महिला आरक्षण बिल : नारी शक्ति वंदन
27 साल तक लटके रहा महिला आरक्षण विधेयक 19 सितम्बर को संसद की नई इमारत में पहले दिन पेश किया गया। कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने महिला आरक्षण से जुड़ा विधेयक पेश किया। इस विधेयक में संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है। वास्तव में महिला आरक्षण के लिए पेश किया गया विधेयक 128वां संविधान संशोधन विधेयक है। विधेयक में कहा गया है कि लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। इसका अर्थ यह हुआ कि लोकसभा की 543 सीटों में से 181 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी।
–जितेन्द्र शुक्ला
केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लगातार दो बार सरकार बनने के बाद सरकार, भाजपा और पार्टी संगठन की ओर से यह नारा लगाया जाने लगा कि, ‘मोदी है तो मुमकिन है’। वास्तव में धरातल पर देखें तो सच्चाई भी यही दिखती है। राम मंदिर, धारा 370 जैसे तमाम विषय जो नामुमकिन कहे जाते थे, वह मुमकिन हुए और समस्या का समाधान निकला। इसी कड़ी में एक और नामुमकिन विषय संभव हुआ जब संसद के दोनों सदनों से एक प्रकार से सर्वसम्मति से महिला आरक्षण बिल पारित हुआ। मोदी सरकार ने आधी आबादी को उसका हक दिलाने के लिए नारी वंदन विधेयक संसद के विशेष सत्र में लेकर आयी। तमाम आशंकाओं का धता बताते हुए प्रधानमंत्री मोदी का यह मास्टर स्ट्रोक विपक्ष का चारों खाने चित कर गया। जो दल कभी इस बिल के पूर्ण रूप से खिलाफ थे, उन्होंने ने भी इसे समर्थन दिया। दरअसल, महिला आरक्षण बिल 1996 से ही अधर में लटका रहा। उस समय एचडी देवगौड़ा सरकार ने 12 सितंबर 1996 को इस बिल को संसद में पेश किया था, लेकिन पारित नहीं हो सका था। यह बिल 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में पेश हुआ था। बिल में संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव था। इस 33 फीसदी आरक्षण के भीतर ही अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए उप-आरक्षण का प्रावधान था। लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं था। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 1998 में लोकसभा में फिर महिला आरक्षण बिल को पेश किया था। कई दलों के सहयोग से चल रही वाजपेयी सरकार को इसको लेकर विरोध का सामना करना पड़ा। इस वजह से बिल पारित नहीं हो सका। वाजपेयी सरकार ने इसे 1999, 2002 और 2003-2004 में भी पारित कराने की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली। बीजेपी सरकार जाने के बाद 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार सत्ता में आई और डॉ.मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। यूपीए सरकार ने 2008 में इस बिल को 108वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में राज्यसभा में पेश किया। वहां यह बिल नौ मार्च 2010 को भारी बहुमत से पारित हुआ। तब बीजेपी, वाम दलों और जेडीयू ने बिल का समर्थन किया था।
यूपीए सरकार ने इस बिल को लोकसभा में पेश नहीं किया। तब इसका विरोध करने वालों में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल शामिल थीं। ये दोनों दल यूपीए का हिस्सा थे। कांग्रेस को डर था कि अगर उसने बिल को लोकसभा में पेश किया तो उसकी सरकार पर संकट आ सकता है। साल में 2008 में इस बिल को कानून और न्याय संबंधी स्थायी समिति को भेजा गया था। इसके दो सदस्य वीरेंद्र भाटिया और शैलेंद्र कुमार समाजवादी पार्टी के थे। इन लोगों ने कहा कि वे महिला आरक्षण के विरोधी नहीं हैं, लेकिन जिस तरह से बिल का मसौदा तैयार किया गया, वे उससे सहमत नहीं थे। इन दोनों सदस्यों ने सिफारिश की थी कि हर राजनीतिक दल अपने 20 फीसदी टिकट महिलाओं को दें और महिला आरक्षण 20 फीसदी से अधिक न हो। साल 2014 में लोकसभा भंग होने के बाद यह बिल अपने आप निष्प्राण हो गया लेकिन राज्यसभा स्थायी सदन है, इसलिए यह बिल अभी जिंदा रहा। साल 2014 में सत्ता में आई बीजेपी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में इस बिल की ओर ध्यान नहीं दिया। नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में इसे पेश करने का मन बनाया। हालांकि उसने 2014 और 2019 के चुनाव घोषणा पत्र में 33 फीसदी महिला आरक्षण का वादा किया था। इस मुद्दे पर उसे मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी समर्थन में रही है। कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी ने 2017 में प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर इस बिल पर सरकार का साथ देने का आश्वासन दिया था। वहीं कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी ने 16 जुलाई 2018 को प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर महिला आरक्षण बिल पर सरकार को अपनी पार्टी के समर्थन की बात दोहराई थी। डा.मनमोहन सिंह सरकार ने जब 15वीं लोकसभा में इस बिल को पेश किया था, तब उस समय, राजद, जनता दल (यूनाइटेड) और समाजवादी पार्टी महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत कोटा के भीतर पिछड़े समूहों के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग की थी।
27 साल तक लटके रहा महिला आरक्षण विधेयक 19 सितम्बर को संसद की नई इमारत में पहले दिन पेश किया गया। कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने महिला आरक्षण से जुड़ा विधेयक पेश किया। इस विधेयक में संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है। वास्तव में महिला आरक्षण के लिए पेश किया गया विधेयक 128वां संविधान संशोधन विधेयक है। विधेयक में कहा गया है कि लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। इसका अर्थ यह हुआ कि लोकसभा की 543 सीटों में से 181 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। वहीं पुदुचेरी जैसे केन्द्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित नहीं की गई हैं। यूं तो लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए सीटें आरक्षित हैं। इन आरक्षित सीटों में से एक तिहाई सीटें अब महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएंगी। वर्तमान में लोकसभा की 131 सीटें एससी-एसटी के लिए आरक्षित हैं। महिला आरक्षण विधेयक के कानून बन जाने के बाद इनमें से 43 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। इन 43 सीटों को सदन में महिलाओं के लिए आरक्षित कुल सीटों के एक हिस्से के रूप में गिना जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि महिलाओं के लिए आरक्षित 181 सीटों में से 138 ऐसी होंगी जिन पर किसी भी जाति की महिला को उम्मीदवार बनाया जा सकेगा यानी इन सीटों पर उम्मीदवार पुरुष नहीं हो सकते। हालांकि नए सिरे से परिसीमन होने पर संख्या बढ़ सकती है। परिसीमन की भी नौबत तब आयेगी जब नए सिरे से जनगणना होगी। परिसीमन में लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर सीमाएं तय की जाती हैं। पिछला देशव्यापी परिसीमन 2002 में हुआ था और इसे 2008 में लागू किया गया था। परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के भंग होने के बाद महिला आरक्षण प्रभावी हो सकता है। विधेयक में यह भी कहा गया है कि महिला आरक्षण केवल 15 साल के लिए ही वैध होगा। लेकिन इस अवधि को संसद आगे बढ़ा सकती है। जिस प्रकार एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटों की समयावधि बढ़ायी गयी थी। इसे एक बार में 10 साल तक बढ़ाया जाता रहा है। सरकार की ओर से पेश विधेयक में कहा गया है कि परिसीमन की हर प्रक्रिया के बाद आरक्षित सीटों का रोटेशन होगा। इसका विवरण संसद बाद में निर्धारित करेगी। यह संविधान संशोधन सरकार को संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के आरक्षण के लिए अधिकृत करेगा। सीटों के रोटेशन और परिसीमन को निर्धारित करने के लिए अलग एक कानून और अधिसूचना की जरूरत होगी।
वहीं दूसरी ओर अभी यह स्पष्ट नहीं है कि लद्दाख, पुडुचेरी और चंडीगढ़ जैसे केन्द्र शासित राज्य, जहां लोकसभा की केवल एक-एक सीटें हैं, वहां सीटें कैसे आरक्षित की जाएंगी। उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों जैसे मणिपुर और त्रिपुरा में दो-दो सीटें हैं, जबकि नागालैंड में लोकसभा की एक ही सीट है। हालांकि, पिछले महिला आरक्षण विधेयक में इस मामले को निपटा गया था। साल 2010 में राज्यसभा की ओर से पारित किए गए विधेयक में कहा गया था कि जिन राज्यों या केन्द्र शासित प्रदेशों में केवल एक सीट है, वहां एक लोकसभा चुनाव में वह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होगी और अगले दो चुनाव में वह सीट आरक्षित नहीं होगी। वहीं दो सीटों वाले राज्यों में दो लोकसभा चुनावों में एक सीट आरक्षित होगी, जबकि तीसरे चुनाव में महिलाओं के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं होगी। सवाल यह है कि महिला आरक्षण बिल की आवश्यकता क्यों है, क्या यह सिर्फ राजनीतिक शिगूफा या वास्तव में राजनेता इसे लेकर गंभीर हैं। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 के अनुसार, राजनीतिक सशक्तीकरण सूचकांक में भारत के प्रदर्शन में गिरावट आई है और साथ ही महिला मंत्रियों की संख्या वर्ष 2019 के 23.1 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2021 में 9.1 तक पहुंच गई है। सरकार के आर्थिक सर्वेक्षणों में भी यह माना जाता है कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिला प्रतिनिधियों की संख्या बहुत कम है। इस समय लोकसभा में 82 और राज्य सभा में 31 महिला सदस्य हैं, यानी कि लोकसभा में महिलाओं की भागीदारी 15 फीसदी और राज्य सभा में 13 फीसदी है। वहीं देश के 19 राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 फीसदी से कम है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, दुनियाभर की संसदों में महिलाओं का औसत प्रतिनिधित्व 26.5 फीसदी है।
फिलहाल स्थिति यह है कि महिला आरक्षण बिल संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया है। केन्द्र सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया था। लोकसभा में करीब सात घंटे की चर्चा के बाद यह बिल पास हुआ। इसके पक्ष में 454 मत पड़े, जबकि दो सांसदों ने इसके विरोध में वोट दिया। इसके बाद ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक’ राज्यसभा से पारित हुआ, जहां 215 सांसदों ने इसके समर्थन में वोट डाले। यहां एक वोट भी इसके विरोध में नहीं पड़ा। लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा है कि आज महिलाओं को न्याय मिल रहा है। बिल पास करके हम महिलाओं को और सशक्त कर रहे हैं। वहीं केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि महिला आरक्षण बिल पारित होते ही महिलाओं के अधिकारों के लिए एक लंबी लड़ाई का अंत हो जाएगा। उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा कि कुछ पार्टियों के लिए महिला सशक्तिकरण पॉलिटिकल एजेंडा हो सकता है। राजनीतिक मुद्दा हो सकता है। यह नारा चुनाव जीतने का हथियार हो सकता है, लेकिन मेरी पार्टी और मेरे नेता नरेंद्र मोदी के लिए महिला सशक्तीकरण राजनीतिक मुद्दा नहीं है, मान्यता का सवाल है। उन्होंने कहा कि इसके साथ महिला अधिकारों की एक लंबी लड़ाई का अंत हुआ है। अपने सम्बोधन में अमित शाह ने यह भी इशारों में बता दिया कि यह कानून कब अमलीजामा पहनेगा। उन्होंने कहा कि ‘कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर भूमिका बनाना शुरू किया कि इस विधेयक को इसलिए समर्थन न करो क्योंकि यह परिसीमन की वजह से अभी लागू नहीं होगा। कुछ ओबीसी और मुस्लिम आरक्षण की बात कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि आप समर्थन नहीं करोगे तो क्या जल्दी आरक्षण आ जाएगा? तो भी 29 के बाद आएगा। एक बार श्रीगणेश तो करो।’
वहीं, कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कहा है कि महिला आरक्षण बिल में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) का कोटा होना चाहिए। भारत की आबादी के बड़े हिस्से को आरक्षण मिलना चाहिए, जो इसमें नहीं है। उन्होंने कहा कि मेरे अनुसार इस बिल में एक चीज ऐसी है जिससे यह अधूरा है, वो है ओबीसी रिजर्वेशन। भारत की बड़ी महिला आबादी को इस रिर्जेशन में शामिल करना चाहिए था। इसके अलावा दो चीजें ऐसी हैं जो अजीब हैं। एक तो यह कि आपको इसे लागू करने के लिए जनगणना की जरूरत है और दूसरा परिसीमन। उन्होंने इसे ओबीसी कम्युनिटी का अपमान करार दिया। उन्होंने जोर देकर कहा कि बिल को पास कर लागू कीजिए। परिसीमन और जनगणना की जरूरत नहीं है। 33 प्रतिशत सीधा महिलाओं को दे दीजिए। वहीं कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी आरक्षण बिल का समर्थन किया और इसे पूर्व प्रधानमंत्री ‘राजीव गांधी का सपना’ बताया। खैर, ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक-2023’ के संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद हर कोई यह सवाल पूछ रहा है कि आखिर यह कब अमल में आयेगा, इसके लिए 2024 तक इंतजार करना होगा या फिर 2029 तक। इसके लिए पहले जनगणना कराना आवश्यक होगा। उसके बाद परिसीमन यानी निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा तय करने की प्रक्रिया करानी होगी। दरअसल संसद में पेश किए गए बिल में कहा गया है कि आरक्षण आधारित बदलाव जनगणना के बाद ही लागू होंगे और सभी निर्वाचन क्षेत्रों को जनगणना के डेटा के आधार पर फिर से तैयार किया जाएगा।
इस लंबी प्रक्रिया को मद्देनजर रखते हुए ही कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने संसद में कहा कि भारतीय महिलाएं पिछले 13 साल से इस राजनीतिक जिम्मेदारी का इंतजार कर रही हैं। अब उन्हें कुछ और साल इंतजार करने के लिए कहा जा रहा है। कितने साल? दो साल, चार साल, छह साल, या आठ साल?’ वहीं कई अन्य विपक्षी दलों के सांसदों ने भी सरकार से सवाल किया कि कानून लागू करने के लिए जनगणना और परिसीमन की दोनों शर्तें कब पूरी होंगी, इसकी कोई निश्चित समय सीमा नहीं है। उल्लेखनीय है कि भारत में समय-समय पर जनसंख्या के आधार पर लोकसभा और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया जाता रहा है। इस परिसीमन के साथ ही बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप संसद और विधानसभाओं में उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए, निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या भी बढ़ने की पूरी संभावना है। देश में वर्ष 1976 में संवैधानिक संशोधन के बाद लोकसभा में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या का विस्तार वर्ष 2001 तक के लिए रोक दिया गया था। फिर उसके बाद 2001 में संविधान संशोधन करके इसे वर्ष 2026 तक के लिए एक प्रकार से लागू कर दिया गया था।
भारतीय निर्वाचन आयोग के अनुसार, साल 2001 के संविधान संशोधन के अनुसार लोकसभा सदस्यों की संख्या 2026 के बाद ही बढ़ाई जा सकती है। वर्ष 2008 में देश के कुछ राज्यों में निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया गया और 2009 में अगले आम चुनाव हुए, लेकिन इसमें सीटों की संख्या नहीं बढ़ाई गई और लोकसभा सदस्यों की संख्या 543 ही रही। वहीं दूसरी ओर भारत की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। यही वजह है कि सरकार कह रही है कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के बाद लागू होंगी। भारत में इससे पहले वर्ष 2011 में जनगणना हुई थी। हर दस साल में यह प्रक्रिया होती है लेकिन 2021 में जनगणना नहीं हुई। अगली जनगणना कब होगी, इसको लेकर भी अनिश्चतता है। इसे ऐसे कहें कि चूंकि हर दस साल में जनगणना कराये जाने का प्रावधान है तो इसे 2021 में होना चाहिए था लेकिन जब 2021 में नहीं हुई तो क्या अब यह 2031 में होगी? तब जनसंख्या के अनुसार ही देश में लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों और राज्यों की विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्रों का आकार तय होगा। यानि परिसीमन होगा, जिसमें अच्छा खासा समय करीब दो से तीन साल लगेंगे। अभी जो निर्वाचन क्षेत्र हैं, उन्हें 2001 की जनगणना के अनुसार 2002 में गठित परिसीमन आयोग ने तय किए थे। साफ है कि यदि जनगणना 2031 में हुई तो 2029 के लोकसभा चुनाव में भी यह बिल लागू नहीं हो पायेगा। ल्ल