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आगामी लोकसभा में बीजेपी के 400 पार पहुंचने के मायने या किसमें दम है, जो बीजेपी को 400 पार से रोक सके

नई दिल्ली: कभी इसी देश में कांग्रेस ने लोकसभा की 412 सीटें जीती थीं, तब उसका वोट प्रतिशत 48 था। इंदिरा से जुड़ी सहानुभूति लहर भी थी, इंदिरा जी के कार्य भी जनता के सिर चढ़कर बोल रहे थे। मंडल-कमण्डल जैसा कोई खेल भी तब शुरू नहीं हुआ था। देश में मत डालने का प्रतिशत तब आज जैसा बढ चढ़कर नहीं होता था। कांग्रेस का अपना एक शानदान संगठनात्मक ढांचा था और कांग्रेस की तत्कालीन सरकार द्वारा किये गये कार्यों को खुलकर गिनाने की कांग्रेस में क्षमता थी। तब कांग्रेस की गांव से लेकर शहर तक अपनी खुद की पकड़ थी। ऐसे सुयोगों के बीच कांग्रेस को लोक सभा में 400 पार सीटें मिली थीं।

इन सबके बावजूद बीजेपी के इसी दावे पर गौर करें तो इसके मायने ही अलग नजर आती है। बीजेपी का सामान्य जनाधार मात्र 38 प्रतिशत के निकट है। विगत के दो लोक सभा में बीजेपी के लहर का दौर था, उसमें 2014 में 31 व 2015 में 40 प्रतिशत के आस पास था। हां पूरे एनडीए का प्रतिशत मिला भी दें, तब भी वह स्थिति नजर नहीं आती, क्योंकि इस बार एनडीए का स्वरूप दूसरा है। बीजेपी व सत्ता धारी दल की ओर से राम मंदिर से लेकर बहुत सारे नये मुद्दे लांच जरूर किये जा रहे हैं, लेकिन 2019 जैसी लहर बनती दिख नहीं रही है। सरकार के पास कार्य को लेकर जनता के बीच जाने की स्थिति भी नहीं है। क्योंकि सन 2014 व 2019 में जिन मुद्दों के भरोसे वह सत्ता में आई थी, वह इस बार उनके आस पास ठहरना नहीं चाहती, क्योंकि उन पर जनता के सामने जाने लायक कोई कार्य नहीं हो पाया है। हम बात कालाधन, नोटबंदी, धारा 370, किसानों की आय का दुगना हो जाना, 100 स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, प्रतिवर्ष 2 करोड़ नौकरी, भ्रस्टाचार मुक्त भारत, आर्थिक खुशहाली, पड़ोसी देशों के साथ संबंध, देश की सीमाओं की सुरक्षा से लेकर अनेक मुद्दे हैं, जिनके भरोसे बीजेपी न तो जनता के बीच जाना चाहेगी, न उसकी जा पाने की हैसियत ही है। ऐसे में उसके लोक सभा में 400 पार का दावा क्या हवा हवाई है अथवा इसके पीछे के कारण कुछ और हैं?

हां संगठनात्मक ढांचे पर गौर करें तो बीजेपी इसमें कांग्रेस व अन्य दलों के मुकाबले कहीं बहुत आगे है। क्योंकि उसके साथ आरएसएस है, बजरंगदल है, विश्व हिन्दू परिषद है, विद्यार्थी परिषद सहित न जाने कितने संगठन हैं, जो धरातल पर बीजेपी के लिए 24 घंटे कार्य करते रहते हैं। हिन्दुत्व का मुद्दा भी बीजेपी के लिए कार्य करता है, लेकिन उसकी भी अपनी एक सीमा है। ऐसी स्थिति में आज के दौर में 400 पार को लेकर एनडीए सहित बीजेपी जो दावा कर रही है, उसके मायने कुछ और ही हैं।

बीजेपी का इसे लेकर दम भरने के पीछे है, देश में व्यापक स्तर पर कोई सशक्त सक्षम विपक्ष का न होना। राज्यों में अलग-अलग क्षत्रपों का मजबूत होना तो दिखता है, लेकिन उनका सत्ताधारी दल के प्रति एक जुट होकर कांग्रेस का साथ देना सम्भव नहीं है। इससे भी बड़ी बात यह कि अधिकांश राज्यों में सशक्त क्षेत्रीय दलों का कोई वैचारिक जनाधार का न होना। लगभग क्षेत्रीय दलों की सबसे बड़ी कमजोरी है, उनका दागदार होना, किसी न किसी करेप्शन से जुड़ा होना अथवा जुड़े दिख जाने की कमजोरी। अथवा कोई ऐसी कमजोर नश का होना, जिसके कारण उनकी आवाज दबाई जा सकती है। इन्हीं के चलते वर्तमान सत्ताधारी दल की चालों के सामने ये तथाकथित दल अपने को बौने अनुभव करते हैं और चाहकर भी सत्ता का सामना करने लायक अपने को कम ही समझते हैं। आवश्यकता पड़ने पर सत्ता के लिए काम करने की सम्भावना ही अधिक दिखती है, ऐसे में वर्तमान सत्ता का 400 पार का दावा दम भरता नजर आता है।

इसी के साथ उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में राजद, दिल्ली व पंजाब में आप, जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला की पार्टी जैसी कुछ हैं, जिनका बीजेपी के साथ न जाना अपनी वैचारिक मजबूरी है। ऐसे कुछ दलों को छोड़ दें, तो उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूरब से लेकर पश्चिम तक बाकी लगभग सभी प्रांतों में कमोबेश हर क्षेत्रीय पार्टी सत्ता से सौदेबाजी के लिए तैयार बैठी नजर आती है।

क्षेत्रीय दलों से आगे बढ़कर बात करते हैं तो राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी की धुर विरोधी पार्टी कांग्रेस है। इसका देशभर में जनाधार है। कई राज्यों में यह बीजेपी को सीधे टक्कर देती नजर भी आती है, इसके बावजूद जब से देश की सत्ता में मोदी वाली बीजेपी ने पैर पसारे हैं, तब से यह सिमटती सी गयी। 2014 में लोकसभी की सीटों को लेकर तो कांग्रेस सिमटी ही, कितने अवसर ऐसे आये जब कांग्रेस को राज्यों में मिली सत्ता बीजेपी के हाथों गवानी पड़ी। यह हस्तांतरण किसी और ने नहीं, अपितु कांग्रेस के अपनो ने ही बीजेपी को सौंपते रहे। पिछली विधान सभा पर सिलसिलेवार नजर डालें तो कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पूर्वोत्तर के कई राज्यों में कांग्रेस ने चुनाव जीता, सरकार बनाई अथवा बनाने की स्थिति में आई, लेकिन अपनों ने ही विश्वास घात करके पाला बदल लिया और सरकार हाथ से फिसल कर बीजेपी हाथ लग गयी। कांग्रेस अपने आरोपों में इन दिनों इन सबका जिक खुलकर करने भी लगी है।

यही नहीं मोदी की जादूगरी के चलते अब तक अनेक बड़े बड़े कांग्रेसी सूरमाओं ने खुद पार्टी छोड़कर जनता को चौकाया है। ज्योतिर्जादित्य सिंधियां हों, अथवा गुलाम नवी आजाद, हेमंत विश्व शरमा, कपिल सिब्बल, जितिन प्रसाद जैसे अनगिनत हैं। ये कांग्रेस के वे सिपाही थे, जिनके परिवारों में आजादी के बाद से कांग्रेस का रक्त दौड़ता आ रहा था। कई सीधे न सही, पर उनके पिता, बाबा, दादा सच्चे कांग्रेस के सिपाही माने जाते थे। लेकिन अब कांग्रेस को अलविदा करके उसे कमजोर करने पर तुले हैं। कहने का आशय है कि क्षेत्रीय दल हों अथवा राष्ट्रीय प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस हो। जब सबको अपनी सत्ता को अनुकूल बनाये रखने में नरेन्द्र मोदी जी एनकेन प्रकारेण सफल होते दिख रहे हैं। ऐसे में कौन है, जो उन्हें 400 पार पहुंचने से रोक सकता है?

इसके विपरीत अधिकांश वे खांटी कांग्रेसी जो खुलकर बीजेपी व मोदी का सपोर्ट नहीं कर पाते, वे लगभग कांग्रेस के पक्ष में बढ़ चढ़कर काम करते भी नहीं दिख रहे। इन सबके विशेष कारण हैं, जिन पर आगे चर्चा कांग्रेस में ही होनी चाहिए। पर अभी लगभग 2 माह बाद होने वाले चुनावों के मद्दे नजर कांग्रेस में वह दम तो नहीं ही दिखता, जो वर्तमान सत्ता की ठसक को रोक सके। हां नीतीश कुमार ने इंडिया गठबंधन की नीव डालकर देश के राजनीतिक विश्लेषकों व चुनाव पंडितों में देश की सत्ता परिवर्तन के आसार दिखाये थे, बीजेपी ने उस नितीश नामक कीली को उखाड़ अपनी झोली में डालकर भी स्पष्ट संकेत दे दिये कि 400 पार से कोई नहीं रोक सकता।

आज की सत्ता का मिजाज की दृष्टि से आंकलन करते हैं तो पाते हैं कि आज हमारे यहां की संवैधानिक संस्थायें सत्ता के लिए काम करती दिखने लगीं हैं। वह सीबीई हो अथवा ईडी, गैंग हो अथवा चुनाव आयोग। इस देश में चुनाव कराने वाली संविधान की दृष्टि से स्वतंत्र वाडी चुनाव आयोग को ही लें, जो कभी राष्ट्रपति के अनुमति से चयनित होते थे, पर आज सीधे वह व्यक्ति उन्हें चयनित करेगा, जिसके निर्वाचन को पारदर्शी बनाये रखना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है। अभी कुछ ही दिनों बाद यह चयन होने जा रहा है, जिसमें हमारे प्रधानमंत्री, हमारे केंद्रीय मंत्री के तौर पर देश के गृहमंत्री और इस चयन समिति में नाममात्र की औकात रखने वाले विपक्ष के नेता शामिल रहेंगे। इसे कहते हैं सैंया भये कोतवाल। यही नहीं देश की मीडिया को आज लगवा मार ही गया है, क्योकि उसकी औकात नहीं है कि वह सत्ता से सवाल पूछ ले। मीडिया तो संसद हो अथवा संसद के बाहर जो सत्ता कहती है, उसे सत्य साबित करने का कार्य करती हमारी मीडिया नजर आती है। ऐसी ही स्थिति कमोबेश अनेक संवैधानिक संस्थाओं का है। ऐसे में कौन यह कहने की हिम्मत जुटा सकता है कि हमारे सत्ताधारी दल 400 पार नहीं कर डालेंगे।

इस विपरीत परिस्थितियों में अब बस एक बल बचा है, जिससे आशा की जा सकती है कि सब कुछ सत्ता के कहे अनुसार ही नहीं चलेगा। वह है हमारे देश का आम वोटर। आगामी लोक सभा चुनाव की तैयारियों में जुटे पक्ष और विपक्ष के बीच देखना है कि बीजेपी के 400 पार के रथ का पहिया कहां जाकर थमेगा। गति मंद होगी अथवा देश का लोकतांत्रिक ढांचा, संवैधानिक स्वरूप सबकुछ उसके पहियों तले रौद जायेगा।

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