देहरादून (गौरव ममगाईं)। 14 जनवरी को उत्तरायणी पर्व मनाया जाता है। यह दिन धार्मिक दृष्टि से तो पवित्र है ही, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में भी इस दिन का ऐतिहासिक महत्त्व है।
13 जनवरी 1921 का दिन था, स्थान था उत्तराखंड का बागेश्वर, जहां हजारों की संख्या में आंदोलनकारी एकत्र हुए थे और उन्होंने कई सदी से चली आ रही कुली-बेगार कुप्रथा के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। अंग्रेजी हुकूमत ने आंदोलनकारियों को चेतावनी दी कि यदि वे पीछे नहीं हटे तो लाठीचार्ज वा गोली चलाने का आदेश दिया जायेगा, लेकिन बागेश्वर के सरयू नदी के तट पर जुटे हजारों आंदोलनकारी निहत्थे डटे रहे और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बड़ा आंदोलन किया, जिसने ब्रिटिश हुकूमत को हिला दिया।
फिर आया 14 जनवरी का दिन, जब उत्तरायणी पर्व के दिन आंदोलनकारियों ने कुली-बेगार प्रथा के रजिस्टरों को सरयू नदी में बहा दिया। इसी के साथ उत्तराखंड से कुली-बेगार प्रथा समाप्त हो गई। भले ही देश को वास्तविक स्वतंत्रता 15 अगस्त 1947 को मिली हो, लेकिन उत्तराखंडवासियों को पहली आजादी कुली-बेगार के खत्म होने पर मिली थी। बता दें कि इस आंदोलन का नेतृत्व बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत ने किया था।
क्या है कुली-बेगार प्रथा ?
दरअसल, उत्तराखंड का इलाका पर्वतीय था। इस वजह से ब्रिटिश अधिकारियों को पर्वतीय क्षेत्रों में जाने पर सामान लाने व ले जाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था, क्योंकि उस समय वाहन या उपकरण सुविधा नहीं थी। इसलिए ब्रिटिश अधिकारी गांवों के प्रधानों को ग्रामीणों की सामान लाने व ले जाने के लिए कुली के रूप में ड्यूटी लगाने जिम्मेदारी देते थे। रजिस्टर में रोटेशन के आधार पर ग्रामीणों की ड्यूटी का रिकॉर्ड रखा जाता था। इस प्रथा को कुली-बेगार के नाम से जाना जाता है। इतना ही नहीं, शारीरिक शोषण के अलावा अंग्रेजों का ग्रामीणों के साथ व्यवहार भी बेहद खराब रहता था। उत्तराखंडवासी इस प्रथा को स्वाभिमान के खिलाफ मानते थे।
गांधी जी ने इसे ‘रक्तहीन क्रांति’ की संज्ञा दी थी, आंदोलन को मिली थी प्रेरणा
इस आंदोलन की सबसे खास बात ये थी कि इस आंदोलन में अंग्रेजों ने एक भी गोली नहीं चलायी, न ही लाठीचार्ज किया। उत्तराखंडवासियों की ताकत के सामने अंग्रेजी हुकूमत ने घुटने टेक दिये थे। जबकि, राष्ट्रीय स्तर के प्रदर्शनों में देखा गया है कि विरोध को कुचलने के लिए अंग्रेज बड़ा बल प्रयोग करते रहे हैं।
यही वजह रही कि महात्मा गांधी जी इस आंदोलन से बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी पुस्तक ‘यंग इंडिया’ में इस आंदोलन को ‘रक्तहीन क्रांति’ की संज्ञा दी। इस आंदोलन से भारतीयों को प्रेरणा मिली कि अंग्रेजी हुकूमत को झुकाया जा सकता है। इसके बाद गांधी जी ने भी देशव्यापी आंदोलन को तेज किया और गांधीवाद को अपनाने का आह्वान किया।