2010 के बाद क्या हुआ
भाग 1
1995 से लेकर 2010 के 15 वर्षों में यूरोप और अमेरिका ने मिलकर WTO और उससे संबंधित फोरम का गरीब देशों को चूसने, निचोड़ने में भरपूर उपयोग किया। कई गरीब देश जो Single Commodities Country थे दरिद्र हो गये। उनके आर्थिक स्त्रोत क्षीण हो गये। अमीर देशों के लिये उनकी उपयोगिता नहीं रही। तब वे देश अराजकता के शिकार हो गये।
2010 के बाद दुनिया के बाजार में चीन ने भी एक मजबूत प्रतिस्पर्धी के रूप मे जगह बनाई। सामूहिक शोषण अब बहुत फायदे का सौदा न होने के कारण अमीर देश द्विपक्षीय समझौतों में लग गये। अमेरिका, चीन, रूस के समान भारत, ब्राजील आदि भी अब आगे बढे।
वैश्विक स्तर पर 2010 के बाद गरीबों की संख्या 1995 की तुलना मे लगभग दुगुनी हो गई। विषमता तेजी से बढ़ी। 30 वर्ष पूर्व दुनिया की 70% संपदा 30% लोगों के हाथ में थी। अब 80% संपदा 20% लोगों के हाथ आई। भारत में ऊपरी 1% आबादी के पास देश के 57% संसाधन आ गये।
प्रकृति विध्वंश तो बेतहाशा हुआ। Climate Change, Global Warming, ग्लेशियरों का पिघलना, अलनीनो एफेक्ट, ग्रीन हाउस गैसेज आदि की चर्चा आम हो गई। दुनिया भर मे जंगल उजड़ें, जल-स्त्रोत प्रदूषित हुए, कम भी हुए, जमीन बंजर हुई। जन स्वास्थ्य, प्रकृति विध्वंस और विकृत उपभोगवाद का शिकार हुआ। महिलाओं, कमजोर वर्ग पर हिंसा बढ़ी। गृह युद्ध, नस्लवाद, माइग्रेशन, पलायन, अप्रवासी मजदूर, हिंसा, तनाव आदि सब दूर बढ़ा।
धीरे-धीरे विकास की अवधारणा के बारे मे सवाल उठने लगे। विकास के पैमाने पर भी बहस होने लगी। अब कहीं कहीं हैप्पीनेस इंडेक्स पर भी चर्चा होने लगी है। शीतयुद्ध मे नये-नये योद्धा शामिल हो रहे हैं। विश्व मे तनाव, अशान्ति बढ़ी है। संयुक्त राष्ट्र संघ निस्तेज पड़ा है। अन्तर्राष्ट्रीय निकायों पर कब्जा करने की होड़ मची है।
देशों के अंदर प्रक्षेत्रों में असमानता बढ़ी है। देशों मे तटवर्ती इलाके आगे और अंतर्वर्ती इलाके पीछे हो गये है। देशों के बीच भी असमानता बढ़ी है। रूस, चीन, अमेरिका अपने सेटेलाइट देशों की मार्फ़त एक दूसरे को घेरने मे लगे है। विश्व शान्ति पर ही खतरा छा गया है। आण्विक बमों की गिनती होने लगी है। नव -उपनिवेशवाद का नया स्वरुप सामने आ रहा है।
पहले अमेरिका मे डेट्रायट को मोटरकारों का कूड़ा घर माना जाता था। अब हर महानगर में कूड़ा पहाड़ दिखने लगा है। सर्वत्र जीवन स्तर के नाम पर फिजूलखर्ची और साधनों की बर्बादी सर्वस्वीकृत सी दिख रही है। अराजकता, तनाव, हिंसा के बारे मे सितंबर 11, 2001 को न्यूयार्क मे वर्ल्ड ट्रेड टावर पर लादेन के लोगों द्वारा जहाज लड़ाये जाने की घटना ने इस्लामी आतंकवाद की धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई। तब से अब तक दुनिया में इसके तरह – तरह के प्रकार अनुभव में आ रहे हैं।
पूरी दुनिया मे जहाँ भी लोकतांत्रिक तरीके से शासन व्यवस्था है वहाँ विचारधारा की जगह व्यावहारिकता एवं अवसरवाद, सत्ता का गतिशास्त्र, व्यक्ति केन्द्रित प्रचार आदि महत्वपूर्ण होता रहा है। कई देश Single Party Democracy की ओर बढ़ रहे है। चीन ने आजीवन राष्ट्रपति की व्यवस्था कर ली है। रूस भी उसी राह पर है। लैटिन अमेरिकी देश हों या टर्की, फिलीपाइन्स, उत्तर कोरिया हो कमोबेश वही राह पकड़ने की ओर है। आगे इन देशो मे सत्ता परिवर्तन का क्या तरीका रहेगा यह गौर करने की बात होगी।
सन 60, 70 के दशकों में टेक्नोलॉजी मे पहले शास्त्रास्त्र उत्पादन का व्यापार जोरों पर था। उसके बाद ऑटोमोबाइल, आयल क्षेत्र ने उछाल मारी। उसके बाद सूचना तकनीक आगे बढ़ी। पिछले 20 वर्षों में संचार उद्योग इन सब को पीछे छोड़ गया है। उसका बहुमुखी वर्चस्व स्थापना का प्रयास मानव और मानवता के लिये चुनौती बन रहा है। आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स, बायोटेक, जेनेटिक इंजीनियरिंग क्या-क्या गुल खिलायेंगी यह तो सामने आना शेष है। तकनीकी और मनुष्य में एक दूसरे को नियंत्रित करने की स्पर्धा चल रही है।
विचारहीन भूमंडलीकरण के इस युग में तकनीकी और मानवीय मन ने दुनिया को छोटा बना दिया है। मानव हर चीज मुट्ठी मे लेने या महज अँगुलियों पर नचाने की स्थिति मे है। परन्तु उसी परिप्रेक्ष्य मे परिचय की परिधि तो बढ़ी, अनंत को छूने लगी है पर परिचय या मित्रता मे न बदलकर सतही ही बना रहा है।
परिवार, पड़ोस, पानी, पहाड़, पेड़, पशु, प्रेम आदि पहलुओं पर मानव मार खा रहा है। जीवन की लंबाई बढ़ी, गहराई नहीं। जीवन का उद्देश्य कहीं तो गुम हो रहा है। प्रकृति से मानो युद्ध छिड़ गया है। मनुष्य को प्रकृति समझाने मे लगी है कि तुम प्रकृति के विजेता नही प्रकृति का हिस्सा हो ।