क्या अब मंदिर राजनीति नया मोड़ लेगी
प्रसंगवश
अगस्त की 5 तारीख मंदिर आंदोलन के लम्बे संघर्षों की क्या चरम परिणति है? तो क्या अब मंदिर से जुड़े मामले राजनीति को नई दिशा देंगेे? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भूमि पूजन के समय मंदिर आंदोलन का उन्मादी नारा ”जय श्रीराम मंच से नहीं लगाया और उसके स्थान पर बार बार ”जय सियाराम का उद्घोष किया। ”
जय श्रीराम का नारा नब्बे के दशक से संघ परिवार के मंदिर आंदोलन का जीवंत व जुझारू नारा था। तो क्या अब यह मान लेना चाहिए कि मोदी जी अब इस जुझारूपन की आवश्यकता नहीं समझते और चाहते हैं कि 15 अगस्त की तरह सब मिलजुल कर 5 अगस्त को भी एक पावन दिवस की तरह मनाएं। उन्होंने कहा भी कि ‘जिस तरह स्वतंत्रता की भावना का प्रतीक 15 अगस्त का दिन है, उसी तरह कई पीढिय़ों के अखण्ड और एकनिष्ठ प्रयासों का प्रतीक पॉच अगस्त का दिन है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी पर्याप्त संकेत दिए। उन्होंने कहा कि राम समय के साथ बढऩा सिखाते हैं। वे परिवर्तन और आधुनिकता के पक्षधर हैं। उन्हीं के आदर्षों के साथ भारत आगे बढ़ रहा है।
विपक्ष और खासकर कांग्रेस ने जो प्रतिक्रियाएं दी हैं, वे मंदिर निर्माण और उससे जुड़े भूमि पूजन की पक्षधर रहीं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस नेता प्रियंका गॉधी दोनों ने लगभग एक जैसी बात कही है। श्रीमती गॉधी ने दो दिन पहले एक लम्बे बयान में कहा था ‘राम सब में हैं, राम सबके साथ हैं। भूमिपूजन का कार्यक्रम राष्ट्रीय एकता, बंधुत्व और सांस्कृतिक समागम का अवसर बने। प्रधानमंत्री ने 5 अगस्त को भूमि पूजन के बाद कहा ‘राम हमारे मन में बसे हैं, हमारी संस्कृति का आधार हैं। राम मंदिर हमारी शाश्वत संस्कृति, राष्ट्रीय एकता और सामूहिक संकल्प शक्ति का प्रतीक बनेगा।
तो भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस एक ही पन्ने पर हैं, एक ही धरातल पर हैं। मंदिर के लम्बे संघर्षों, आपसी टकरावों, सत्ता व विपक्ष के कटु मुकाबलों और ऐतिहासिक झंझावातों के बाद यह पहला अवसर है जब देश के दो सर्व प्रमुख दलों के बीच उस मुद्दे पर वैचारिक समानता बन रही है, जिसने गोलियॉ चलवाई हैं, राजनतिक व धार्मिक वैमनस्यता चरम पर पहुॅचाई है, दंगे कराए हैं और चुनाव हराए व जिताए हैं। इसे तमाम विश्लेषक भविष्य की राजनीति के लिए बहुत बड़ा शुभ संकेत मान रहे हैं, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
फिर एक और बड़ी राहत भी समूचे देश को मिल सकती है, वह है भाजपा के चिर शाश्वत काशी व मथुरा के विवादित मुद्दे को संघ परिवार द्वारा तिलांजलि। सर संघ चालक मोहन भागवत ने पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद कहा था कि उनका संगठन अब काशी व मथुरा मुद्दे नहीं उठाएगी।
वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने नवम्बर 2019 में जो फैसला दिया था, उसमें साफ कर दिया था कि यह सरकार की कानूनी ड्यूटी होगी कि वह पूजास्थल /विशेष प्रावधान/ यानी प्लेसिज ऑफ वॉरशिप /स्पेशल प्रोविजंस/ एक्ट 1991के तहत पूजा स्थलों की और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करे जो हमारे संविधान का मूल ढॉचा है। इस एक्ट की धारा 5 के अंतर्गत अयोध्या विवाद को उसके प्रावधानों से अलग रखा गया है। वैसे भी भारतीय जनता पार्टी 1996 से ही, जबकि वह केन्द्र में सत्ता में थी, इन दोनों मुद्दों को अपने चुनाव घोषणापत्रों में शामिल नहीं कर रही है। और काशी में तो मंदिर के जीर्णोद्धार का काम पहले से ही बहुत जोरशोर से चल रहा है।
अयोध्या में 5 अगस्त को दिए गए मुख्य भाषणों के मूल तत्व और संघ परिवार द्वारा काशी व मथुरा से अलग बने रहना क्या इस बात का संकेत है कि भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी की चिर-साध्य इच्छा पूरी होगी। उन्होंने संघ के एक युवा नेता के तौर पर 17 फरवरी 1961 में लोकसभा में कहा था कि ‘केवल यह कहते रहना ही काफी नहीं है हम राजनीति के साथ धर्म के मिश्रण के खिलाफ जनमत तैयार करेंगे।
इसके लिए कानून बनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा था कि ‘हमने एक असाम्प्रदायिक राज्य का निर्माण किया है। इसका स्वाभाविक पर्याय यह है कि राजनीति और सम्प्रदाय को अलग अलग रखा जाना चाहिए। जो राजनीति को सम्प्रदाय से जोड़ते हैं या सम्प्रदाय को राजनीति से सम्बद्ध करते हैं, वे अंत: करण से असाम्प्रदायिकता के सिद्धान्त में विश्वास नहीं रखते।….. किसी भी सम्प्रदाय को यह स्वतंत्रता है कि वह राजनीतिक दल का निर्माण करे, खुले मैदान में आकर चुनाव लड़े …. इसके लिए मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे या गिरजाघर में जाकर आंदोलन चलाने की आवश्यकता क्या है? अटल जी के करीब 59 साल पुराने इस भाषण में आज भी कितनी ताजगी झलकती है, आसानी से समझा जा सकता है।
इस चिर संवैधानिक तत्व की एक परीक्षा जल्दी ही तब होगी जब मन्दिर स्थल से कोई 5 किलोमीटर की दूरी पर मस्जिद निर्माण की प्रक्रिया शुरू होगी। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद एक भूमि-स्थल मस्जिद के निर्माण के लिए आवंटित कर दिया है। फिलहाल तो इस स्थल पर धान की हरी फसल लहलहा रही है।
वैसे मस्जिद निर्माण के लिए एक ट्रस्ट का गठन उसी तर्ज पर कर दिया गया है जिस पर राम मंदिर निर्माण के लिए श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्स्ट बना है। मस्जिद ट्रस्ट के पदाधिकारियों की घोषणा भी कर दी गई है और अगले सप्ताह उनकी बैठक होने की संभावना है।
लेकिन एक सवाल फिर भी मंडराता रहेगा। 1993 के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि अयोध्या में मस्जिद इतनी दूर बनाई जानी चाहिए कि मंदिर में अज्रान की और मस्जिद में घंटे की आवाज सुनाई न पड़े। अब पता नहीं कि जहॉ मस्जिद बन रही है, उस स्थल और राम मंदिर के बीच इतना फासला रह पाएगा कि नहीं कि एक दूसरे को अजान व घंटों की आवाज न सुनाई दे। लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद आडवाणी जी की बात खत्म हो जानी चाहिए।
न्यायालय के आदेश पर ही मस्जिद के लिए भूमि का आवंटन किया गया है। आडवाणी जी को भूमि पूजन पर तो नहीं बुलाया गया लेकिन उन्होंने एक बयान में साफ किया है कि मेरे दिल के निकट का एक सपना पूरा हो रहा है। आडवाणी जी मंिदर आंदोलन के प्रणेता थे। उन्होंने 1990 में सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा शुरू की थी हालॉकि उन्हें अयेाध्या पहुॅचने से पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था।
मस्जिद के निर्माण को लेकर अभी बहुत सारी बातें कही जानी बाकी हैं क्योंकि उसके निर्माण के लिए जो ट्रस्ट बना है, उसकी अभी पहली बैठक होनी बाकी है। एक बहुत बड़ा सवाल अभी यह उठेगा कि क्या मस्जिद की नींव का पत्थर रखे जाते समय प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को आमंत्रित किया जाएगा।
कुछ विपक्षी नेताओं और खासकर मुस्लिम नेताओं ने प्रधानमंत्री के मंदिर के कार्यक्रम में जाने का इस आधार पर विरोध किया था कि यह संविधान और धर्मनिरपेक्षता विरोधी कृत्य होगा। योगी जी से जब पूछा गया कि क्या वे मस्जिद के कार्यक्रम में जाएंगे तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया। उनका कहना था कि न उन्हें कोई बुलाएगा और न ही वे जाएंगे।
बहरहाल यह सर्वोच्च न्यायालय का फैसला था कि जिसने इतनी बड़ी राजनीतिक एका की प्रस्तावना तैयार की है। लगभग सभी दल शुरू से यह कहते रहे हैं कि न्यायालय मंदिर पर जो फैसला देगा, वे उसे मानेंगें और सबको मानना भी पड़ा है और उन्होंने माना भी है।
मंदिर निर्माण में साढ़े तीन चार साल लग सकते हैं और इस दौरान विभिन्न पक्षों के आचरण भावी तस्वीर पेश करेंगे। क्योंकि लोगों को अभी भी 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाए जाते समय विवादित परिसर के बाहर लटकने वाली कपड़े की वह पट्टिका बार बार याद आती है, जिस पर लिखा था:-
चबूतरे के नाम से मंदिर- यही नहीं
मंदिर के बहाने हिन्दू राष्ट्र बन रहा है।
धोखा नहीं, राजनीति नहीं, सत्य है।
यह पट्टिका बहुत लोगों ने उस तत्समय देखी, समझी लेकिन उसे किसी ने हटाया नहीं, मस्जिद गिराए जाने के बाद कुछ घंटों तक भी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)