अथर्ववेद में राज्य के जन्म और विकास का सुन्दर वर्णन
हृदयनारायण दीक्षित
स्तम्भ : आदिमकाल में राजा या राज्य व्यवस्था नहीं थी। राज्य संस्था का क्रमिक विकास हुआ है। अथर्ववेद में राज्य के जन्म और विकास का सुन्दर वर्णन है। बताते हैं “पहले विराट (राजा-राज्य रहित) दशा थी, इस में विकास हुआ। गार्हृपत्य संस्था (परिवार-कुटुम्ब) आई। इसके बाद विकास हुआ और ‘आहवनीय’ दशा आई। परिवारों का आह्वान हुआ, पंचायते हुई। फिर ‘दक्षिणाग्नि दशा’ आई। यहां दक्ष-कुशल लोगों का नाम दक्षिणा है और अग्नि का अर्थ अग्रणी-अगुवा या नेता है।
दक्षिणाग्नि दशा का अर्थ है – कुशल लोगों का नेतृत्व मिलना। फिर इस स्थिति से आगे का विकास हुआ और सभा बनी। इसी के विकास से समिति बनी।” (अथर्ववेद 8.10.2-8) वैदिककालीन समिति राजा का चयन करती थी और उसे पदासीन करती थी, पद से हटाती भी थी। (अथर्ववेद 5.19.6)। ऋग्वेद (9.92.6) के अनुसार राजा समिति में जाता है। राजा निरंकुश नहीं है, वह समिति के प्रति उत्तरदायी है। वैदिक काल और उसके बाद का ‘राजा’ परम स्वतंत्र नहीं है। वरूण वैदिक शासक हैं लेकिन ‘धृतवृत’ हैं। ऋग्वेद (1.25.10) यजुर्वेद (10.27) और अथर्ववेद (7.83.1) में वरूण भी धृतवृत हैं। यहां धृतवृत का अर्थ है – आचार संहिता के प्रति वचनबद्ध/प्रतिज्ञाबद्ध। वैदिक काल के राजा और प्रजा के बीच इसी शपथ पालन का समझौता है। धृतव्रत का अर्थ संविधान के प्रति निष्ठा है।
वैदिक काल का राजा सभा और समितियों के परामर्श से शासन करता था। उसकी नियुक्ति होती थी। ऋग्वेद (10.173.1) में कहते हैं, “आपको अधिपति नियुक्त किया गया है। आप स्थिर रहें। प्रजाएं आपकी अभिलाषा करें। आपके माध्यम से राष्ट्र का यश कम न हो – मा त्वद्राष्ट्रमधि भ्रशत्।” ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर ‘राष्ट्र’ का प्रयोग हुआ है। राष्ट्र और राजा का स्थायित्व प्रजा की शुभकामना है। कहते हैं “जैसे आकाश, पृथ्वी, पर्वत और विश्व अविचल है उसी प्रकार राजा भी अविचल रहे।” (वही 4) राष्ट्र की स्थिरिता अपरिहार्य है। फिर राजनैतिक स्थिरिता के लिए भी सभी देवों की स्तुतियां हैं “वरुण स्थायित्व दें – धुवं ते राजा वरूणो। बृहस्पति स्थायित्व दें – धु्रवं देवो बृहस्पति। इन्द्र और अग्नि भी इस राष्ट्र को स्थिर रूप में धारण करें – राष्ट्रं धारयतां धु्रवं। (वही 5) स्थिरिता की प्रार्थना वरूण, बृहस्पति और इन्द्र अग्नि से लेकिन सुशासन की प्रार्थना “सविता, सोम और समस्त प्राणियों की अनुकूलता से है।” (वही 10.174.3)
ऋग्वेद में हजारों बरस प्राचीन राष्ट्र का भौगोलिक चित्र है। ऋग्वेद के ऋषि सात नदियों को बहुधा याद करते हैं। वे प्रायः इसी क्षेत्र में रहते है। ऋषि कहते हैं कि इन्द्र ने सप्तसिन्धुषु में जल प्रवाहित किया (ऋ0 8.24.27)” यह सात नदियों वाला भौगोलिक क्षेत्र है। इन्द्र इसी क्षेत्र में जल वर्षा कराते हैं। मैकडनल और कीथ के अनुसार “यहां एक सुनिश्चित देश का नाम लिया गया है। पुसाल्कर ने इस मत का समर्थन करते हुए नदी नामों के आधार पर उस देश की रूपरेखा निर्धारित की है। उसमें अफगानिस्तान पंजाब, अंशतः सिन्ध और राजस्थान, पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रदेश, कश्मीर तथा सरयू तक का पूर्वी भारत शामिल है।” ये सात नदियां काल्पनिक नहीं हैं। ऋग्वेद की सबसे पवित्र नदी सरस्वती है। वह एक विशाल नदी थी। यह कुरूक्षेत्र, दक्षिणी पंजाब, उत्तरी राजस्थान और पूर्वी सिंध पंच प्रदेश की धरती की सींचती हुई समुद्र में गिरती थी। ऋग्वेद के पांच जन इसी सरस्वती नदी तट पर रहते थे। सरस्वती को पंच जाता वर्धयन्ती कहा गया है। यह तटवर्ती पंच जनों को समृद्धि करती है। (6.61.12)। ऋग्वेद में पांच से अधिक जनों का उल्लेख है, इनमें पांच मुख्य हैं। ऋग्वेद में सात से अधिक नदियों का उल्लेख है, इनमें सात मुख्य हैं।” यह क्षेत्र एक समान संस्कृति व अर्थव्यवस्था के कारण राष्ट्र होने की सभी शर्ते पूरी करता है।
वैदिक समाज और राष्ट्र परिपूर्ण जनतंत्री हैं। विचार विमर्श वैदिक परंपरा है। सभा और समिति में वक्तागण अपने विचार रखते हैं। दोनो सदन आदरणीय हैं। इन्हें ‘नरिष्टा’ कहा गया है। सभा समिति अरष्टि दूर करती है। दोनो को प्रजापति की पुत्रियां भी बताया गया है। अथर्ववेद (7.13) में स्तुति है “सभा में मैं विनम्रतापूर्वक विवेकपूर्ण बोलने की सद्बुद्धि प्राप्त करूं। सभा सदस्य उचित परामर्श दें।” (वही 1) सभा में सबको विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। स्तुति है कि “सभा में सबके मन वाणी समान हो” (वही 2) सभा में बोलने से यश भी बढ़ता है। एक मंत्र में वक्ता सभा में प्रभावी हो जाने की स्तुति करता है “इन्द्र हमें सभा के सामने ऐश्वर्यवान बनाएं – अस्या सर्वस्या संसदो मामिन्द्र भगिनं कृणु।” (वही 3) मंत्र में संसद शब्द का प्रयोग ध्यान देने योग्य है। अथर्ववेद के रचनाकाल में संसद जैसी कल्पना विचारणीय है। सभा में प्रभावी वक्ता होने की इच्छा रखने वाला स्तोता केवल इन्द्र पर ही निर्भर नहीं है। कहते हैं “सभा में उपस्थित सभी सभासदो के ज्ञान विज्ञान को गृहण करता हूं और लाभान्वित होता हूं।” (वही 3) वरिष्ठों से सीखना उपयोगी है। यह कार्य सभा के प्रति आदरभाव से ही संभव है। वक्ता का आग्रह है कि उसकी बातें सावधानीपूर्वक सुनी जाएं।” कहते हैं कि “हम भिन्न विचार वाले मन को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। आप सब सावधानीपूर्वक हमारी बात सुने। उन पर विचार करें।” (वही 4)
सभा का नामकरण ध्यान देने योग्य है। शब्द सभा का प्रथम अक्षर ‘स’ है। स का एक अर्थ सहित है। सहित में भी हित के पहले स है। सभा का भा प्रकाशवाची है। सभा सहमना, सहधर्म, या सामंजस्य होने के कारण प्रकाशमान है। सभा के सदस्य प्रकाशमान होते रहे हैं। अथर्ववेद में सभा सदस्यों को ‘पितरः’ कहा गया है। (7.12.1) यहां पितरः का अर्थ वरिष्ठ, अग्रज या ज्येष्ठ है। आधुनिक भारत की संसदीय परंपरा में लोकसभा, राज्यसभा या विधानसभा के सदस्यों को माननीय सदस्य कहते हैं। अथर्ववेद का ‘पितर’ शब्द महत्वपूर्ण है। तब सभा के सदस्य अनुभवी ज्ञान विज्ञान में वरिष्ठ होते थे। अथर्ववेद (20.128.1) में “सभासद को सभेय” कहा गया है। ऐसे विद्वान सदस्यों के बारे में कहा गया है कि उन्हें दिव्य शक्तियों की कृपा ने अग्रणी बनाया है।
सभा व समिति का क्रमशः विकास हुआ है। अथर्ववेद (8.10) में इस विकासक्रम का इतिहास है। बताते हैं कि पहले वह विराट थी। उसने ऊध्र्वगमन किया। वह गार्हपत्य हुई।” (वही 1-2) गार्हपत्य परिवार संस्था का विकास है। फिर कहते हैं कि उसने ऊध्र्वगमन किया। वह आहवनीय यज्ञ संस्था में प्रवष्टि हो गई। जो यह बात जानते हैं, देव विद्वान उनके आवाहन स्थल पर जाते हैं। (वही 4-5) सामाजिक विकास का यह चरण परस्पर विमर्श की शुरूवात का है। इसी तरह आगे बताते हैं कि उस शक्ति ने फिर ऊध्र्वगमन किया। विकास किया। वह शक्ति सभा में प्रवष्टि हो गई। सभा का विकास हुआ। कहते हैं कि जो यह तथ्य जानते हैं कि वे सभा के योग्य है सभ्य हैं – यनत्यस्य सभां सभ्यो भवनि।”(वही 9-10) यहां बहुत महत्वपूर्ण बात कही गई है। यहां सभा की योग्यता सभ्य होना है। आगे समिति के बारे में कहते हैं, “विराट शक्ति ने ऊध्र्वगमन किया। वह समिति हो गई। जो इस तथ्य के जानकार हैं वे समित्य सम्मान योग्य होते हैं।” (वही 10-11) अथर्ववेद के रचनाकाल तक सभा और समिति जैसी लोकतंत्री संस्थाएं परिपूर्ण रूप में विकसित हो चुकी थीं। वे ऋग्वेद के रचनाकाल में भी थी। ऋग्वेद के अंतिम सूक्त में ‘समानो मंत्रः समितिः समानी’ का उल्लेख है।
अथर्ववेद में सभा का आदर्श भी है। सभा के विशेषाधिकार का संरक्षण भी सभा ही करती थी। ऋषि कवि भृगु कहते हैं, “इस सभ्य सभा के सभी सभ्य सदस्य इस सभा का संरक्षण करें – सभ्य सभां में पाहि ये च सभ्याः सभासदः।” (19.55.5) यहां दो बार सभ्य शब्द आया है। तब सभा में भद्र और शोभन आचरण थे। वैदिक काल के बाद महाभारत काल में सभा की शक्ति घटी। सभा में अनुचित और अभद्र आचरण हुए। परस्पर विमर्श का वातावरण समाप्त हो गया। सभा में मतभेदो का निवारण असंभव हो गया। तभी युद्ध अपरिहार्य हो गया। सभा अपना काम कर रही होती तो महाभारत न होता। सभा को सुंदर विमर्श का लोकतंत्री मंच बनाना हम सबका राष्ट्रीय कर्तव्य है।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)