माया खोयी, राम छूटे, तो पाया क्या मौर्या जी ?
चुनाव आया। दलबदल प्रक्रिया चालू हो गयी। मानों दोनों जुडवा हों ! घाघरा—चोली की मानिन्द। इतिहास देखें। पार्टी पलटने के एक माननीय विधायक हुए थे। आदि पुरुष थे। होडल (पलवल) हरियाणा के। इन्दिरा—कांग्रेस पार्टी में थे। नाम था श्री गया लाल। चौदह दिनों में तीन बार (1967) पार्टी बदली। सर्वप्रथम कांग्रेस (आई) के टिकट पर जीते। अगले सप्ताह जनता पार्टी में प्रविष्ट हुए। फिर मात्र नौ घंटे बाद घर (कांग्रेस) लौटे। तभी राव वीरेन्द्र सिंह ने चण्डीगढ़ मीडिया के समक्ष उन्हें पेश किया कि ”घर वापसी हो गयी।” घोषणा भी कर दी कि विधायक गयालाल जहां थे वहीं अडिग, अविचल है। सरकार भी बन गयी। मगर गयालाल के नाम में अनुलग्न जुड़ गया ‘आयाराम—गयाराम” वाला।
अर्थात गयालाल जी गयाराम से फिर आयाराम बन गये। यह घिनौनी सियासी मौकापरस्ती पनपती रही, जबतक राजीव गांधी (1985) ने दलबदलू अवरोधक कानून संसद में पारित नहीं कराया। तभी यह प्रक्रिया अवरुद्ध तो हुयी। मगर विधानसभा अध्यक्षों ने, जैसे भाजपा के पंडित केशरीनाथ त्रिपाठी ने, बसपा के दलबदलू विधायकों के बूते मुलायम सिंह की समाजवादी सरकार पनपाये रखा। सारा राजीववाला कानून एकदम ही बेमायने हो गया। यूपी में शासन में भाजपा और सपा का लाजवाब जोड़ा रहा। लाख यत्न किये, पर सतीश मिश्र थक गये। टस से मस नहीं कर पाये। अविस्मरणीय रिकॉर्ड बनाया हरियाणा के मुख्यमंत्री भजनलाल विश्नाई ने जब समूची जनता पार्टी विधायक दल को उन्होंने (1980) इन्दिरा—कांग्रेस में विलय करा दिया। सीएम बने रहे, केवल 47 विधायकों के साथ। रातों—रात सत्ता पलटी थी।
अब सुनिये स्वामी की कहानी। भाजपा में चार वर्ष दस महीने तक लाल बत्ती और वातानुकूलित हवेली का सुख भोग कर सत्तर—वर्षीय स्वामी प्रसाद मौर्य, पडुरौनावाले, ने कल (11 जनवरी 2022) अपनी चौथी पार्टी बदली। लोकदल से प्रारंभ किया था। मायावती के चरण छूकर बहुजन समाज से जुड़े। विधायक बने। फिर भाजपा में भर्ती हो गये। सौदा—सुलुफ में पुत्री को लोकसभा सदस्य बनवा दिया। इस दफा भाजपा से पुत्र के लिए टिकट मांगा। डबल लाभ चाहा। खुद भी, साथ में सुपुत्र भी। भाजपा ने नहीं माना। स्वामीजी रुठ गये। लाल टोपी की शरण में चले गये अब। हालांकि इस बार उनका पूर्वांचल से चुना जाना संदिग्ध है। पूर्व गृहराज्य मंत्री (मनमोहन सिंह के साथ) कुंवर रतनजीत प्रताप नारायण सिंह इस बार टक्कर दे सकते हैं।
जरा गौर करें। दल बदलुओं की बदौलत देश में सरकार बनाने बिगाड़ने का सिलसिला काफी लंबा रहा। भारतीय राजनीति में ‘दल-बदल’ बहुत प्रचलित है। इसे आसान भाषा में आप परिभाषित कर सकते हैं कि सांसद या विधायक द्वारा एक दल (अपनी पार्टी) छोड़कर दूसरे दल में शामिल होना। वे अपने राजनीतिक और निजी लाभ के लिए दल बदलते रहते हैं, इसलिए राजनीति में इन्हें ‘आया राम, गया राम’ कहा जाता है। दल-बदल की राजनीतिक घटनाओं और इससे जुडें कानूनों के बारे में जानें। द्वितीय आमचुनाव 1957 से 1967 तक की अवधि में 542 बार लोगों ( सांसद/विधायक) ने अपने दल बदले। फिर 1967 में चौथे आम चुनाव के प्रथम वर्ष में भारत में 430 बार सासंद/विधायक ने दल बदलने का रिकॉर्ड कायम हुआ है। तब 1967 के बाद एक और रिकॉर्ड कायम हुआ, जिसमें दल बदलुओं के कारण 16 महीने के भीतर 16 राज्यों की सरकारें गिर गईं। तथा 1979 में जनता पार्टी में दल-बदल के कारण चौधरी चरणसिंह प्रधानमंत्री पर आसीन हो गए थे। इसकी वजह से चरणसिंह को भारत का पहला ‘दल-बदलू प्रधानमंत्री’ कहा जाता है। बकौल राजनारायणजी ”चेयर सिंह।”
हर संसदीय दुर्गुण की तरह दलबदल का दोष भी ब्रिटिश संसद से ही दिल्ली आया। एक बार ब्रिटिश सांसद के पुत्र ने उसने पूछा : ”डिफेक्टर (दलबदलू) कौन होता है?” निहायत सुगमता से सांसद पिता ने जवाब दिया : ”जो हमारे दल में आता है, वह बड़ा राष्ट्रभक्त है। जो हमारी पार्टी छोड़कर जाता है वह देशद्रोही है।” राष्ट्रवाद की यह अनूठी परिभाषा थी। भारत में यह विधायी पद्धति वर्तमान ठाकरे सरकार के काफी पहले मुंबई में आ चुकी थी। वह दलबदल को ”पगड़ी फिरवाण” कहते है। लेकिन उसके आठ दशक पूर्व ब्रिटेन में यह प्रथा चल पड़ी थी। तब सर विंस्टन चर्चिल (यह भारतशत्रु) बाद में प्रधानमंत्री बना। घटना सन 1900 की है। चर्चिल लिबरल (उदार) पार्टी के टिकट से निर्वाचित होकर कंर्स्वेटिव दल में भर्ती हो गये थे। वह इंग्लैण्ड का प्रथम यादगार दलबदल था। एक दिन चर्चिल संसद भवन गये तो लिबरल पार्टी के आठ—दस सांसद कोट को पलट कर धारण किये थे। चर्चिल शरमा गये। बाहर निकल गये। आंग्ल भाषा का एक शब्द है ”टर्नकोट” जिसके मायने है ”दलबदलू”। संदेशा माकूल और प्रभावी था।
अब आयें कल (11 जनवरी 2022) के लखनऊ की घटना पर। भाजपा में चार वर्ष तथा दस माह तक लाल बत्ती तथा वातानुकूलित हवेली का सुख पिछड़ी जाति के स्वामी प्रसाद मौर्य ने भोगा। इस पडरौनावाले ने 180 डिग्री की पलटी मारी। भाजपा छोड़ गये। चौथी पार्टी खोज ली : समाजवादी दल। लोकदल से आगाज किया था। मायावती का चरण छूकर बहुजन समाजपार्टी में गये। फिर नीले से जाफरानी (गेरुआ) हो गये। हिन्दुत्व के प्रचारक बने। अब लाल टोपी पहनेंगे। बदरंगी हो जाये ?
हालांकि इस बार स्वामी प्रसाद मौये तिरंगे से हार सकते हैं। पूर्वांचल से चुना जाना दुश्वार है। कुर्मी (चनऊ) पुरोधा आरपीएन सिंह साहब की माता श्री भी चुनाव लड़ चुकीं हैं जोरदार ढंग से। अत: दलबदल करके भी मौर्य बाहर ही रह गये तो ? कहीं के भी नहीं रहेंगे? पुत्री भाजपा की सांसद है। पुत्र को भाजपा टिकट मना हो गया। सारा कुनबा ही लाभान्वित होना चाहता था। अत: घर गया। घाट भी छूटा। अब क्या?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)