सैफई : मुलायम सिंह यादव के निधन के साथ ही लोकसभा में सैफई परिवार का कोई भी सदस्य नहीं रह गया है। परिवार की खास सीट रही मैनपुरी में अब 6 महीने के भीतर उपचुनाव होना है और यह अखिलेश यादव की पहली सियासी परीक्षा भी होगी। मुलायम के बिना वह रणनीतिक रूप से कितने कुशल हैं, कैसे परिवार को साधते हैं और कैसे पार्टी को, यह सीट के चुनाव से पता चलेगा। नेताजी ने मैनपुरी सीट से 1996, 2004, 2009, 2014 और 2019 में यहां से जीत हासिल की थी। खुद अखिलेश यादव भी इसी भावना को ध्यान में रखते हुए मैनपुरी की करहल विधानसभा सीट से चुनाव लड़े थे और फिर आजमगढ़ की लोकसभा सीट छोड़ दी थी।
ऐसे में इस सीट पर जीत हासिल कर अखिलेश यादव पिता के गर्व को बनाए रखना चाहेंगे ताकि 2024 के लिए तैयारी पुख्ता की जा सके। लेकिन इस राह में उन्हें पहली लड़ाई परिवार के भीतर ही लड़नी होगी। 2019 में ही शिवपाल यादव भी इस सीट से लड़ना चाहते थे, लेकिन मौका नहीं मिला था। अब चर्चा है कि एकता के नाम पर अखिलेश यादव से वह एक बार फिर मैनपुरी की सीट पर दावेदारी कर सकते हैं। हालांकि इसके आसार कम ही हैं कि अखिलेश यादव मैनपुरी जैसे गढ़ को चाचा के हवाले करेंगे। इसकी बजाय वह परिवार के ही किसी भरोसेमंद को उतार सकते हैं। ऐसे में धर्मेंद्र यादव और तेज प्रताप यादव का नाम रेस में बताया जा रहा है।
समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच धर्मेंद्र यादव की छवि एक मेहनती नेता और सबके संपर्क में रहने वाले शख्स की है। इसके अलावा धर्मेंद्र यादव पहले मैनपुरी का प्रतिनिधित्व भी कर चुके हैं। 2004 में मुलायम सिंह यादव के सीट छोड़ने के बाद धर्मेंद्र यादव यहां से चुने गए थे। ऐसे में उनकी अपनी पैठ भी इस इलाके में है। यही नहीं अखिलेश यादव से भी उनके अच्छे संबंध हैं। यही नहीं धर्मेंद्र यादव बदायूं से भी सांसद रह चुके हैं। यदि उन्हें यहां से मौका नहीं मिलता तो वह 2024 में बदायूं को लेकर दावा ठोक सकते हैं और मैनपुरी में जिसे इस बार मौका मिलेगा, शायद वही चुनाव लड़े।
बदायूं से स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी संघमित्रा मौर्य सांसद हैं, जो अभी भाजपा से हैं। लेकिन अगले चुनाव में सपा में जाना तय माना जा रहा है। सूत्रों का कहना है कि स्वामी की बेटी को मौका देने के लिए सपा धर्मेंद्र यादव को मैनपुरी में ही उतारना चाहेगी। इस तरह अखिलेश यादव की कोशिश होगी कि धर्मेंद्र यादव को मैनपुरी से उतारकर परिवार, पार्टी और स्वामी प्रसाद के साथ समीकरणों को साधे रखा जाए। धर्मेंद्र यादव पर अखिलेश के भरोसे को इससे भी समझा जा सकता है कि आजमगढ़ से भी अखिलेश ने उन्हें ही मौका दिया था, जहां से वह खुद सांसद थे। हालांकि वह जीत नहीं पाए।