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‘INDIA’ का ‘मायाजाल’ : किधर जाएंगी मायावती!

संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश में आइएनडीआइए गठबंधन की राह आसान नहीं लग रही है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस गठबंधन से दूरी बना रखी है तो समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव गठबंधन के अन्य हिस्सेदारों कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल के साथ जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि आइएनडीआइए जिसे भारतीय जनता पार्टी के लोग ‘घमंडिया’ गठबंधन कहते हैं,अपने नेताओं के घमंड के कारण बिखर भी सकता है क्योंकि एक तरफ राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण कांग्रेस पूरे देश के साथ-साथ यूपी में भी गठबंधन को लीड करना चाहती है, वहीं सपा प्रमुख अहंकारभरे लहजे में कह रहे हैं कि सपा, गठबंधन में सीटें मांग नहीं रही है, बल्कि दे रही है। हाल यह है कि गठबंधन के नाम पर समाजवादी पार्टी मध्य प्रदेश से लेकर राजस्थान और छत्तीसगढ़ तक में अपनी दावेदारी पेश कर रही है तो दूसरी ओर यूपी में गठबंधन सहयोगियों के लिए सीट छोड़ने के मामले में ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ वाली कहावत चरितार्थ कर रही है। हालात यह हैं कि जिस तरह से आइएनडीआइए गठबंधन में शामिल राजनैतिक दल सीटों के लिए दावेदारी कर रहे हैं, उसका हिसाब लगाया जाता तो यूपी में 80 की जगह सौ-सवा सौ सीटें भी कर दी जाएं तो भी गठबंधन दलों में सीट बंटवारे की लड़ाई थमेगी नहीं। राजनीति के जानकार कहते हैं कि गठबंधन का सारा ध्यान इस ओर लगा है कि कैसे अधिक से अधिक सीटों पर दावेदारी पेश की जा सके, जबकि होना यह चाहिए था कि सीटों के बंटवारे से अधिक गठबंधन को मजबूती प्रदान करने के बारे में सोचा जाए। कैसे बसपा को भी गठबंधन का हिस्सा बनाया जा सके, लेकिन इस मामले में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच दूरियां काफी बढ़ी हुई हैं। कांग्रेस किसी भी तरह से बसपा को गठबंधन में शामिल करना चाहती है, लेकिन समाजवादी पार्टी इसमें कोई रुचि नहीं ले रही है।

बहरहाल, बसपा सुप्रीमो मायावती किसी भी पार्टी के साथ हाथ मिलाने को तैयार नहीं हैं जिसके चलते राजनीति के गलियारों में हड़कम्प मचा हुआ है। वैसे तो पिछले दो दशकों में बसपा लगातार कमजोर हुई है, लेकिन अभी भी उसके पास 14 फीसदी दलित वोट बैंक मौजूद है। इसी के चलते बसपा से सब हाथ मिलाना चाहते हैं, तो मायावती को भी अपनी इस ताकत पर गुमान है, जिसके चलते वह फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ा रही हैं, तो बसपा से हाथ मिलाने को इच्छुक नजर आ रहा एनडीए और आईएनडीआईए गठबंधन भी कुछ बोलने को तैयार नहीं है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि दोनों गठबंधन के नेताओं ने हार मान ली हो। सूत्र बताते हैं कि गुपचुप तरीके से मायावती को अपने खेमे में लाने के लिए दोनों गठबंधन दलों के आकाओं द्वारा लखनऊ से लेकर दिल्ली तक में साथ जोड़ने की कोशिश की जा रही है।

बताते हैं कि लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती के भाजपा और कांग्रेस गठबंधन से दूरी बनाकर चलने के चलते आईएनडीआईए गठबंधन को यूपी में लोकसभा की 80 सीटों पर करारा झटका लग सकता है। ऐसे में आईएनडीआईए एक बार फिर मायावती पर डोरे डालने में लग गया है। बसपा नेत्री मायावती से गुपचुप तरीके से बातचीत की जा रही है क्योंकि चुनाव जीतने के लिए इंडिया गठबंधन यूपी में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता है। बताते चलें बसपा के बिना सपा-कांग्रेस एक साथ मिलकर 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ के देख चुके हैं जिसका कोई फायदा इन दोनों दलों को नहीं हुआ था, इसीलिए अबकी से मायावती को भी जोड़ने की कोशिश की जा रही है। बसपा को साथ लाने की कोशिश में यूपी के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस और बसपा के शीर्ष नेताओं के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ था। अभी तक यह बातचीत अपने मुकाम तक तो नहीं पहुंच सकी थी, लेकिन तब से दोनों के बीच संवाद बना हुआ है। इसमें गांधी परिवार और उसके करीबी शामिल हैं। राजनीतिक सूत्रों के मुताबिक पिछले महीने कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी और बसपा सुप्रीमो मायावती के बीच गठबंधन को लेकर गुप्त रूप से चर्चा भी हो चुकी है। बसपा की ओर से उसके एक पूर्व सांसद की भी इस बातचीत में अहम भूमिका है।

गौरतलब हो, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले बसपा-कांग्रेस की गठबंधन की कोशिशें परवान नहीं चढ़ पाई थी। तब तय हुआ था कि विधानसभा की 125 सीटों पर कांग्रेस और शेष 278 सीटों पर बसपा लड़ेगी। खबरें लीक हुई और फिर सत्ता पक्ष की ओर से ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गईं कि दोनों ही दलों को कदम पीछे खींचने पड़े। चुनाव के बाद राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से कहा भी था कि हम बसपा को आगे रखकर यूपी में विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते थे, पर वह तैयार नहीं हुई। इस बार लोकसभा चुनाव के ऐन पहले ही आधिकारिक रूप से घोषणा करने की रणनीति है। दूसरी तरफ कहा यह भी जा रहा है कि क्या आईएनडीआई गठबंधन में बसपा के आने से सपा सहज रहेगी, इसका जबाव मुश्किल है, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व, यूपी में बसपा को साथ लाने में ज्यादा रुचि ले रहा है। इसकी वजह है कि बसपा के पास अभी भी 14 फीसदी दलित वोट बैंक है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय का बागेश्वर (उत्तराखंड) विधानसभा सीट को लेकर सपा के खिलाफ दिया गया बयान भी इसी कवायद से जोड़कर देखा जा रहा है।

बताया जा रहा है कि अजय राय ने यह बयान हाईकमान से इशारा मिलने के बाद ही दिया था। संभावना जताई जा रही है कि जैसे-जैसे कांग्रेस की बसपा के साथ बात आगे बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे इस तरह के और बयान भी आ सकते हैं। गांधी परिवार के नजदीकी नेता के मुताबिक वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के साथ कांग्रेस के अनुभव अच्छे नहीं रहे। उस चुनाव में कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने की बात सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव लगातार कहते रहे, लेकिन 145 सीट देने के वादे के बावजूद कांग्रेस को 105 सीटें दी गईं। इसमें से करीब 10 सीटों पर सपा ने अपने प्रत्याशी को पंजे पर चुनाव लड़वाया था। खैर, जिस तरह से आईएनडीआईए गठबंधन में बसपा को लाने की कोशिश की जा रही है, उससे बसपा अपर हैंड में नजर आ रही है। बसपा यदि कांग्रेस-सपा गठबंधन के साथ चुनाव लड़ती है तो वह अपनी मर्जी वाली सीटों पर चुनाव लड़ेगी और ऐसी सीटों की संख्या भी अधिक होगी। बसपा 20 से 25 सीटों तक के लिए अपनी दावेदारी पेश कर सकती है। बसपा की दावेदारी को ना करना सपा, कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा। अगर वह बसपा को उसकी इच्छा के अनुसार सीट नहीं देती है तो बसपा के बगैर चुनाव लड़ने पर सपा-कांग्रेस गठबंधन को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। वहीं बसपा यदि भाजपा के साथ चली गई तो आईएएनडीआई के लिए लड़ाई और भी मुश्किल हो सकती है।

बात बसपा के कोर वोटर की बात की जाए तो यूपी में दलित वोटरों की संख्या आज की स्थिति में लगभग 3 करोड़ है। मूल रूप से बीएसपी के कोर वोटर के तौर पर माने जाने वाले ये मतदाता धीरे-धीरे कर खिसकते जा रहे हैं। पिछले दिनों घोसी में हुए उपचुनाव में बीएसपी ने अपना प्रत्याशी नहीं उतारा था। हालांकि, बीएसपी ने नोटा दबाने की अपील की थी लेकिन पार्टी का वोट दूसरी जगह शिफ्ट हुआ जिसके बाद सपा के प्रत्याशी सुधाकर्र ंसह की जीत हुई, लेकिन अब बसपा सतर्क हो गई है और आने वाले चुनाव को लेकर अभी से तैयारी में जुट गई है।अब बीएसपी अलग-अलग क्षेत्र में कैडर कैंप का आयोजन कर रही है। इसके जरिए वह सर्वसमाज के फॉर्मूले पर फोकस करना चाहती है। इस फॉर्मूले के तहत बसपा आर्थिक रूप से कमजोर तबके को जोड़ने की कोशिश कर रही है। इसी कड़ी में पदाधिकारियों को लक्ष्य दिए जा रहे हैं। बीएसपी के गांव चलो अभियान में इस वर्ग पर विशेष ध्यान रखा जाएगा। पार्टी हर विधानसभा क्षेत्र के लिए अलग-अलग योजना बना रही है। बीएसपी इस वक्त कैडर कैंप के जरिए दलित बस्तियों में भी कैंप कर रही है। इसके साथ ही हर विधानसभा क्षेत्र के लिए अलग से कार्य योजना भी बना रही है। इसी कैंप के तहत बसपा युवाओं और महिलाओं को जोड़ने के साथ-साथ गरीब सवर्णों पर भी फोकस कर रही है ताकि लोकसभा चुनाव उनके हक में हो जाए। वहीं राजनीति के जानकार कहते हैं कि मायावती चाहें कुछ भी कहें लेकिन बसपा के लिए लोकसभा का चुनाव आसान नहीं होगा क्योंकि बदलते वक्त के साथ कहीं न कहीं मायावती से कोर वोटर छिटक गए हैं। मायावती की राजनीति में पकड़ कमजोर हुई है, जहां मायावती के विधानसभा में सिर्फ एक विधायक है, वहीं दूसरी और लोकसभा में केवल 10 सांसद ही बसपा के हैं। ऐसे में अब देखना होगा कि आने वाले वक्त में क्या मायावती और बसपा कोई कमाल कर पाती है या नहीं? क्योंकि इस लोकसभा चुनाव मायावती अकेले लड़ना चाहती हैं।

लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर मायावती ने गत दिनों बसपा नेताओं के साथ लखनऊ में अहम बैठक की। इस दौरान उन्होंने कहा कि बसपा को यूपी में गठबंधन करके लाभ के बजाए नुकसान ज्यादा उठाना पड़ा है। गठबंधन करने पर बसपा का वोट स्पष्ट रूप से सहयोगी पार्टी के पक्ष में ट्रांसफर हो जाता है, लेकिन सहयोगी पार्टियां अपना वोट बसपा उम्मीदवारों को ट्रांसफर नहीं करा पाते हैं। पहले भी गठबंधन करके बसपा ने चुनाव लड़ा था, लेकिन उन चुनावों के अनुभव ठीक नहीं रहे, लिहाजा पार्टी अकेले दम पर लड़ेगी। मायावती ने यह बात पहली बार नहीं की है, बल्कि यह पांचवीं बार दोहराया है। यदि यह एक सच्चाई है तो इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि मायावती भले ही यह बात कह रही हों कि गठबंधन का सियासी लाभ बसपा को नहीं मिलता है, लेकिन चुनावी आंकड़े बता रहे हैं कि गठबंधन की सियासत बसपा के लिए हमेशा मुफीद रही है।

बसपा ने तीन बार उत्तर प्रदेश में अलग-अलग दलों के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरी, जिसमें उसे हर बार लाभ ही नहीं बल्कि सूबे में सत्ता की बुलंदी तक पहुंचाया। इसके अलावा यूपी से बाहर बसपा ने पंजाब से छत्तीसगढ़ तक गठबंधन कर चुनाव लड़ी तो राजनीतिक फायदा मिला है। कुछ पुराने आकड़ों पर नजर डाली जाए तो बसपा ने यूपी में 1993 में पहली बार सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा। सपा ने 256 सीटों पर चुनाव लड़कर 109 पर जीत दर्ज की तो बसपा 164 सीट पर लड़कर 67 सीटें जीतने में सफल रही थी। इस तरह बसपा 12 सीटों से 67 सीटों पर पहुंच गई। बसपा ने 1996 में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनावी मैदान में उतरी थी। बसपा ने 300 सीटों पर लड़कर 66 सीटें जीती तो कांग्रेस ने 125 सीटों पर लड़कर 33 सीटें हासिल की थी। इस चुनाव में बसपा की सीटें तो नहीं बढ़ी, लेकिन वोट फीसदी में जरूर इजाफा हुआ था। बसपा ने यूपी में तीसरी बार 2019 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन किया। बसपा ने सपा-आरएलडी के साथ चुनावी मैदान में उतरी। बसपा के 10 सांसद जीतने में कामयाब रहे थे। 2014 में बसपा अकेले चुनावी मैदान में उतरी और एक भी सीट नहीं जीत सकी, 2019 में गठबंधन कर चुनाव लड़ने का फायदा मिला।

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