अपने बच्चों को मुसीबतों से बचाना है तो करे यह व्रत
संतान सप्तमी व्रत का एक और नाम मुक्ताभरण है। इस वर्ष यह व्रत 08 सितंबर यानी गुरुवाक के दिन है। इसे भाद्रपद की सप्तमी तिथि को किया जाता है। यह व्रत पुत्र-प्राप्ति, पुत्र रक्षा के लिए महिलाएं करती हैं। इस व्रत को दोपहर तक किया जाता है। इस दिन महिलाएं चौक (रंगोली) बनाकर, चंदन, अक्षत (चावल), धूप, दीप, सुपारी नारियल आदि से शिव-पार्वती की पूजा करती हैं।
इस दिन नैवेद्य-भोग के लिए खीर-पूड़ी और गुड़ के पुए बनाकर भगवान को अर्पित किए जाते हैं। इस दिन जाम्बवती के साथ श्यामसुंदर तथा उनके बच्चे साम्ब की पूजा भी की जाती है। माताएं पार्वती का पूजन करके पुत्र प्राप्ति और उसके अच्छे भविष्य के लिए प्रार्थना करती हैं।
व्रत की कथा
एक बार श्रीकृष्ण ने युधिष्ठर को बताया कि मेरे जन्म से पहले किसी समय मथुरा में लोमश ऋर्षि आए थे। मेरे माता-पिता देवकी और वासुदेव ने भक्ति पूर्वक उनकी पूजा की तो ऋर्षि ने कहा कि, हे देवकी! कंस ने तुम्हारी कई संतान को मार दिया है। इस दुख से मुक्त होने के लिए तुम संतान सप्तमी का व्रत करो।
राजा नहुष की रानी चंद्रमुखी ने भी यही व्रत किया था। तब लोमश ऋर्षि ने विधि-विधान से इस पूरी कथा को सुनाया, जो इस तरह है।
नहुष अयोध्या के प्रतापी राजा थे। वहां विष्णुदत्त नामक ब्रह्मण भी रहता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। चंद्रमुखी तथा रूपवती में परस्पर स्नेह था। एक दिन दोनों सरयू में स्नान करने गईं। वहां स्नान के बाद कई स्त्रियां भगवान शिव-पार्वती की पूजा कर रही थीं।
उन स्त्रियों से जब उस पूजा के बारे में दोनों ने पूछा तो उन्होंने बताया कि वह संतान सप्तमी का व्रत कर रही हैं। स्त्रियों की बात सुनकर उन्होंने इस व्रत को करने का संकल्प लिया। मगर, घर जाकर वह इस व्रत के बारे में भूल गईं। मृत्यु के पश्चात रानी ने वानरी और ब्राह्मणी ने मुर्गी के रूप में जन्म लिया।
इसके बाद पशु योनि छोड़कर उन्होंने मनुष्य के रूप में फिर से जन्म लिया। इस बार चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी और रूपवती ने एक ब्राह्मणी के घर जन्म लिया। इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी और ब्राह्मणी का नाम भूषणा रखा गया।
भूषणा का विवाह राज-पुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ। इस जन्म में दोनों की फिर दोस्ती रही। व्रत भूलने के चलते रानी इस जन्म में नि:संतान रही। उसका पुत्र तो हुआ पर वह मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के कारण जल्दी मर गया। इसी बीच ब्राह्मणी को व्रत याद रहा इसलिए उसके आठ स्वस्थ पुत्र हुए।
रानी यह देखकर अपनी सहेली से द्वेष रखने लगी और उसके पुत्रों के भोजन में जहर मिला दिया। ब्राह्मणी के पुत्रों को कुछ नहीं हुआ। रानी जब कुछ न कर सकी तो वह अपनी सखी से मिली। तब ब्राह्मणी ने इस व्रत के बारे में बताया और पूर्व जन्म की पूरी कहानी सुनाई।
रानी को अपने किए पर पछतावा हुआ और फिर दोनों ने साथ मिलकर संतान सप्तमी का व्रत किया। इसके बाद दोनों को विभिन्न जन्मों में निः संतान नहीं रहना पड़ा।