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कोरोना पैकेज में कहां खड़े है वास्तविक जरूरतमंद…!

डॉ अजय खेमरिया

स्तम्भ:  आधार एवं डिजीटल प्लेटफार्म पर सभी सरकारी योजना और हितग्राहियों को समेकित करने के काम ने निसन्देह सरकारी सब्सिडी के लीकेज को रोकने का काम किया है लेकिन इस तकनीकी परस्त नवाचार ने कोरोना महामारी के समय देश के करोड़ों गरीबों के सामने एक बड़ा परिस्थितिजन्य संकट खड़ा कर दिया है। 8 लाख 8हजार 946 परिवारों के 31लाख81हजार925 सदस्य मप्र में लॉक डाउन के चलते भुखमरी के कगार पर है।इनके पास बीपीएल के राशन कार्ड भी है लेकिन सरकारी राशन हासिल करने की पात्रता से वे बाहर है ,क्योंकि डिजीटल सिस्टम पर आधारित मप्र की सार्वजनिक वितरण प्रणाली मे इन परिवारों के फूड कूपन ऑनलाइन जारी नही हो रहे है।

कुछ परिवारों के मुखिया संसार छोड़ गए और अब पीडीएस की दुकान पर लगी बायोमेट्रिक मशीन पर अँगूठा लगाने वाला कोई नही है।गरीबी की सभी 25 अहर्ताओं को पूरा करने वाले ये लाखों लोग सोशल डिस्टेंसिग को धता बताकर रोटी की गुहार लेकर अफसरों के द्वार पर खड़े है।करीब 2 करोड़ से अधिक जन धन खातों में कोरोना मद के 500 रुपए इसलिए नही आ पा रहे क्योंकि बैंक खातों में आधार अपडेट नही है।ऐसे बीसियों मामले कोरोना की गृहबन्दी के भीतर धधक रहे है।देश भर के 40 करोड़ लोगों की ऐसी समस्याओं की तरफ आवाज 24 घण्टे की ब्रेकिंग खबरों में जगह नही पा रहीं है।

मन्दिर,मस्जिद,जमात,ट्रम्प,और लाट साहबों के 30 हजारी महादान की अंतहीन चर्चाओं के बीच गृह बन्दी की ऐसी करुण कथाएं न्यूज चैनल्स के लिए उपयोगी नही है क्योंकि वे सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए मुँह छिपाने के लिए विवश करतीं है। केंद्र सरकार ने 1.70लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की है।किसान,मजदूर,महिला,दिव्यांग,वर्ग के लिए प्रावधान किए है । इन वित्तीय प्रावधानों की पहुँच वास्तविक जरूरतमंद तक कैसे और त्वरित गति से हो इस दिशा में सरकार ने अपने अक्षम और परम्परावादी मैदानी प्रशासन के नजरिये से विचार नही किया।

कुछ निर्णय मैदानी प्रशासन की करुणा पर भी निर्भर है बशर्ते सामयिक विवेक का प्रयोग किया जाये।मसलन 500 रुपए जिन महिलाओं के जनधन खातों में पीएम फंड से जारी किए गए है उनमें आधार के अपडेटेशन के नियम को शिथिल करने के आदेश कलेक्टरों की सिफारिश पर राज्य स्तरीय बैंकर्स कमेटी को सरकारें कर सकती है।जीरो बैलेंस पर आखिर ये सभी खाते है तो वास्तविक गरीबों के ही।बेहतर होगा आधार के अभाव में इस राशि को रोका न जाये।इसी तरह प्रधानमंत्री ने सभी किसानों को सम्मान निधि के दायरे में लाने की घोषणा की थी।देश मे अभी14.5करोड़ पंजीकृत किसान है।इनमें से केवल 8.6किसान ही इस योजना के मानक दायरे में है।शेष 6 करोड़ किसानों के प्राथमिक पंजीयन के आधार पर ही 2000रुपये की पहली किश्त जारी कुछ मरहम लगाई जा सकती है।सुप्रीम कोर्ट भी आधार की अनिवार्यता को खारिज कर चुका है।ऐसे में हर सरकारी मदद के लिए आधार को सख्ती से पकड़कर बैठ जाना सरकार और अफसरशाही की संवेदनशीलता को कटघरे में लाने का काम कर रहा है।

सवाल यह है कि जब सरकार के निर्देश पर करोड़ों गरीब गृह बन्दी को अनुपालित कर रहे है।पीएम के आह्वान पर थाली पीटने,दीप जलाने के लिए तय समय पर खड़े रहते है तब सरकार का यह दायित्व नही बनता की वह भी अपने वास्तविक जरूरतमंद नागरिकों की पीड़ा को सरकारी मकड़जाल के परे जाकर निराकृत करने की उदारता दिखाए।बुनियादी सवाल यह भी है कि दस बीस किलो अनाज या पांच सौ रुपये की मदद कोई तिजोरी में रखे जाने के समान तो है नही,फिर इसके लिए नियमों की यह अजगरफ़ान्स किसलिए?कई राज्य सरकारों ने अपने मद से मजदूरों के खातों में एक हजार से पांच हजार की राशि डालने की घोषणा की।यह राशि मूलतः मजदूरों के पसीने से ही जमा होती है।सरकारें निर्माण श्रमिकों के कल्याण के लिए ठेकेदारों के देयकों से एक प्रतिशत उपकर काटकर ही भुगतान करती हैं। यह राशि सन्ननिर्माण कर्मकार कल्याण कोष में जमा रहती है।अरबों रुपए के इस जमा मद से छात्रवृत्ति,श्रम विधालय जैसे प्रकल्प चलाए जाते है।बीते कुछ समय से सभी सरकारों ने डिजीटल प्लेटफॉर्म पर मजदूरों को एकीकृत करने के लिए आधार आधारित एप्प तैयार किये है।कोरोना सहायता राशि इसी मद से जारी की है लेकिन बायोमेट्रिक मिलान और आधार दुरुस्ती ने मजदूरों के लिए यहां भी मुश्किलें खड़ी कर दी है।बैंकों में लाइने लगी है लेकिन बड़ी संख्या में निराश होकर लोग लौट रहे है वजह डिजीटल मिलान न हो पाना।

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केंद्र सरकार द्वारा सुगम्य भारत योजना में दिव्यांगजनों के लिए यूनिक आइडेंटिटी कार्ड बनाने की प्रक्रिया ने भी ऐसा ही संकट खड़ा कर रखा है।
असल में भारत की प्रशासनिक मशीनरी यथास्थितिवाद और जड़ता पर अकाट्य रूप से अबलंबित है।यही कारण है कि लोककल्याण से जुड़ी अधिकतर योजनाएं परिणामोन्मुखी नही हो पाती है। कोरोना जैसी आपदा अभूतपूर्व है लेकिन सरकारी तंत्र इस संकट को भी परम्परागत तौर तरीकों से निबटने में लगा है।अनुभव बताता है कि मुख्यमंत्री या पीएम राहत कोष को जिला स्तर पर संचालित किया जाने की जरूरत है । आम दानदाता तत्काल मदद के मन्तव्य से दान देते है जबकि सरकारी सिस्टम इतना जटिल है कि यह जरूरतमंद तक समय पर दान की मदद पहुँचा ही नही पाता। मसलन चादर या पलँग खरीदे जाने है तो पहले कलेक्टर अस्पताल से मांग पत्र लेंगे फिर कलेक्टर इस आशय के पत्र शासन को भेजेंगे शासन धनखर्ची के लिए मार्गदर्शी नियम बनाएगा।वित्त विभाग स्वीकृति देगा।जिलों को धन जारी होगा फिर भंडार क्रय नियमों के अनुरूप टेंडर/जेम पोर्टल प्रक्रिया होगी।वेंडर सप्लाई करेगा।कलेक्टर सबन्धित विभाग को मदद के लिए नोडल निर्धारित करेगा।इस पूरी प्रक्रिया को कागज,नोट शीट,आर्डर, पर ही दौड़ना पड़ता है।बाढ़, भूकम्प,या अन्य आपदा पर सहायता का फिलहाल यही मेकेनिज्म है।

सरकारी सिस्टम की कार्यप्रणाली में किस हद तक यथास्थितिवाद है इसकी नजीर एमपी एमएलए फंड के साथ समझी जा सकती है।लगभग सभी सांसद विधायक कोरोना मदद के नाम पर लाखों करोड़ों की राशि स्थानीय अस्पतालों को मास्क,सेनिटाइजर, वेंटिलेटर और दूसरी एसेसरीज के लिए जारी कर चुके है। आज तक किसी कलेक्टर ने इस राशि के कार्यादेश जारी नही किये है जबकि आबंटन पत्रों में साफ लिखा है कि राशि किस मद में व्यय की जानी है।जब इस राशि का उपयोग होगा तब शायद इन वस्तुओं की सामयिक उपयोगिता एक चौथाई भी न रहे। सरकार को चाहिए कि इस संकट की घड़ी में डिजिटल वेरिफिकेशन की पात्रता और दुरूह कार्य पद्धत्ति को शिथिल कर दे। प्रधानमंत्री और सभी मुख्यमंत्री एक कार्यबल ऐसा भी बनाएं जो सरकारी सहायता के सभी प्रकल्पों का जमीनी मूल्यांकन के साथ सरकारी सिस्टम को मानवीय बनाने में लगातार सरकार को परामर्श देता रहे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)

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