अपने, सबके और राष्ट्र के रामनाथ कोविंद
रामनाथ कोविंद ध्येयनिष्ठ समाजसेवी हैं। सबके प्रति आत्मीय। सहज मिलनसार। अपरिचित के लिए भी सुपरिचित से ज्यादा आत्मीय। अतिसंवेदनशील प्रामाणिक मनुष्य। भारतीय राष्ट्रभाव के धारक और देशभक्त। उनकी ऐसी क्षमताओं और अंतरंग व्यक्तित्व की चर्चा होनी चाहिए। उनके संविधाननिष्ठ और संविधान के जानकार होने की भी चर्चा कम हो रही है। भारतीय लोकतंत्र पुष्ट हो रहा है, तो भी विकासमान दशा में है। स्वाभाविक ही यहां अनेक दल हैं। कुछेक दलों के भिन्न विचार भी हैं। लेकिन तमाम दल बिना विचार के भी हैं। कुछ दलों की प्रतिक्रिया जाति आधारित आई है। वे भूल रहे हैं कि राष्ट्रपति का आसन भारत की प्रतिष्ठा है। चुनाव के दौरान विरोध भी होते हैं लेकिन विरोध को वैचारिक आधार तक ही सीमित रखना चाहिए। जाति आधारित विवेचन उचित नहीं होते। राष्ट्रपति के निर्वाचन में तो बिल्कुल नहीं। ध्यान रखना होगा कि सतत् विकासमान भारतीय लोकतंत्र में हरेक चुनाव की विशेष भूमिका होती है। राष्ट्रपति का चुनाव तो आदर्श परंपरा में ही सम्पन्न होना चाहिए।
रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति चुना जाना तय है। उनके जीवन के सत्कर्म और अनुभवों के विवरण सार्वजनिक हो चुके हैं। वे सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता रहे हैं और दो बार संसद के उच्च सदन के सदस्य। वे विभिन्न समितियों में अनेक देशों की यात्रा कर चुके हैं। उनका सार्वजनिक जीवन सुप्रतिष्ठित रहा है। लेकिन इन सब बातों की चर्चा गौण है। चर्चा के शीर्ष पर उनकी जाति है। दुनिया के सबसे बड़े देश के सर्वोच्च आसन पर बैठने जा रहे कोविंद जी की अन्य तमाम विशेषताओं का उल्लेख होता तो हमारे टिप्पणीकार और समाचार माध्यम ज्यादा यशस्वी होते। उनकी विनम्रता, शालीनता, प्रतिभा और प्रतिष्ठा के अनेक आयाम हैं। कोई यों ही आसमान नहीं छू लेता। उड़ान की जिजीविषा होती है। उड़ान भरने के संकल्प होते हैं। संकल्प और स्वप्न जमीन पर पांव जमाकर तेज रफ्तार दौड़ाते हैं, वह पंख फैलाकर उड़ता है और आकाश छूता है। वायुयान भी उड़ने के पहले जमीन पर ही दौड़ता है। तेज रफ्तार गतिशील होता है। उड़ते हुए बादलों में जाता है। वह बादलों को भी पार करता है। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का प्रतिरोध आसान नहीं होता। रामनाथ कोविंद का सार्वजनिक जीवन ऐसा ही रहा है।
जन्मना जाति व्यक्तिगत चयन नहीं होती। यह अपने आप लागू होती है। यह किसी व्यक्ति की प्रतिभा और कर्मठता का पुरस्कार नहीं होती। यह किसी व्यक्ति की गलती का दंड भी नहीं होती। यह राष्ट्रीय एकता में बाधक है। जाति से त्याग पत्र भी संभव नहीं। धर्मान्तरण संभव हैं, वे होते भी हैं लेकिन एक जाति से दूसरी जाति में जाना असंभव है। जाति आधारित सामाजिक संरचना हेय है। इसीलिए शंकराचार्य, विवेकानंद और दयानंद से लेकर गांधी, डॉ. हेडगेवार, डॉ. अम्बेडकर और डॉ. लोहिया तक जाति उन्मूलन के खुले संघर्ष हैं। बेशक ऐसे सभी महानुभावों के अपने भिन्न तरीके रहे हैं लेकिन सबका उद्देश्य जाति उन्मूलन ही रहा है। कुछेक दलों की चुनाव राजनीति जाति गणित का लाभ उठाती है। जाति विशेष को आकर्षित करने वाले दल जातीय चेतना को बारंबार शक्ति देते हैं। जाति पुनर्जीवित हो जाती है। टिप्पणीकर्ताओं के लिए जाति ही मसाला है। भारत में राष्ट्रपति का पद सर्वाेच्च आसन है। डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय संविधान सभा में संविधान का प्रारूप रखते हुए कहा था इस प्रारूप के अनुसार हमारे प्रेसीडेन्ट का वही स्थान है जो अंग्रेजी विधान के अन्तर्गत सम्राट का है। ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था में सम्राट गलती नहीं करता – किंग कैन डू नो रांग।
ब्रिटिश परंपरा में विपक्ष भी राजा का आज्ञाकारी बताया गया है। भारत का राष्ट्रपति भी सत्ता और विपक्ष से ऊपर है। वह संसद का अंग है। वह राष्ट्र का प्रधान है। कार्यपालिका उसकी सहायक है। वह राष्ट्रपति है। संसदीय वाद-विवाद में उसकी चर्चा नहीं हो सकती। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच हुए कथित पत्राचार को लेकर कुछ बहस चलने वाली थी। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए प्रधानमंत्री ने 1987 में ‘राष्ट्रपति के पद का सम्मान करने और इस पद को राजनीति से ऊपर रखने के लिए राज्यसभा में सदस्यों से दृढ़ अनुरोध किया था। लोकसभाध्यक्ष ने भी 19 मार्च 1987 के दिन इसी विषय पर इसी तरह अपना निर्णय सुनाया मैं इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट हूं कि सभा में कोई भी वाद-विवाद इस प्रकार का नहीं किया जाना चाहिए जिससे राष्ट्रपति पद के बारे में कोई विवाद उत्पन्न हो। इस प्रकार की चर्चाओं से बचना राष्ट्र के व्यापक हित में होगा। हम अभी भी स्वस्थ परंपराओं का विकास करने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। हमें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे इस प्रक्रिया को नुकसान पहुंचे। राष्ट्रपति का आसन विवाद से परे है। वह भारतीय राष्ट्र राज्य का मुकुट है। वह सभी विवादों-विभेदों से ऊपर है। इसलिए देश के सर्वोच्च आसन पर बैठने जा रहे किसी महानुभाव को किसी जाति सम्प्रदाय से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।
साम्प्रदायिकता को लेकर तमाम राजनैतिक बहसें होती हैं। साम्प्रदायिता सुपरिभाषित नहीं है। दुनिया के तमाम देश भिन्न-भिन्न समूहगत अस्मिताओं का जोड़ हैं। भारत समूहगत अस्मिताओं का योग नहीं। प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाली बहुलता वस्तुत: गहन सांस्कृतिक एकता की ही अभिव्यक्ति है। बहुलता ऊपरी है, परिधिगत है और सांस्कृतिक एकता केन्द्रीय तत्व है। इस केन्द्रीय तत्व का मूलाधार सांस्कृतिक राष्ट्रभाव है। राष्ट्र धु्रव सत्य है। यही एकमात्र वास्तविक अस्मिता है। इसलिए राष्ट्र से भिन्न कोई भी सामूहिक अस्मिता सुंदर नहीं होती। आभासी अस्मिताओं के टकराव से ही साम्प्रदायिकता का जन्म होता है। राष्ट्र से भिन्न सारी अस्मिताएं राष्ट्रीय एकता में बाधक हैं। संप्रति जाति, पंथ, रिलीजन या मजहब राष्ट्र सर्वोपरिता में घुलने को विवश हैं। जाति फिलहाल सामाजिक सच्चाई भले ही दिखाई पड़ती हो लेकिन इसका जीवन अब अल्पकालिक ही है। जातियों को विदा करने में ही राष्ट्र का लोकमंगल है। भारत के सभी समाज सुधारक जातिविहीन समाज चाहते थे। कबीर ने जाति न पूछो साधु की गाकर इसी भावभूमि को बोली दी है। संविधान निर्माताओं ने इस लक्ष्य को उद्देशिका में सम्मिलित भी किया है।
जाति के जन्म का इतिहास नहीं मिलता। ऋग्वेद के रचनाकाल में जातियां नहीं हैं। दसवें मण्डल के एक मंत्र से कुछ लोग वर्ण व्यवस्था के सूत्र निकालते हैं। दसवां मण्डल बाद का है। पुरुष सूक्त के मंत्र से वर्ण का अर्थ निकलता भी नहीं। जाति व्यवस्था तब थी ही नहीं। उत्तरवैदिक काल में वर्णों का विकास हुआ होगा। लेकिन वर्ण जड़ पहचान नहीं थे। एक वर्ण से दूसरे वर्ण में आवाजाही के भी साक्ष्य हैं। विवाह में भी वर्ण बाधक नहीं थे। इसके बाद किसी दुर्भाग्यपूर्ण कालखण्ड में जातियों का विकास हुआ। उपनिषद् दर्शन में जाति वर्ण की विशेषता खोजे भी नहीं मिलती। भारत के लोगों को जाति सहित सभी संकीर्णताओं की समाप्ति के लिए किसी अन्य देश, सभ्यता या संस्कृति की ओर देखने की जरूरत नहीं। भारत के प्राचीन इतिहास में ही वर्णहीन जातिविहीन समाज था। आधुनिक भारत के निर्माण के लिए हम प्राचीन भारतीय दर्शन का सदुपयोग क्यों नहीं करते? सुंदर अतीत को भव्य अधुनातन बनाने और असभ्य अतीत को नमस्कारों सहित त्याग देने में ही भलाई है।
रामनाथ कोविंद ध्येयनिष्ठ समाजसेवी हैं। सबके प्रति आत्मीय। सहज मिलनसार। अपरिचित के लिए भी सुपरिचित से ज्यादा आत्मीय। अतिसंवेदनशील प्रामाणिक मनुष्य। भारतीय राष्ट्रभाव के धारक और देशभक्त। उनकी ऐसी क्षमताओं और अंतरंग व्यक्तित्व की चर्चा होनी चाहिए। उनके संविधाननिष्ठ और संविधान के जानकार होने की भी चर्चा कम हो रही है। भारतीय लोकतंत्र पुष्ट हो रहा है, तो भी विकासमान दशा में है। स्वाभाविक ही यहां अनेक दल हैं। कुछेक दलों के भिन्न विचार भी हैं। ऐसा स्वाभाविक भी है। लेकिन तमाम दल बिना विचार के भी हैं। कुछ दलों की प्रतिक्रिया जाति आधारित आई है। वे भूल रहे हैं कि राष्ट्रपति का आसन भारत की प्रतिष्ठा है। चुनाव के दौरान विरोध भी होते हैं लेकिन विरोध को वैचारिक आधार तक ही सीमित रखना चाहिए। जाति आधारित विवेचन उचित नहीं होते। राष्ट्रपति के निर्वाचन में तो बिल्कुल नहीं। ध्यान रखना होगा कि सतत् विकासमान भारतीय लोकतंत्र में हरेक चुनाव की विशेष भूमिका होती है। चुनाव आदर्श परंपराओं के विकास का भी अवसर होते हैं। राष्ट्रपति का चुनाव तो आदर्श परंपरा में ही सम्पन्न होना चाहिए। विश्व भारत की ओर टकटकी लगाकर देख रहा है। ल्ल
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं उ.प्र. विधानसभा के अध्यक्ष हैं)