हाथ लौट आते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। दरअसल खेलों का इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधरा और खिलाड़ियों के लिए सुविधाएं बढ़ीं तो पदक भी आने शुरू हो गए। हालांकि अभी भी भारत की आबादी को देखते हुए इसे शुरुआत ही माना जाना चाहिए। लेकिन यह साफ दिखने लगा कि बहुत कुछ बदला है और भारतीय खेलों के आसमान से धुंध छंटने लगी है। हां, अभी भी वह कामयाबी दूर है जो हर बड़ी आबादी वाले देश से अपेक्षित होती है। असल में किसी भी देश की खेल में कामयाबी ओलंपिक पदक तालिका में उसकी स्थिति से आंकी जाती है। यहां भारत नीचे है लेकिन यह कहने में संकोच नहीं कि शून्य का सन्नाटा जरूर टूट चुका है और इस देश के खिलाड़ी अब विश्व को चौंकाने लगे हैं।
जेवलिन थ्रोअर नीरज चोपड़ा जैसे खिलाड़ी विश्व पटल पर अपने नाम की चर्चा करवाने लगे हैं लेकिन ओलंपिक में अभी भी हमारी कामयाबी शूटिंग, बैडमिंटन, कुश्ती, बॉक्सिंग और एथलेटिक्स तक ही सीमित है। इनमें भी बैडमिंटन और बॉक्सिंग में हम कभी कभी ही पदक निकाल पा रहे हैं। कभी स्वर्ण के लिए ही मैदान में उतरने वाली हॉकी की बात करें तो वहां अब हालात बदले हैं। टोक्यो के बाद पेरिस में भी हॉकी में कांस्य पदक आया। लेकिन फिक्र इसको लेकर है कि हम उस हॉकी के पदक का कलर नहीं बदल पा रहे हैं, जिसमें कभी हम ही हम हुआ करते थे।
ओलंपिक में भारत अभी तक अपनी पूरी क्षमता नहीं दिखा सका है। इस बार भी हम 117 खिलाड़ियों का दल लेकर पेरिस 2024 गए थे और सिर्फ छह पदक लेकर लौट आए, जबकि 2020 टोक्यो ओलंपिक में भारत एक स्वर्ण सहित सात पदक लेकर अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के साथ लौटा था। 2024 पेरिस में कुछ पदक छिटक न गए होते तो हम अपने पदकों की संख्या सुधार सकते थे। कम से कम वे चार पदक मामूली अंतर से छिटक गए, जिनमें हमारे एथलीट चौथे नम्बर पर रहे थे। कुश्ती में फाइनल से पहले विनेश फोगाट की अयोग्यता ने भी भारत का नुकसान किया, लेकिन फिर भी यह कहेंगे कि जरा पलट कर भी देखिए। अब तक ओलंपिक में भारत ने सिर्फ 41 पदक ही जीते हैं, इसलिए यह देखते हुए यह प्रदर्शन पहले से काफी सुधरा माना जा सकता है। यह भी देखना चाहिए कि व्यक्तिगत तौर पर भारत को सिर्फ अभिनव बिन्द्रा (बीजिंग 2008) और नीरज चोपड़ा (टोक्यो 2020) ने ही स्वर्ण पदक दिलवाए हैं। यानि शुरुआत हो चुकी है।
भ्रष्टाचार का खेला
हालांकि अब खिलाड़ी दूसरी दिक्कतों का सामना कर रहे हैं। सुविधाएं तो बढ़ गईं लेकिन खेलों में पैसा आने से भ्रष्टाचार भी तेजी से जड़ें फैलाने लगा। खिलाड़ियों को चयन के लिए आर्थिक और अन्य तरह के समझौते करने पड़ रहे हैं। समझौते न कर पाने वाला टैलेंट गुमनामी में खो जाता है जबकि मजबूत आर्थिक बैक ग्राउंड वाले खिलाड़ी टीम में जगह घेर लेते हैं लेकिन यह सिफारिशी खिलाड़ी खेल के मामले में फिसड्डी होते हैं। परिणाम यह निकलता है कि इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म पर हमारी चुनौती की हवा निकल जाती है।
क्रिकेट कमाऊ पूत
अन्य खेलों की तुलना में क्रिकेट ने खुद को बिना खास सरकारी मदद लिए बेहतर तरीके से अपग्रेड किया है। यहां तक कि केन्द्र और राज्य सरकारों को भी मानना पड़ा है कि यह खेल राज्यों में विकास की गारंटी बन चुका है, इसीलिए जहां-जहां राज्य क्रिकेट एसोसिएशन के नए स्टेडियम बनते जा रहे हैं, वहां तेजी से विकास भी हो रहा है। सरकारें ऐसे जिलों में पांच और सात सितारा होटल और एयरपोर्ट की उपलब्धता भी सुनिश्चित करवा रही है, साथ ही उन शहरों में पर्यटन के नए अवसर भी बन रहे हैं। इन शहरों में बेहतर परिवहन ने भी क्रिकेट प्रशंसकों के लिए मैचों में भाग लेना आसान बना दिया है। पिछले दशक में भारत में विश्व स्तरीय स्टेडियमों और हवाई अड्डों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जिससे समग्र क्रिकेट अनुभव में वृद्धि हुई है।
तीन विश्वकप जीते
संदेह नहीं कि क्रिकेट ने पिछले दो दशक भारत में खेलों का झंडा ऊंचा रखा और पिछले 17 वर्षों में क्रिकेट के तीन विश्वकप हमने जीते। 2007 और 2011 महेन्द्र सिंह धोनी के नेतृत्व में टी-20 और वन डे विश्वकप की जीत ने भारत में इस खेल को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया। इसी साल रोहित शर्मा की कप्तानी में भारत ने 17 साल बाद फिर टी-20 विश्व कप में अपनी बादशाहत कायम की।
क्रिकेट के नए अवतार
2011 तक सचिन तेंदुलकर ने विश्व क्रिकेट पर राज किया, इसके बाद राहुल द्रविड़ और विराट कोहली ने भारतीय क्रिकेट को मजबूत किया और अब यशस्वी जयसवाल जैसे युवा खिलाड़ी क्रिकेट में भारत की धाक बरकरार रखने के लिए तैयार हो रहे हैं। पहले हम विदेशी दौरों में मेजबान टीम की जीत का रिकॉर्ड सुधरवाने जाते थे लेकिन अब घर में जाकर उन्हें न सिर्फ शिकस्त देते हैं, बल्कि सीरीज भी जीतते हैं। गेंदबाजी में जहीर खान, अनिल कुंबले, हरभजन, अश्विन और बुमराह ने पिछले 23 वर्षों के दौरान न जाने कितनी बार भारतीय जीत की पटकथा लिखी।
करोड़पति बने क्रिकेटर
भारत केटी-20 के पहले ही वल्र्ड कप में चैम्पियन होने के अगले ही साल यानि 2008 में टी-20 फॉर्मेट में आईपीएल क्रिकेट में जादुई करिश्मा लेकर आया। पिछले डेढ़ दशक में यह क्रिकेट की सबसे कामयाब खोज रही। हालांकि इस फॉर्मेट ने क्रिकेट की कलात्मकता को निगल लिया और इंजरी ने खिलाड़ियों का खेल जीवन भी छोटा कर दिया लेकिन इसी ने जसप्रीत बुमराह जैसे क्रिकेटर भी खोज निकाले। खिलाड़ियों का स्टेटस बदला और गरीब घरों से निकली प्रतिभाओं को करोड़पति बना उनकी किस्मत बदलने का काम भी किया।
महिला क्रिकेटर भी पीछे नहीं
इंडियन प्रीमीयर लीग एक ऐसा करिश्मा साबित हुई जिसमें टैलेंट के मुताबिक खिलाड़ियों की बोली लगने लगी और खिलाड़ी करोड़ों में बिकने लगे। इस इंस्टेंट क्रिकेट के जनक ललित मोदी थे। हालांकि बाद में कई आरोपों से घिरने के कारण उन्हें देश छोड़ना पड़ गया लेकिन आईपीएल आज पूरी दुनिया के क्रिकेटरों के लिए कुबेर का खजाना बना हुआ है। अब उसी राह पर वुमेन प्रीमियर लीग (डब्ल्यूपीएल) भी चल पड़ी है। क्रिकेट के इस फॉर्मेट के जरिए बीसीसीआई और उसकी फ्रेंचाइजियों ने अरबों कमा डाले। बीसीसीआई ने महिला क्रिकेट को अपनी संस्था मेंं मर्ज करके उनकी आर्थिक स्थिति भी ठीक कर दी।
तकनीक ने लाई नई क्रांति
2025 तक पहुंचने से पहले खेलों में कई ऐसे बदलाव हुए जिन्होंने दुनियाभर के खेलों को तकनीकी रूप से काफी मजबूत बना दिया। निर्णय समीक्षा प्रणाली (डीआरएस) तकनीक के आ जाने से अब क्रिकेट में फैसलों पर विवाद की गुंजाइश लगभग खत्म हो गई है। डीआरएस में बॉल ट्रैकिंग, स्मार्ट बेल्स, ग्राफिक्स और एनिमेशन, स्पीड गन, स्निको मीटर, पिच विजन से उन निर्णयों पर दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है, जिसमें बल्लेबाज या गेंदबाज अम्पायर के निर्णय से संतुष्ट नहीं होते हैं। जब डीआरएस नहीं था तब कई बार अम्पायरों के फैसले बल्लेबाजों और गेंदबाजों के खिलाफ जाते थे। महान बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर के समय में डीआरएस प्रणाली होती तो उनका रिकॉर्ड और भी बेहतर होता, क्योंकि स्टीव बकनर जैसे अम्पायरों ने कई साल बाद माना कि सचिन केखिलाफ कुछ मौकों पर उन्होंने गलत ऊंगली उठाई थी। पिछले दो ढाई दशकों में तकनीक के प्रवेश से भी खेलों और खिलाड़ियों को काफी फायदा हुआ है। क्रिकेट हो या अन्य खेल, तकनीक के प्रयोग से खेलों का संचालन काफी सुविधाजनक और निष्पक्ष हो गया है। खेल तकनीक खिलाड़ियों की चोटों को रोकने और उसके रिहैब में मदद कर रही है। सेंसर का उपयोग एथलीट के स्वास्थ्य और प्रदर्शन पर डेटा एकत्र करने के लिए किया जा रहा है। एथलीटों के जूतों और उनके कपड़ों में सेंसर लगाकर डेटा विश्लेषण कर उनकी कमियों को दूर किया जाता है। एथलीटों के प्रदर्शन पर फिटनेस घड़ियों की भूमिका भी अब अहम हो गई है।
इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार
भारत के लिए खेलों की तस्वीर यूं ही रातों रात नहीं बदली। इसके पीछे सरकारों की कुछ योजनाओं को भी श्रेय दिया जाना चाहिए। खासकर ग्रामीण इलाकों से प्रतिभाओं को प्रारंभिक तौर पर तराश कर ओलंपिक पोडियम तक पहुंचाने के लिए योजनागत तरीके से काम हो रहा है। खेल के लिए बुनियादी सुविधाएं गरीब प्रतिभाओं के गांवों और कस्बों तक पहुंचाई गईं। दरअसल 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत में भारत ने प्रतिभाओं को पोषित करने के लिए खेल के बुनियादी ढांचे के महत्व को समझा, जिसके अब सकारात्मक परिणाम दिखने लगे हैं।भारत के खेल बुनियादी ढांचे में 2000 के बाद से महत्वपूर्ण विकास देखा गया है। सरकार, निजी क्षेत्र और खेल निकाय खेलों का आधारभूत ढांचा तैयार करने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं। वर्ष 2000 से पहले खिलाड़ियों को अभ्यास के लिए न तो पर्याप्त संसाधन थे और न ही उन्हें अपने जिलों में प्रशिक्षक ही मिल पाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। घड़ी ने कांटा बदला तो छोटे-छोटे शहरों में खेलों के लिए मजबूत इन्फ्रास्ट्रक्चर ने खिलाड़ियों के लिए पदक के अवसर बढ़ा दिए।
खेलो इंडिया स्कीम से गांवों की प्रतिभाओं तक पहुंच रहे
गरीब और ग्रामीण प्रतिभाओं के लिए सरकार ने खेलो इंडिया अभियान शुरू किया है जो उनके खेल को तराश रहा है। इस अभियान के तहत, ग्रामीण इलाकों में खेल मैदान बनाए गए हैं। ‘खेलो इंडिया केन्द्र और खेल अकादमियों’ के लिए पहचानी गई प्रतिभाओं को मान्यता प्राप्त अकादमियों में प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इस पर सरकार अच्छा खासा खर्च कर रही है। इसमें प्रशिक्षण व्यय, कोचिंग, प्रतियोगिताओं के प्रदर्शन, शिक्षा, उपकरण सहायता, वैज्ञानिक सहायता के लिए हर वर्ष लाखों का खर्च किया जा रहा है। हालांकि भ्रष्टाचार ने यहां भी सेंध लगा दी है।
टॉप्स के जरिए शीर्ष एथलीटों को मदद
टारगेट ओलंपिक पोडियम स्कीम (टॉप्स) के अंतर्गत सरकार शीर्ष एथलीटों को ओलंपिक और पैरालंपिक की तैयारियों के लिए आर्थिक मदद दे रही है। चयनित एथलीटों को राष्ट्रीय खेल विकास कोष (एनएसडीएफ) से प्रशिक्षण और अन्य सहायता दी जाती है। इसमें कोर ग्रुप के एथलीटों को प्रति माह 50,000 रुपये की दर से आउट ऑफ पॉकेट भत्ता (ओपीए) का भुगतान किया जाता है।
अब खेल सिर्फ खेल नहीं, सुरक्षित कॅरिअर भी
कुछ वर्षों पहले तक खेलों में कॅरिअर सुरक्षित नहीं माना जाता था। यह भी एक वजह थी कि अभिभावक अपने बच्चों को खेलों की बजाय डॉक्टर, इंजीनियरिंग लाइन में कॅरिअर बनाने की तरफ उनका फोकस रखते थे। भारत खेलों में इसी लिए एक कमजोर देश भी हुआ करता था लेकिन अब स्थितियां बदल रही हैं। अब खेलों में भी अच्छा कॅरिअर बनाया जा सकता है। सरकार विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से वित्तीय सहायता प्रदान करके एथलीटों को खेल को करियर के रूप में अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। खिलाड़ियों के लिए सरकारी और निजी संस्थानों में आरक्षण भी मिल रहा है लेकिन समस्या यह भी है कि बड़ी संख्या में ऐसे संस्थान भी हैं जो खेल कोटे के तहत खाली पड़े पदों को नहीं भर रहे हैं।
शतरंज में अब भारत की बादशाहत
विश्नाथन आनंद ने पांच बार फिडे विश्व शतरंज खिताब दिलाकर इस खेल में भारत का डंका बजाया था। इसी दिसम्बर में 18 वर्षींय डी. गुकेश सिगापुर में चीन के डिंग लिरेन को हराकर इतिहास में सबसे कम उम्र के विश्व शतरंज चैंपियन बन आंनद की परम्परा को आगे बढ़ाया। आनंद ने 2000, 2007, 2008, 2010, 2012 की विश्व चैम्पियनशिप जीती। इसके अलावा2003 और 2017 में वल्र्ड रैपिड शतरंज चैम्पियनशिप और 2000 व 2017 में वल्र्ड ब्लिट्ज शतरंज चैम्पियनशिप के खिताब जीते। कोनेरू हम्पी ने 2019-2020 में महिला विश्व रैपिड चैम्पियनशिप और वर्ष 2019-2020 में महिला ग्रैंड प्रिक्स सीरीज जीती, जबकि द्वारिका द्रोणा वल्ली ने 2012, 2015 और 2017 में महिला विश्व चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीता, जबकि 2016 में चेंगदू में फिडे महिला ग्रैंड प्रिक्स इवेंट भी जीता। आर प्रज्ञाननंदा सबसे कम उम्र के भारतीय ग्रैंड मास्टर ने 2019 में विश्व युवा शतरंज चैम्पियनशिप (अंडर-18) जीती। उन्होंने 2021 में एशियाई महाद्वीपीय शतरंज (ओपन) चैम्पियनशिप भी जीती।