पैकेज के पार खड़े मजदूर
प्रसंगवश
स्तम्भ: कहा जाता है कि मुसीबत अकेले नहीं आती। कई विपत्तियाॅ साथ में लेकर आती है। तमाम प्रदेशों से भाग—भाग अपने गाॅव-घर पहुॅचने की होड़ में पीड़ित-उत्पीड़ित मजदूरों के साथ यही हो रहा है।
पंजाब से मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के बड़ा मलहरा तक कई सौ मील की यात्रा पैदल करते करते बुरी तरह थक गए मजदूरों के आगे जब बीबीसी के एक संवाददाता ने अपना कैमरा लगाया तो उसके सारे सवालों के जवाब आँसुओं में बह गए। फिर जब संवाददाता ने नीचे जमीन की तरफ देखा और पूछा चप्पल क्यों नहीं पहिने हो? ‘टूट गई साब- का करें’। सिर पर गठरी और गोद में बच्चे संभाले महिलाओं की आँखों में तो आँसू भी नहीं बचे थे।
संवाददाता ने एक मजदूर को अपने जूते दे दिए और कहा, इसे पहिन लो। एक और चैनल के संवाददाता तो खुद रो रहे थे, जिस मजदूर का उन्होंने कुछ समय पहले इंटरव्यू किया था, वह सड़क दुर्घटना में मारा गया था। एक मिनी ट्रक में बिठाकर मुसीबतों के पार लगाने के लिए 350-350 रु वसूलने वाले ड्राइवर कंडक्टर छोटे ट्रक को नियंत्रित नहीं रख पाए। 3 मर गए 51 घायल हो गए।
पंजाब की तरफ से ही आ रहे बिहार के कुछ पैदल मजदूरों को आधी रात को मुजफ्फरनगर से कुछ दूर देवबंद के पास एक तेज रफ्तार बस ने कुचल दिया- 6 मौके पर ही जान गंवा बैठे। इसके ठीक तीन पहले सड़क से भगाए गए मजदूर जब फिर रेल की पटरी पर पहुॅचे तो पीछे पीछे पुलिस वाले पहुॅच गए और उनसे रेल की पटरी पर चलने का किराया वसूलने लगे- मगर वे कैमरे की नजर से अपने को जरूर नहीं बचा पाए।
तो कौन हैं ‘कोरोना वारियर्स’? कौन हैं कोरोना योद्धा? ये पुलिस वाले जो पैसे वसूल रहे थे? वे जो प्रशासन की नाक के नीचे ट्रक का अंधाधुंध किराया किस्मत के मारे मजदूरों से ऐंठ रहे थे? वे जो पैदल चलने की मोहलत भी मजदूरों को नहीं दे रहे थे और उन्हें कुचलकर मार डाल रहे थे? या फिर ये संवाददाता? कौन हैं कोरोना से आमने-सामने की लड़ाई लड़ने वाले असली योद्धा? डाक्टर, नर्सें और मेडिकल स्टाफ? वे बैंक कर्मी तो दिनरात लाॅकडाउन में भी ड्यूटी पर जूझकर काम करते हैं, छोटे-बड़ों को तरह तरह के कर्जे देते हैं और फिर बाद में ये कर्जे न वसूल पाने को लेकर सीबीआई का सामना करने को मजबूर होते हैं? या फिर वे जो अपने वेतन-भत्तों का एक हिस्सा पीड़ितों की खातिर देने की छतचढ़ी घोषणाएं करके वाहवाही लूटते हैं लेकिन अपनी खुद की गाॅठ से एक पैसा भी निकालकर नहीं देते जबकि हर चुनाव के बाद उनकी व्यक्तिगत आमदनी कई गुनी फैल जाती है। या फिर प्रयागराज के पास नैनी में रहने वाले और सुपरिंटेंडेंट के पद से सेवानिवृत्त हुए भागीरथ मिश्रा और उनकी पत्नी पुष्पा मिश्रा, जिन्होंने अपने बुढ़ापे के लिए रखे दो लाख रुपए तक प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कोष में दान कर दिए ताकि पीड़ितों तक उनकी मदद का हाथ पहुॅुॅच सके?
यह महामारी क्या कुछ नई परिभाषाएं हमें भेट में देगी? न तो इन पैदल मजदूरों को पता है और न ही इन नए योद्धाओं को कि वित्त मंत्री सीतारमण के नाम का भजन कब से करना है, उनके नाम का जयघोष कब से करना है? क्योंकि अभी आयकर रिटर्न दाखिल करने की तारीख तो वैसे भी नहीं आई है। हर साल हमें वैसे भी 31 जुलाई तक की मोहलत तो हरेक वित्त मंत्री अपने बजट भाषण के बाद ही उद्घोषित कर देते रहे हैं।
छोटे उद्योगों के दायरे बढ़ाए गए हैं। लेकिन पता नहीं छोटे—छोटे सामान, खिलौने, आलपिन, पैन, कलम, रजाई, गद्दे, चिकित्सा किट, मास्क बनाने में एकाधिकार-प्राप्त बड़े उद्योगों को इन लघु उद्योगों के हाथ कब चुनौती पेश करने के हाल में होंगे?
प्रधानमंत्री के संबोधन के बाद और वित्तमंत्री सीतारमण की कतिपय घोषणाओं से पहले भी कुछ समाचार चैनलों में एक हलचल जरूर हुई। उन पर उनके हितैषी बाबा रामदेव प्रकट हो गए। पता नहीं क्यों उन्हें यह लग रहा था कि प्रधानमंत्री ने ‘वोकल फौर लोकल’ की जो बात कही है, वह पतंजलि के उत्पादों के लिए थी।
जबकि वे प्रधानमंत्री के संबोधन के उस भाग को भूल गए जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी अपील पर खादी और हथकरघा के उत्पादन और खपत में भारी बढ़़ोतरी पिछले सालों में हुई है। हाॅ बाबा की इतनी तो देन है ही कि उनकी गिलहरियाॅ तक आसन करने लगी हैं। उनकी यह भी देन है कि बड़े उद्योग भी ‘वैदिक’ और ‘आयुर्वेदिक’ नामों का इस्तेमाल अपने उत्पादों पर चिपकाने में लग गए हैं।
और अंत में, किसी ने सही सवाल पूछा हैः क्या असली कोरोना योद्धा वे मजदूर भी नहीं है जो लाॅकडाउन की पल पल भारी कीमत चुका रहे है