हालांकि, कर्नाटक में जिस तरह कांग्रेस ने जदएस जैसे छोटे क्षेत्रीय दल का जूनियर पार्टनर बनना स्वीकार किया है, उससे जाहिर है कि कांग्रेस को 2019 लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों के पिछलग्गू की भूमिका ही निभानी होगी। शनिवार को इसीलिए राहुल के सुर बदले हुए थे। उन्होंने क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर भाजपा को हराने का दावा किया। नतीजे बताते हैं कि अगर कांग्रेस और जदएस ने चुनाव पूर्व गठबंधन किया होता तो वे कर्नाटक की 224 में से 157 सीटें जीत सकते थे। यानी भाजपा को महज 65 सीटों पर सिमटना पड़ता। इन्हीं नतीजों को अगर लोकसभा के स्तर पर देखा जाए तो भाजपा कर्नाटक की 28 में 10 सीटें ही जीत पाएगी।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और बसपा अध्यक्ष मायावती ने कांग्रेस को जदएस के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन की सलाह दी थी। तब मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को अपनी सरकार के प्रदर्शन, कन्नड़ और लिंगायत कार्ड की बदौलत जीतने का पूरा भरोसा था। कर्नाटक के नतीजों ने कांग्रेस का अभिमान तोड़ दिया है। मणिपुर, गोवा और मेघालय में कांग्रेस केवल अपने घमंड के चलते सरकार बनाने में असफल रही।
भाजपा का देशव्यापी प्रसार
भाजपा के तेजी से होते विस्तार ने विपक्षी दलों में भय का संचार कर दिया है। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने सहयोगियों के साथ 80 में 73 लोकसभा और 403 विधानसभा में 325 सीटें जीतकर दबदबा दिखा दिया। बिहार में जद (यू) और राजद गठबंधन टूटने पर वहां भी अपनी सरकार बना ली। पश्चिम बंगाल में वामदलों के 37 साल के दबदबे और कांग्रेस को पीछे छोड़ती हुई वह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। ओडिशा में भी कांग्रेस तीसरे नंबर पर है। 20 साल से सत्ता पर काबिज बीजद को भाजपा से चुनौती मिल रही है। कर्नाटक में वह सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। अब उसकी निगाहें तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सरकार बनाने पर है। पूर्वोत्तर के सात में छह राज्यों में अब भाजपा और सहयोगियों की सरकार है।
मिलकर चुनाव लड़ना ही विकल्प
ऐसे में विपक्षी दलों के पास मिलकर चुनाव लड़ने के अलावा कोई चारा नहीं है। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा ने साथ लड़ने का निश्चय किया है। अन्य राज्यों में भी भाजपा के खिलाफ साझा उम्मीदवार उतारने की कोशिश हो रही है। इन कोशिशों में एक बात तय है कि कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों के साथ साझेदारी में जूनियर पार्टनर की भूमिका निभानी होगी।