धान के परंपरागत बीजों से महिलाएं बनी आत्मनिर्भर
प्रमोद भार्गव : छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के ग्राम अचानकपुर की महिलाओं के पास धान की 45 दुर्लभ किस्में मौजूद हैं। एक दशक से स्वयं-सहायता समूहों के माध्यम से कृषि कार्य कर रहीं ये महिलाएं धान की साधारण फसल की बजाय धान के बीज तैयार कर देश के अनेक प्रांतों में भेज रही हैं। इनके पास उपलब्ध धान के संरक्षित बीजों में सबसे खास ‘हरा चावल’ है, जो मधुमेह रोगियों के लिए बेहतर माना जा रहा है। इन्हें केंद्रीय कृषि मंत्रालय की ओर से पादप जीनोम संरक्षक पुरस्कार भी मिला है। महिला किसान दामिनी का कहना है कि उनकी ससुराल में दादा-परदादा के समय से धान की कई किस्मों के बीज सुरक्षित रखे थे। इन्हीं बीजों में से एक हरा चावल है। इसे 2015 में नेशनल इन्वोनेशन फाउंडेशन में ग्रीन राइस की श्रेणी में रखा। इस समूह की महिलाओं ने धान के बीजों के सिलसिले में इतनी किस्में तैयार कर ली हैं कि अब ये अपने बीजों को राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक में बेच रही हैं। जिन परंपरागत बीजों को हमारे वैज्ञानिक और बीज उत्पादक बहुराष्ट्रीय कंपनियां हथियाकर विकारग्रस्त करने में लगी हैं, उन्हीं बीजों से एक तबके का आत्मनिर्भर होना अत्यंत प्रेरक और साहसी पहल है।
भारत में मुनाफे की खेती के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां पेटेंट के बहाने पहले से ही सेंध लगाने में लगी हैं। बीजों पर कंपनियों का एकाधिकार होता जा रहा है। नतीजतन भोजन उत्पादक अन्नदाता से अब अपने खेत में बीज रोपने का अधिकार भी छिनता जा रहा है। दुनिया में बीज और पौधों से जुड़े जैविक अधिकारों पर बहस छिड़ी है कि आखिरकार बीज किसान का है या कंपनियों का? इसका सरकारी स्तर पर निराकरण नहीं हो पाने के कारण खाद्य सुरक्षा संकट से घिरती जा रही है। ऐसे में इस संकट से उबरने का उपाय अचानकपुर के स्व-सहायता समूह परंपरागत समाधान लेकर उपस्थित हुए हैं। गोया हमें जैव तकनीक के जरिए बीजों में बदलाव कर जो कंपनियां इन पर अधिकार जमा रही हैं, उनसे बचने की जरूरत है।
महाराष्ट्र हाईब्रीड बीज कंपनी माहिको धान के जीएम बीज तैयार करने की कोशिश में लगी है, जबकि भारत में धान की 80 हजार से भी ज्यादा जैविक किस्में हैं। अपने पारंपरिक ज्ञान के बूते धान की खेती करने वाले किसानों को आशंका है कि यदि जीएम बीजों का प्रयोग देश के धान बहुल क्षेत्रों में होता है तो इसके विषाणु पारंपरिक बीज बासमती और काली मूंछ जैसी अद्वितीय किस्मों को नष्ट कर देंगे। संयुक्त राष्ट्र खाद एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट ‘यूज इन फूड’ दर्शाती है कि भारत में चावल की जैविक खेती के परिणाम सकारात्मक हैं। इन पर जलवायु परिवर्तन का एकाएक असर नहीं पड़ता है। जैविक खेती स्थानीय प्राकृतिक संपदा के इस्तेमाल पर ही निर्भर होती है। इसलिए किसानों को अतिरिक्त लागत का सामना नहीं करना पड़ता है। साथ ही सिंचाई के लिए पानी पर निर्भरता पचास प्रतिशत तक घट जाती है और उत्पादन दोगुना बढ़ जाता है। यदि यही खेती धान के आनुवंशिक बीजों से की जाती है तो इसके विषाणु दूसरे खेतों में फैल सकते हैं और खेतों की उर्वरा शक्ति भी घट सकती है। नतीजतन किसानों को आर्थिक हानि उठानी पड़ सकती है। अतएव जीएम बीजों से चावल की खेती की गई तो इसके उत्पादन में भारी कमी आ सकती है। उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भी माहिको ने चावल की खेती में प्रयोग के बहाने हस्तक्षेप की कोशिश की थी, लेकिन किसानों के विरोध के चलते उसे सफलता नहीं मिली।
तमिलनाडू कृषि विवि ने धान की जैविक खेती के प्रयोग 2004 में किए थे। इसके आश्चर्यजनक परिणाम निकले। इस पद्धति से तमिलनाडू में 2007-08 में 4 लाख बीस हजार हेक्टेयर भूमि पर धान की फसल बोई गई थी। राज्य में जब चावल उत्पादन की गणना की गई तो चावल की औसत उत्पादन दर 10 से 13 टन प्रति हेक्टेयर थी, जो एक कीर्तिमान सिद्ध हुई। इससे तमिलनाडू में चावल का औसत उत्पादन 2005-06 में 2,838 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की तुलना में 2007-08 में 3,860 किलोग्राम हो गया था। जैविक व पारंपरिक तरीकों से चावल उत्पादन की शुरूआत तमिलनाडू के अलावा आंध्र-प्रदेश, त्रिपुरा, पश्चिम-बंगाल, झारखंड छत्तीसगढ़ और गुजरात में भी की गई, जिसके लगातार अनुकूल परिणाम आ रहे हैं। भारत में कुल 240 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में धान की खेती की जाकर चावल की हजारों किस्में पैदा की जाती हैं, जो भारत को चावल उत्पादन के साथ निर्यातक देशों की श्रेणी में अग्रणी देश बनाए हुए हैं। अकेली चावल की खेती से देश के करोड़ों किसान आत्मनिर्भर बने हुए है।
जीएम बीजों ने अमेरिका की पारंपरिक चावल की खेती और उद्योग को पूरी तरह चौपट कर दिया है। यही हश्र फ्रांस का हुआ है। यह हानि वायर कंपनी के जीएम बीज लिबर्टी लिंक राइस, जिसे एलएल-601 कहा जाता है के कारण हुई है। नतीजतन अमेरिका द्वारा चावल निर्यात का सिलसिला थम गया। वायर बीज कंपनी ने 2001 में इन बीजों का परीक्षण अमेरिका के धान बाहुल खेतों में किया था। साफ है, इन नतीजों से सबक लेने की जरूरत है।
दरअसल जैव तकनीक बीज के डीएनए यानी जैविक संरचना में बदलाव कर उनमें ऐसी क्षमता भर देता है, जिससे उन पर कीटाणुओं, रोगों और विपरीत पर्यावरण का असर नहीं होता। बीटी की खेती और इससे पैदा फसलें मनुष्य और मवोशियों की सेहत के लिए कितनी खतरनाक हैं इसकी जानकारी निरंतर आ रही है। भारत में 2001 में केंद्र सरकार द्वारा बीटी कपास की अनुमति दी गई थी। इसके परिणाम भी खतरनाक साबित हुए हैं। एक जांच के मुताबिक जिन भेड़ो और मेमनो को बीटी कपास के बीज खिलाए गए, उनके शरीर पर रोंए कम आए और बालों का पर्याप्त विकास नहीं हुआ। इनके शरीर का भी संपूर्ण विकास नहीं हुआ। जिसका असर ऊन के उत्पादन पर पड़ा।
बीटी बीजों का सबसे दुखद पहलू है कि ये बीज एकबार चलन में आ जाते हैं तो परंपगत बीजों का वजूद ही समाप्त कर देते हैं। बीटी कपास के बीज पिछले दो दशक से चलन में हैं। जांचों से तय हुआ है कि कपास की 93 फीसदी परंपरागत खेती को कपास के ये बीटी बीज लील चुके हैं। सात फीसदी कपास की जो परंपरागत खेती बची भी है, तो वह उन दूरदराज के इलाकों में है, जहां बीटी कपास की अभी महामारी पहुंची नहीं है। नए परिक्षणों से यह आशंका बड़ी है कि मनुष्य पर भी इसके बीजीे से बनने वाला खाद्य तेल बुरा असर छोड़ रहा है। क्योंकि बतौर प्रयोग बीटी कपास के जो बीज जिन-जिन मवोशियों को चारे के रूप में खिलाए गए हैं, उनकी रक्त धमनियों में श्वेत व लाल काणिकाएं कम हो गईं। जो दुधारू पशु इन फसलों को खाते हैं, उनके दूध का सेवन करने वाले मनुष्य का स्वास्थ्य भी खतरे में है।
जीन परिवर्तित फसलों से उत्पादन में वृद्धि के बढ़-चढ़कर दावे किए जाते हैं। कहा जा रहा है कि इन बीजों से फसल पैदा करने पर कीटनाशक रसायनों एवं खाद का उपयोग कम करना होगा। लेकिन भारत समेत जिन देशों में इन बीजों से फसलें उत्पादित की गईं, उनमें ज्यादा बढ़ोत्तरी तो हुई नहीं, उल्टे ये फसलें मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित हुई। भारत में जीएम बीज से बीटी यानी ‘बेसिलस थुरिन जिनसिस जीन’ कपास का उत्पाद किया गया था। केंद्रीय कपास शोध संस्थान (सीआईसीआर) नागपुर ने स्वीकार किया है कि 2001 से 2011 के बीच कुल कपास उत्पादन में बीटी से उत्पादित क्षेत्र 5.4 प्रतिशत से बढ़कर 96 प्रतिशत हो गया, लेकिन कपास के उत्पादन में वृद्धि नहीं हुई। इसके विपरीत एक तो मूल भारतीय कपास की नस्ल बदल गई, दूसरे वह जहरीली भी हो गई, जो त्वचा संबंधी रोगों का कारण बन रही है। लिहाजा अवांछित बीज किस तरह के रोगों का कारण बनेंगे, यह अभी कहा ही नहीं जा सकता है।
इसी तरह बीटी बैंगन के बतौर प्रयोग उत्पादन की मंजूरी जीईएसी ने दी थी, उसके परिवर्धित कर नए रूप में लाने की शुरूआत कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय धारवाड़ में हुई थी। इसके तहत बीटी बैंगन, यानी बोसिलस थुरिनजिनसिस जीन मिला हुआ बैंगन खेतों में बोया गया था। इसके प्रयोग के वक्त जीएम बीज निर्माता कंपनी माहिको ने दावा किया था कि जीएम बैंगन के अंकुरित होने के वक्त इसमें बीटी जीन इंजेक्शन प्रवेश कराएंगे तो बैंगन में जो कीड़ा होगा वह उसी में भीतर मर जाएगा। मसलन, जहर बैंगन के भीतर ही रहेगा और यह आहार बनाए जाने के साथ मनुष्य के पेट में चला जाएगा। बीटी जीन में एक हजार गुना बीटी कोशिकाओं की मात्रा अधिक है, जो मनुष्य या अन्य प्राणियों के शरीर में जाकर आहार तंत्र की प्रकृति को प्रभावित कर देती है। इसलिए इसकी मंजूरी से पहले स्वास्थ पर इसके असर का प्रभावी परीक्षण जरूरी था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
राष्ट्रीय पोषण संस्थान हैदराबाद के प्रसिद्ध जीव विज्ञानी रमेश भट्ट ने करंट साइंस पत्रिका में लेख लिखकर चेतावनी दी थी कि बीटी बीज की वजह से यहां बैंगन की स्थानीय किस्म ‘मट्टुगुल्ला’ बुरी तरह प्रभावित होकर लगभग सामाप्त हो जाएगी। बैंगन के मट्टुगुल्ला बीज से पैदावार के प्रचलन की शुरुआत पन्द्रहवीं सदी में संत वदीराज के कहने पर मट्टू गांव के लोगों ने की थी। इसका बीज भी उन्हीं संत ने दिया था। कर्नाटक में मट्टू किस्म का उपयोग हर साल किया जाता है। लोक पर्वों पर इसे पूजा जाता है। इसके विशिष्ट स्वाद और पौष्टिक विलक्षण्ता के कारण हरे रंग के इस भटे को शाकाहार में श्रेष्ठ माना जाता है। खाली पेट इसे कच्चा खाने से यकृत और गुर्दे के विकार प्राकृतिक रूप से ठीक होते हैं। साफ है, भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश को पारंपरिक बीजों के जरिए खेती-किसानी को बढ़ावा देने की जरूरत है। इससे किसान दुर्ग जिले के महिला स्व-सहायता समूहों की तरह आत्मनिर्भर तो होंगे ही, उन्हें किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के बीजों पर पराश्रित होने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)