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अखिलेश की पहचान : टेढ़ी नाक-सीधी चाल

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संजय सक्सेना

अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी सरकार के चार साल का जश्न हंगामेदार रहा। इसके साथ ही अब चुनावी वर्ष शुरू हो गया है। अब शायद ही अखिलेश यादव को सरकारी जश्न (2017 के नतीजे सपा के पक्ष में आने से पूर्व) मनाने का दूसरा मौका मिले। चार वर्ष के जश्न के पल का सबसे अधिक लुत्फ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उठाया। वह सब जगह सुर्खियों में रहे। इसकी वजह भी थी। बीते चार वर्षों में समाजवादी राजनीति के युवा सपा नेता और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के इर्दगिर्द ही घूमती रही। यह समाजवादी पार्टी की सियासत में चेहरा बदलने का बड़ा बदलाव था। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव जो कई दशकों से सपा राजनीति की धुरी बने हुए थे, वह बीते चार वर्षों में कुछ खास मौकों पर ही अखिलेश सरकार की कभी तारीफ तो कभी खामियां निकालते नजर आये। 2012 के चुनाव के नतीजे आने से पूर्व तक किसी ने यह कल्पना नहीं की थी कि मुलायम सिंह यादव पुत्र मोह में फंसे हुए हैं, लेकिन जैसे ही सपा के पक्ष में नतीजे आये मुलायम ने सधे हुए नेता और जिम्मेदार पिता की तरह अखिलेश यादव को सत्ता की चाभी थमा दी। नेताजी का यह फैसला समाजवादी परिवार और पार्टी के कुछ बड़े नेताओं को रास नहीं आया,लेकिन उनके पास मुंह बंद रखने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। अखिलेश यादव के चार वर्ष के कार्यकाल को दो हिस्सों में बांट कर देखा जा सकता है। पहला लोकसभा चुनाव से पहले का दूसरा लोकसभा चुनाव के बाद का।
अखिलेश कार्यकाल के पहले हिस्से की बात की जाए तो अखिलेश यादव को सीएम बनाये जाने से पार्टी के भीतर एक धड़ा खुश नहीं था। मुलायम के फैसले से आहत इस धड़े के नेताओं ने अपना मुंह तो बंद रखा था, लेकिन इनका दिमाग खुला हुआ था, जो यह मानने को तैयार नहीं था कि कल तक जिस अखिलेश को वह बच्चे की तरफ ट्रीट करते थे, आज वह उनका ‘सरदार’ बन जाये। सपा के भीतर जगह-जगह कानाफूसी शुरू हो गई। सपा के तथाकथित चाचाओं ने हर जगह टंगड़ी फंसाना शुरू कर दी। यह सिलसिला चला तो बढ़ता ही गया। पार्टी के भीतर और बाहर बहस सीएम और सुपर सीएम की चल पड़ी। साढ़े चार मुख्यमंत्रियों की बात होने लगी। इसमें कई नाम गिनाये जाते थे। अखिलेश यादव की गिनती चाचाओं के बोझ के मारे बेचारे मुख्यमंत्री के रूप में होने लगी। अखिलेश यादव अपनी ही सरकार में कोई बड़ा फैसला नहीं ले पा रहे थे। उनके ऊपर हमेशा दबाव बना रहता था। यह सिलसिला 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने तक जारी रहा। लोकसभा चुनाव में जब समाजवादी पार्टी चारों खाने चित हो गई तो उन सभी नेताओं और चचाओं ने हार से किनारा कर लिया जो अपने आप को हाल-फिलहाल तक सरकार का लंबरदार मानते थे। सारा ठीकरा अखिलेश के सिर फोड़ दिया गया। इसके बाद अखिलेश की कार्यशैली में बड़ा बदलाव देखने को मिला। उन्होंने अपनी कार्यशैली पूरी तरह से बदल ली। साढ़े चार मुख्यमंत्रियों और सुपर सीएम वाली बातें अतीत बन कर रह गई। अब सीएम का ध्यान इस ओर रहता है कि प्रदेश में निवेश कैसे बढ़े, पर्यटन को कैसे बढ़ावा दिया जाए। केंद्र की मोदी सरकार या राजभवन से बेवजह टकराव न लिया जाये। विकास के मुद्दे पर केन्द्र के साथ दोस्ताना संबंध बनाये रखना अखिलेश सरकार की प्राथमिकता में शामिल हो गया है। अब अखिलेश सरकारी खैरात बांटने की योजनाओं से बचते हैं। 2012 के विधान सभा चुनाव के समय समाजवादी पार्टी ने घोषणा पत्र में जो वायदे किये थे, उसमें से भी खैरात बांटने वाली तमाम घोषणाओं को प्रतीकात्मक रूप से ही जारी रखा गया है, लेकिन बीते चार वर्षों में सीएम अखिलेश सरकार प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था, सपाइयों की गुंडागर्दी, अदालत की फटकार से अपनी सरकार की किरकिरी नहीं बचा पाये। हाल में मुजफ्फरनगर दंगों की रिपोर्ट विधान सभा के पटल पर रखी गई, इससे भी अखिलेश सरकार की काफी किककिरी हुई।
akhileshचार वर्ष पूरे होने पर समाजवादी पार्टी और सरकार ने एक तरफ जश्न मनाया तो दूसरी तरफ इन चार वर्षों की उपलब्धियों का लेखा-जोखा जनता के सामने रखा। इसमें कोई संदेह नहीे है कि अपने चार वर्षों के कार्यकाल में अखिलेश सरकार ने कई अच्छी योजनाएं चालू करके लोगों की खूब सराहना बटोरी। सरकार ने लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस वे का निर्माण, मेट्रो रेल परियोजना की शुरुआत, रोगियों के लिए एंबुलेंस सेवा, नारी सुरक्षा के लिए वूमेन पॉवर लाइन और चिकित्सा सेवाओं के क्षेत्र में कई अच्छे काम किए, लेकिन ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां दावों और हकीकत में बड़ा अंतर साफ देखा जा सकता है। ऊर्जा सुधार के बारे में सरकार बड़े-बड़े दावे करती है पर तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। गांवों को अब भी बमुश्किल आठ-दस घंटे ही बिजली मिल पा रही है। विकास में बिजली संकट एक बड़ी बाधा र्है पर अभी तक इसका कोई स्थायी समाधान नहीं निकल सका है। प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था पूरे कार्यकाल के दौरान सरकार और उसके मुखिया अखिलेश के लिए चुनौती खड़ी करती रही।
बहरहाल,अखिलेश के कार्यकाल को एक पिता या फिर सपा प्रमुख की नजरों से देखा जाए तो मुलायम को यह संतोष हो सकता है कि उन्होंने 2012 में अखिलेश को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाने का जो दांव चला था, वह पूरी तरह से सफल रहा। पिछले चार वर्षों में साल दर साल अखिलेश ज्यादा परिपक्व होते गये। इससे मुलायम से ज्यादा किसे खुशी मिलेगी। दो वर्ष पूर्व तक जो लोग कहते फिरते थे कि 2017 के चुनावों के बाद अखिलेश यादव भूतपूर्व मुख्यमंत्री बनकर रह जायेंगे, उन्हीं को अब अखिलेश की सत्ता में वापसी की संभावनाएं नजर आने लगी हैं। अखिलेश ने काम भी किया और सियासत भी खूब सीखी। किस मौके पर क्या बोलना है,यह बात अखिलेश बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बड़े से बड़े संकट से कैसे निपटा जाये इसका हुनर अखिलेश में आ गया है। बीते विधानसभा चुनाव के दौरान अखिलेश यादव सपा के तमाम दिग्गज नेताओं के बीच तेजी से युवा नेता के रूप में उभर कर आये थे। उसी समय कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी यूपी में कांग्रेस की वापसी मिशन के लिये ताल ठोक रहे थे,लेकिन पिछले चार वर्षों में अखिलेश काफी आगे बढ़ गये जबकि राहुल गांधी का ग्राफ गिरता चला गया। निश्चित ही युवा नेता और सीएम अखिलेश यादव की स्वच्छ ईमानदार और अविवादित छवि सपा के मिशन 2017 के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है। यह तय है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव बिना किसी भय के अखिलेश यादव को आगे बढ़ता हुआ देखेंगे। अब मुलायम की सियासी धरोहर अखिलेश की ‘पूंजी’ हो गई है। सबसे बड़ी बात यह है कि अखिलेश यादव को अपनी कमियों का अहसास है। वह ऐसे किसी मुद्दे से बचते नहीं हैं जिसको लेकर उनके खिलाफ उंगली उठती हैं। भले ही इसका ठीकरा वह किसी और पर फोड़ दें। बिजली का ही मसला है। उन्हें पता है,इस क्षेत्र में वह खास काम नहीं कर पाये। वह कहते हैं कि केंद्र ने साथ दिया होता तो उत्तर प्रदेश में 24 घंटे बिजली आती। जनता का आशीर्वाद मिला तो 24 घंटे बिजली आएगी। वैसे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अखिलेश सरकार विद्युत व्यवस्था सुधारने के लिए काफी कदम उठा चुकी है। अपनी आलोचनाओं पर अखिलेश कहते है,‘ लोकतंत्र में हम अपनी बात रख सकते हैं और सपा सरकार में इस बात की सबसे ज्यादा आजादी है। वह इस बात की भी हिमायती हैं कि सरकारों के कामों की तुलना होनी चाहिए। उन्होंने किसी का नाम न लेते हुए कहा कि कुछ दल आउट ऑफ स्टेशन हो गए है। साथ ही ये भी कहा कि मूर्तियां लगवाने वाले अब विकास की बात कर रहे हैं। अखिलेश का इशारा माायावती के उस बयान को लेकर था, जिसमें माया ने कहा था कि अब सत्ता में आने पर वह पार्क और मूर्तियां नहीं बनवाएंगी।
अखिलेश के चार वर्षों के प्लस प्वांइट पर नजर दौड़ाई जाये तो यह साफ हो जाता है कि पिछले चार वर्षों में अखिलेश की छवि तो साफ-सुथरी रहीं ही, इसके अलावा उनकी सरकार पर भी भ्रष्टाचार का कोई बड़ा दाग नहीं लगे। हालांकि कुछ भ्रष्टाचारी नेताओं और नौकरशाहों के प्रति अखिलेश सरकार की नरमी ने कई सवाल जरूर खड़े किये। यही हाल कानून व्यवस्था के मामले में भी रहा। सीएम अखिलेश यादव सरकार के चार वर्ष बीतने के बाद कह रहे हैं कि आगे से कानून व्यवस्था की मॉनीटरिंग वह स्वयं करेंगे। यह अच्छी बात है, लेकिन इस ओर वह शुरुआती समय में ही ध्यान दे देते तो कहीं अच्छा रहता। विपक्ष को भी मौका नहीं मिलता। चुनाव की आहट सुनते ही अखिलेश यादव बिजली-पानी और प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था पर तो गंभीरता से बात कर ही रहे हैं, इसके अलावा उनका ध्यान युवा वोटरों पर भी लगा हुआ है। युवा सीएम अखिलेश यादव जानते हैं कि युवा वोटर एक बड़ी ताकत हैं। यह जिस ओर झुक जाएंगे, उस दल का पलड़ा भारी हो जाएगा।
अखिलेश चार वर्षों के अपने कामकाज से संतुष्ट हैं और उम्मीद जता रहे हैं कि आगामी चुनाव में उन्हें फिर से जनता का सहयोग व समर्थन मिलेगा।
चुनाव की बेला में सरकार के ऊपर काम की चुनौतियां तो कुछ ज्यादा हो ही जाती हैं, इसके अलावा तमाम वह संगठन भी सिर उठाने लगते हैं जो सरकार पर दबाव बनाकर अपनी मांगें पूरी कराने के चक्कर में रहते हैं। इन सबसे निपटना भी सरकार के लिए एक चुनौती होता है। बहरहाल, अखिलेश यादव की टेढ़ी नाक को लेकर आजकल खूब चर्चा हो रही है, लेकिन सियासी पिच पर वह जिस तरह से सीधी चाल चल रहे हैं, वह काबिल-ए-तारीफ है। उनकी सीधी और सधी हुई चाल से विरोधी हैरान-परेशान हैं तो उनके संग-साथ वालों को लगता है कि अखिलेश की टेढ़ी नाक और सीधी चाल का फायदा अवश्य ही उन्हें (अखिलेश यादव) और उनकी पार्टी को मिलेगा। =

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