अपनी चोटी में बांध लो दुनिया
नवम्बर से सरकारी स्कूलों में मुफ्त सेनेटरी नैपकिन बांटने के लिए शासन ने बीस करोड़ रुपये जारी कर बीएसए व डीआईओएस को इसका जिम्मा सौंपा है। मुख्य सचिव आलोक रंजन ने सभी जिलाधिकारियों, बेसिक शिक्षा अधिकारियों व जिला विद्यालय निरीक्षकों को निर्देश दिये हैं कि ‘किशोरी सुरक्षा योजना’ के तहत सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाली किशोरियों को मुफ्त सेनेटरी नैपकिन बांटना सुनिश्चित किया जाये।”
कॉलेज की लाइब्रेरी में एक अखबार में छपी यह खबर सुर्ख़ियों में थी। कुछ लड़कियां शर्म से मंद-मंद मुस्करा रही थीं तो कुछ इसे अनिवार्य पाठ की तरह बोल-बोल के पढ़ रही थीं और सरकार के इस निर्णय की जमकर प्रशंसा कर रही थीं। प्रशंसा करने वाली वे लड़कियां थीं जो ऐसे परिवेश से आती थीं जिसमें माहवारी को नैसर्गिक और सहज माना जाता था। ये लड़कियां दुकानदार से बेधड़क सेनेटरी नैपकिन मांग सकती थीं। अपनी छोटी बहनों, संगी-साथियों से इस विषय पर खुल कर बात कर सकती थीं। टेलीविज़न पर आ रहे अन्य विज्ञापनों की तरह ही ‘सेनेटरी नैपकिन’ के विज्ञापन को भी बिना अपने परिजनों से नज़र छुपाए, बिना किसी अपराधबोध के सहज हो देख सकती थीं।
इस समाचार को पढ़कर, इसकी महत्ता को समझते हुए भी जो लड़कियां शर्म और संकोच से दबी जा रही थीं, इस विषय पर चुहल करते सहपाठी लड़कों को झेलने के लिए किसी अपराधी की तरह अभिशप्त थीं, वे अपने ही जीवन के इस नितांत अनिवार्य मासिक चक्र को यूं ही उपेक्षित नहीं कर रही थीं वरन् उन्हें इससे घृणा करना परम्परागत रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाया गया था। एक किशोरी जो अपनी मासूम और नाजुक उम्र में हो रहे पल-पल के परिवर्तनों से अनजान रहती है। शरीर में बदलते हार्मोन्स के कारण हो रहे मानसिक बदलाव से एकदम अनभिज्ञ रहती है। जिस उम्र में उसे मार्गदर्शन की, उचित देखभाल की जरूरत होती है और वह आशा करती है कि उसके इशारे तक को मां, दादी या बड़ी बहन के द्वारा समझ लिया जायेगा। जिस समय वह अपने शारीरिक और मानसिक परिवर्तन से जूझती हुई, चिड़चिड़ी, हैरान और परेशान हो जाती है उस समय उसकी मददगार होती हैं चंद सहेलियां जो खुद भी उम्र के उसी नाजुक दौर से गुजर रही होती हैं और इस सन्दर्भ में उनका ज्ञान भी आधा-अधूरा ही होता है। ऐसे घरों में जहां लड़कियों का इस मामले में खुलकर बोलना भी निर्लज्जता की श्रेणी में आता है, उन्हें महीने के सात दिन किसी अछूत की तरह रखा जाता है। इस दुराव-बचाव के कारण घर के बड़े-बुजुर्ग, स्त्री-पुरुष सभी जान जाते हैं और अजीब सी नज़रों से उस ‘अछूत’ को घूरने लगते हैं। इस अजीब सी नज़र को पीठ पर झेलती वह ताउम्र इससे नज़र नहीं मिला पाती।
हालांकि माहवारी से जुड़े ये हास्यास्पद और घृणित व्यवहार अब ग्रामीण अंचलों की अपेक्षा शहरों में कम होते जा रहे हैं। शिक्षा और संचार माध्यमों का सकारात्मक प्रभाव भी माहवारी सम्बन्धी गलत धारणाओं और मिथकों पर पड़ा है फिर भी सेनेटरी नैपकिन गरीब तबके की लड़कियों की पहुंच से परे है। ऐसे में सेनेटरी नैपकिन को मफ्त में बांटने की सरकार की यह पहल बेहद सराहनीय है। यदि मिड डे मील जैसी अन्य सरकारी योजनाओं की तरह यह योजना असफल न हो और शासन द्वारा जारी बीस करोड़ रुपये ईमानदारी से इस अति आवश्यक कार्य के लिए उपयोग किये जाएं तो निश्चित ही एक दिन हमारी ये संशयग्रस्त-शर्मीली किशोरियां भविष्य की साहसी और स्वस्थ युवतियां होंगी जिनकी मुट्ठी में आसमान होगा और जो अपनी चोटी में दुनिया को बांध लेने का दम भरेंगी।
यदि मिड डे मील जैसी अन्य सरकारी योजनाओं की तरह यह योजना असफल न हो और शासन द्वारा जारी रुपये ईमानदारी से उपयोग किये जाएं तो निश्चित ही एक दिन हमारी ये संशयग्रस्त-शर्मीली किशोरियां भविष्य की साहसी और स्वस्थ युवतियां होंगी जो अपनी चोटी में दुनिया को बांध लेने का दम भरेंगी।