अरबों के अच्छे दिन कब ?
जब भारत द्वारा ”विभीषिका दिवस” पर विभाजन के त्रासद (14 अगस्त) को स्मरण करने की नरेन्द्र मोदी ने लाल किले से घोषणा करी थी तो उस पर मिश्रित प्रतिक्रिया हुयी थी। प्रधानमंत्री पर बिसरायी दर्दनाक घटना को ताजा करने का आरोप आयद हुआ था। आज फिलिस्तीन के मुसलमान ”नकबा” पर अफसोस और रोष व्यक्त करने की चर्चा करते है तो प्रतिक्रिया प्रतिकूल नहीं होगी। भले ही नकबा भी (आज ही 1947 में) फिलिस्तीन के विभाजनवाली विपदा है, त्रासदीपूर्ण है। किन्तु हम भारतीय पत्रकार इस वाकये पर इसलिये अवश्य दुखी हैं कि अमेरिकी अरब पत्रकार इक्यावन—वर्षीय शिरीन अबुअक्लेह (अल जजीरा रिपोर्टर) कल इस्राइली गोलीबारी में मारा गया। हमारी हमदर्दी शिरीन से है।
लेकिन नकबा वाले वार्षिक सार्वजनिक आयोजन पर भारत में तटस्थता बनी रहती है। इसका कारण है। स्वतंत्रता के कुछ माह बाद की बात है। पृथक इस्राइल राष्ट्र की मांग यहूदी दो हजार वर्षों से कर रहे थे। दुनिया भर में इन यहूदियों को रोमन सम्राट से लेकर एडोल्फ हिटलर तक सभी मारते रहे। अंतत: ब्रिटिश राज ने फिलिस्तीन का विभाजन कर अरब और यहूदी राष्ट्र स्थापित कर दिया। उसी समय धर्म के आधार पर भारत काटकर पाकिस्तान भी बना था। अरब मुसलमानों और इस्लामी राष्ट्रों के समूह ने भारत के विभाजन का हार्दिक स्वागत किया था। मगर इस्राइल के निर्माण का घोर विरोध किया था। वह दोहरी नीति, जो सरासर पक्षपाती और अनैतिक रही।
इस्राइल पर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने संविधान सभा में (4 दिसंबर 1947) पर कहा था कि : ”भारत बेघर हुए फिलिस्तीनियों से सहानुभूति रखता है।” हालांकि कश्मीर पर यही अरब राष्ट्र इस्लामी पाकिस्तान के साथ रहे। भला हो कांग्रेसी प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव का जिन्होंने 1992 में इस्राइल में भारतीय दूतावास स्थापित किया था। इसके बाद इस्राइल ने बोफोर्स तोप के लिये कारतूस दिये थे, जिनका उपयोग बाद में कारगिल युद्ध में किया गया था। किन्तु शुरुआती वर्षों में भारत की अरब नीति पक्षपातपूर्ण रही। भारत के मुस्लिम वोट बैंक के दबाव में केन्द्रीय सरकारें खुलकर इस्राइल का साथ नैतिक आधार पर नहीं दे पायीं। इस पर ब्राजिलियन चिंतक पाउलो फरेरी ने उचित ही कहा था: ”निर्बल तथा बलवान के संघर्ष में जो तटस्थ रहता है, मतलब यही है कि है वह ताकतवर का साथ दे रहा है।” भारत अरब मुसलमानों का साथ देता रहा था। यहूदी अलग—थलग पड़ गये थे। यही हुआ था जब नागरिक उड्डयन मंत्री गुलाम नबी आजाद ने अंतिम क्षणों में भारत तथा इस्राइल वायुयान सेवा समझौते पर हस्ताक्षर करने से आनाकानी कर दी। वोट बैंक का दबाव!
भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो ने कुछ वर्षों पूर्व कहा था नरेन्द्र मोदी की इस्राइली यात्रा (4 जुलाई 2017) से भारत के अरब देशों से रिश्ते बिगड़ जायेंगे। माकपा ने कहा कि मोदी भूल गये कि अरब राज्य फिलिस्तीन पर आज भी इस्राईल का अवैध कब्जा है। आखिर भारत पश्चिम एशिया के इस कलह में कोई पक्षधर क्यों हो ? नेहरू से विश्वनाथ प्रताप सिंह तक सभी प्रधानमंत्री फिलिस्तीन मुसलमानों के झण्डाबरदार रहे। इस्रईल का विरोध करते रहे। भारतीय चुनावी सियासत का भी उन पर भारी दबाव था। राय भी आई थी कि जब हमास आतंकवादियों पर इस्राइली बम वर्षा हुयी थी तो यह एक मिसाल है भारत हेतु कि कश्मीर में पाकिस्तानी आतंकी शिविरों पर भारत को बमबारी करनी चाहिये। नेहरु से मनमोहन सिंह सरकार तक सभी हिचकती रहीं। मगर नरेन्द्र मोदी ने पुलवामा का सही बदला लिया। यह इस्रायली स्टाइल थी।
याद कर लें अरब दबाव को (मक्का मदीना के संदर्भ में)। भारत दशकों तक फिलिस्तीनी आंतकवादियों का हमराह रहा यह जानते हुए भी कि वे पाकिस्तान का विरोध कभी नहीं करेंगे। इसका उदाहरण था कि जब 1978 में इस्राइली रक्षामंत्री मोशे दयान भारत आये थे तो प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई तथा विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सूरज ढले सिरी फोर्ट के अंधियारे में उनसे भेंट करने गये थे। मोरारजी देसाई ने बाद में खुद कहा कि यदि जान जाते तो, उनकी जनता पार्टी के कथित अरब हमदर्द उनकी सरकार गिरा देते। इतना खौफ था।
इंदिरा गांधी ने तो हद कर दी थी। आतंकवादी, हाइजाक—माहिर यासर अराफात को एयर इंडिया का पूरा जहाज उनकी निजी टैक्सी की भांति उपयोग हेतु दान कर दिया था। पेट्रोल का खर्च मिलाकर। इन्हीं कारणों से नरेन्द्र मोदी की श्लाधा होती है कि वे प्रथम प्रधानमंत्री है जो इस्राइल गये। रक्षा—संबंधी संधि की। अरब देश समझ गये कि अब भारत का वोट बैंक के नाम पर भयादोहन मुमकिन नहीं है।
मगर इस नकबा दिवस पर भारत को सोचना चाहिये। कुछ सीमा तक उसका औचित्य है। इतिहास के अन्यायों को खत्म करना होगा। जिस तरह अरब मुसलमानों का घरबार, जमीन छीन कर यहूदियों को बसाया गया है, वैसा ही ठीक सिंध और पंजाब से खदेड़े गये हिन्दुओं के साथ हुये अन्याय जैसा ही है। इन अरब त्रस्तजन को इंसाफ मिलने का पक्षधर भारत को होना चाहिये। अर्थात नकबा पर भारत को सहानुभूति से मनन करना चाहिये। भारतीय इतिहास पर यही नियम लागू होता है। अर्थात कैसी अनर्गल बात है कि अब शिवभक्तों को साबित करना होगा कि औरंगजेब पहले पैदा हुआ था या विश्वनाथ भगवान, जो अजन्मे हैं। ज्ञानवापी मंदिर के तहखाने की खोज से उपलब्ध साक्ष्यों से तय होगा कि यह सनातनियों का युगों पुराना आस्था स्थल था या लुटेरे आलमगीर औरंगजेब की जायदाद। इसी न्यायसंगत तर्क के आधार पर अरब के मुस्लिम वंचितों को न्याय मिलना चाहिये। वोट के खातिर नहीं। हाथ उठाकर नहीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)