जिसका डर था वही बात हो गई
प्रसंगवश
स्तम्भ: बहुत से लोग, जिनमें कुछ बड़े विचारक व विद्वान भी शामिल हैं, यह कहते रहे हैं कि भारत देश में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है। वे महसूस करते हैं कि लोकतंत्र की इस तगड़ी खुराक की मौजूदगी के चलते 33 प्रतिशत वोट पाकर पार्टियाॅ सरकार बना ले जाती हैं, केन्द्र में सरकार पूरी तरह मजबूती हासिल नहीं कर पाती, लोग अपने मताधिकार को गंभीरता से नहीं लेते, अनुशासनहीनता जड़ तक समाई हुई है, अराजकता का आसानी से जन्म होता है, अधिकारों की अंधाधुंध माॅग के चलते, कर्तव्य बौने पड़ जाते हैं, बड़े- छोटों के बीच खाई लगातार चौडी होती जा रही है, परम्परागत सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों का ह्रास हुआ है, अवमूल्यित रहने के बावजूद रुपया बाकी सब धरम-करम पर भारी पड़ रहा है, गलत कामों के विरोध की हमारी आंतरिक क्षमताएं कमजोर हुई हैं और अंतरात्माओं से उठने वाली शाश्वत आवाजें अंधेरे कोनों के मकड़जालों में घिरकर कराहने को मजबूर हुई हैं।
इसीलिए अब जब हमारी कुछ कुंद की गई आजादियों की बहाली हुई तो हम लाॅकडाउन के रूप में आए निरोधों से छुटकारा पाते ही अपने असली स्वरूप में तेजी से वापस लौट आए और हमें पहले वाली अराजकता का स्वाद फिर भाने लगा। अगले कुछ दिनों में हम कुछ और आजाद होंगे और पिछले मार्च की 25 तारीख के पहले की विराट हकीकतों के उजले पक्ष को पृष्ठभूमि में धकेल कर घृणित विद्रूपों को अंगीकार करने में जरा भी नहीं हिचकिचाएंगेे।
लम्बी गुलामी के बाद 15 अगस्त 1947 को हम आजाद हुए और धीरे—धीरे लेकिन सधे हुए अंदाज से आजादी के मीठे—मीठे फल खुद खाकर, छिल्के दूसरे कम भाग्यवानों की तरफ फेंकने में जुट गए। जिनकी गाॅठ में कुछ नहीं था, उनकी गाॅठ और भी ढीली होती चली गई और इंसानों को इंसानियत से मापना हमने लगभग पूरी तरह भुला दिया। फिर 25 जून 1975 कोे एक दूसरी तरह का मुकाम आया जब सत्ता की शक्ल में सर्वव्यापी हुए तंत्र ने नई परिभाषाएं लिखनी शुरू कर दीं।
तमाम अधिकारों को रौंद दिया गया और उनके कथित रक्षकों को जेलों में भेज दिया गया। इक्का—दुक्का प्रदर्शन खिलाफत में हुए और जल्दी ही हमें लगने लगा कि यह इमरजेंसी तो अच्छी है भाई, रेलगाडियां समय से चलने लगीं, मूल्यों पर काबू पा लिया गया, अनुशासन की चादर आसमान को ढकने लग गई, फिजूल भाषणबाजी बंद हो गई और बढ़ती आबादी को रोकने की बात होने लग गई ।
हम इस निष्कर्ष पर पहुॅचने लगे कि मोटे तगड़े लोकतंत्र का- ‘टू मच डिमोक्रैसी’ का हम करेंगे भी क्या, क्या अचार डालेंगे? लेकिन फिर भी बहुत सी इच्छाएं-अभिलाषाएं दब कर रह गईं, पग—पग पर, जीवन के हर अंग पर शासन की उपस्थिति ज्यादा ही उभार पाने लगी और अराजकता को छूने वाले अपने पुराने करतबों-अंदाजों की याद हमें विहव्ल करने लगी।
फाइल फोटो राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद
फिर हमें 1977 की मार्च महीने की 21 तारीख को पुरानी आजादी तब फिर वापस मिल गई जब उन्हीं राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इमरजेंसी हटाने की घोषणा कर दी जिन्होंने एक आदेश पर हस्ताक्षर कर 25 जून 1975 को उसे लगाया था। तब हमने इंदिरा गाॅधी से बदला लेते हुए चुनाव में उनकी सत्ता पलट दी लेकिन जो दूसरे उनकी जगह आए, वे ‘टू मच डेमोक्रैसी’ में उलझकर रह गए और जल्दी ही इंदिरा गाॅधी फिर वापस लौट आईं। पर ‘कोरोना माई’ इंदिरा गाॅधी नहीं हैं। तो भी उसने इंदिरा गाॅधी की ही तरह आजादी पर पहरे बिठाए और हमें घरों के अंदर धकेल दिया। उसने अपनी शर्तें लगाईंः साबुन से हाथ धोना, पास नहीं आना, दूरी बनाकर रखना और हाॅ, इंदिरा गाॅधी के जमाने की तरह एक काम जरूर करना, अपना मुॅह ढककर रखना।
इसीलिए जब लाॅकडाउन के संदूक से शराब निकलकर बाहर आई तो उसकी तरफ लपके शराब प्रेमियों ने लम्बी लाइनें लगा लीं, लोग पूछने लगे गुटका मिलेगा और दिल्ली के तिलक नगर में तो एक भाई ने इतनी पी ली कि उस घर तक वापस न जाना पड़े जिसने 40 दिन से उसे कैद कर रखा था। वे कह नहीं रहे थे लेकिन जुबान पर था- अब क्या, मस्ती करेंगे, फिर से सड़कों पर तांडव करेंगे, थूकेंगे, मूतेंगे, पिछली तारीख से रुकी पड़ी घूस ब्याज सहित वसूलेंगे।
और यह भी तो हो सकता है कि अपराधों के लिए कुख्यात अपना प्रदेश फिर से अपना ऐश्वर्य प्राप्त करे। 2018 में यहाॅ 30 हजार के करीब मर्डर हुए थे, हर दो-तीन घंटे में एक बलात्कार होता है, एक हजार लोग सड़कों पर ही रोजाना बिछ जाते हैं।
खैर है कि लाॅकडाउन के चलते अभी यह पता नहीं चल रहा है कि ये जो रोजाना 5 साल से कम के 850 बच्चों के मरने और अपने जन्म के पहले ही हफ्ते में मौत के मुॅह में समाने का 73 प्रतिशत शिशुओं का काला रिकार्ड फिर लौटेगा? सहारनपुर से 200 किलोमीटर दूर हिमालय दिखने का जो सिलसिला प्रदूषण की मुक्ति से बना है, बरकरार रहेगा या बेरोजगारी, गरीबी, भूख फिर सहमने से मना करने लगेंगी?