आपातकाल: आगे की कथा…
आपातकाल : स्वातंत्र्योत्तर भारतीय इतिहास का संक्रमण काल। एक निरंकुश सत्तालोलुप शासक द्वारा लोकतंत्र पर कुठाराघात और अधिनायकवादी व्यवस्था थोपने का काल। लाखों निरपराध नागरिकों के बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया या उपचार के अनिश्चितकाल तक कारागार में बन्द होने का काल। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्पूर्ण दमन का काल। आपातकाल के समय लगभग सोलह महीने तक कारागार में बंद रहे तब उन्नीस वर्ष के युवक और अब युनाइटेड किंगडम में एक वरिष्ठ गैस्ट्रोएंटरलॉजिस्ट के पद पर कार्यरत डॉक्टर प्रदीप सिंह की कलम से उनकी आँखों देखी कहानी की अंतिम किश्त, उस काले समय का एक प्रमाणिक दस्तावेज। हम चाहते हैं कि इतिहास के पन्नों पर जो ठीक से दर्ज न हुआ, उससे भी आप रूबरू हों।
वाराणसी केन्द्रीय कारागार का परिसर विशाल था। एक कोने में क्या हो रहा है, दूसरे कोने को अक्सर बहुत देर से पता चलता था। मैं कारागार के तनहाई वाले भाग से बोरिया बिस्तर हाथ में लिए पक्के के नेतृत्व में अंधेरी रात में अपने नए गन्तव्य की ओर बढ़ा। उस समय मेरे मन की दशा कैसी थी, इसका वर्णन करने का सामथ्र्य मेरी लेखनी में नहीं है। आप शायद अनुमान लगा लें। दस बारह दिनों से अधिकांश समय अंधेरी कोठरी में बंद छुटभैए तस्करों की सोहबत का आनंद लेता लड़का चल पड़ा समानधर्मा राजनीतिक कैदियों की बैरक की ओर। संगत मनुष्य की मूल आवश्यकताओं में से एक है। भोजन, पानी, शौचालय और बिस्तर की तरह ही। आपको इस बात में विश्वास न हो तो एकाध हफ्ता किसी जेल में गुजार कर देख लीजिए।
मेरा सिर हवा में उड़ रहा था और दिल धड़क रहा था। शायद ऐसे ही राजा राम का दिल धड़का होगा अयोध्या लौटने पर। रात के कोई आठ बजे थे। नियम के मुताबिक बैरक का ग्रिल वाला दरवाजा बंद था। पक्के ने चाबियों का गुच्छा जेब से निकाला। उधर दरवाजे के अंदर से कई आँखें बाहर देख रही थीं। दरवाज़ा खुला और बैरक में नारा गूंजा-लोकनायक जयप्रकाश जिन्दाबाद, जिन्दाबाद। नौजवान लोग थे। उत्साह और प्रेम से भरे। उनमें से एक आजमगढ़ का लड़का था जिससे पहली बार मिला था। चेहरा याद है, नाम दिमाग से उतर गया है। निश्छल, शुद्ध हृदय का स्वामी, प्रेम से उपजे सेवा भाव में डूबा हुआ। गौर वर्ण, सुंदर देहयष्टि, नई किशोर दाढ़ी, पहलवान सा बदन, सदा हँसने को तैयार निर्दोष मुखड़ा। मेरा स्वागत कुछ यूँ हुआ जैसे मैं कोई बड़ा युद्ध जीत कर अपने घर लौटा होऊँ । मेरे आनन्द की सीमा न थी। ऐसे आनन्द का अनुभव तो मुझे कारावास से मुक्त होने पर भी नहीं हुआ।
मेरे लिए मेरे भाइयों ने एक ढूहे का इन्तज़ाम कर रखा था। उस पर जेल वाला पतला गद्दा और फिर उसपर सफेद चादर और जेल वाली रजाई या कम्बल। हम देर रात तक गप करते रहे। आनन्दातिरेक में मैं रात भर ठीक से सो नहीं पाया। ऐसा बिस्तर तो किसी भाग्यशाली को ही नसीब होता है। सुबह उठा तो भाइयों के साथ जेल की वह गरम-गरम नमकीन दलिया। अभूतपूर्व स्वाद। ऐसी दलिया फिर कभी खाने को नहीं मिली। एक बार मैंने यहाँ इंगलैंड में वैसी दलिया बनाने की चेष्टा की थी जो बुरी तरह असफल रही थी। बाहर बैरक से लगे बरामदे में अलाव पर लालमुनि चौबे, महेन्द्ननाथ सिंह, कन्हैया जी और वह आजमगढ़ का युवा और बहुत सारे प्यारे लोग। दलिया, दलिया के ऊपर थोड़ा सा कहीं से लाया गया घी और मिर्च। और फिर चाय दर चाय। और घंटों बतकही। रामचरितमानस से लेकर दास कैपिटल तक। गांधी से लेकर जयप्रकाश तक। रेणु से लेकर नागार्जुन तक। कबीर से लेकर हजारी तक। ऐसा माहौल तो किसी बिरले को सपने में ही मिलता होगा।
कन्हैया जी अब भभुआ में वकील हैं। उनका जिक्र मैंने कहीं और किया है। पर फिर भी उनका जिक्र फिर से न करना मेरे लिए संभव नहीं है। कन्हैया जी मुझ से दो तीन साल ही बड़े रहे होंगे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विधि संकाय में विद्यार्थी थे। कन्हैया जी हम पाँच सात लोगों के गिरोह की माँ थे। लालमुनि चौबे इस गिरोह के लीडर थे। कन्हैया जी, आज चाय नहीं मिलेगी क्या? कन्हैया जी, तौलिया कहां है? कन्हैया जी, आज तो हद ही हो गई, साबुन नहीं है, हम कैसे नहाएँ? और कन्हैया जी हमें पुचकारते हुए कर्तव्य भाव से हमारी जरूरतों और हमारी शिकायतों का हल ढूँढ़ने में लग जाते। कन्हैया जी के चेहरे पर शिकन किसी ने न देखी। जैसे बच्चे की शैतानी देख माँ के मुखड़े पर दुलार भरी मुस्कान फैल जाती है, उनके चेहरे पर वैसी ही मुस्कान विराजमान रहती थी।
और लालमुनि चौबे! उनके बारे में विस्तार से अलग से लिखा है। चौबे जी हमारी मेस के स्वस्थापित स्वयंभू अध्यक्ष थे। यह मांसाहारी मेस थी। हफ्ते या पखवाड़े में एक दिन मुर्गा शायद मिलता था। आजम खान भी इस मेस के सदस्य थे। इस मेस में राजनीतिक विचारधारा का कोई भेदभाव नहीं था। सम्पूर्ण समाजवाद का अखंड राज्य था। चौबे जी खाने के तो कम पर पकाने और खिलाने के बड़े शौकीन थे। यह काम धीरे धीरे होता जैसे किसी राग का मद्धम मद्धम उठता आलाप-जल्दी किस कम्बख्त को थी? उस व्यंजन की तैयारी की बारीक विधियों पर लम्बी वार्ता होती। फिर भोजन, और भाग्य हुआ तो भांग या भांग की ठंढई। और फिर धीरे-धीरे हम सब अपने ढूहों की ओर प्रस्थान करते। मेरा क्लास-सी था, बाकी भाइयों का ऊँचा क्लास-बी था। पर उससे क्या? कुछ दिनों बाद मेरी पदोन्नति भी हुई, मैं उनकी बराबरी में आ गया।
ये फ़ुरसत के दिन थे। घनघोर फुरसत के दिन। वैसी फुरसत फिर कभी नसीब न हुई, आगे भी नहीं होगी। हमें नहीं पता था हम कब तक बंद रहेंगे, पर जिन्हें इस बात की चिन्ता न सताती हो, उनके लिए तो ये कैद के नहीं, अखंड मुक्ति के दिन थे। हमारे पास अनंत समय था। मुझे मालूम था कि मेरा डॉक्टरी का कैरियर समाप्त हो चुका था और सच बताऊँ मुझे इस बात की रत्ती भर परवाह न थी। मैं युवा था, नियम कानून, पारिवारिक जिम्मेदारियों के बोझ से मेरे कंधे न झुके थे। मैं गप मारने, गोष्ठियां करने, पढ़ने, खाने, सोने में डूबा हुआ था। डॉक्टरी-फाक्टरी की कोई चिंता मुझे न थी। मैंने बनारस मेडिकल स्कूल के तत्कालीन डाइरेक्टर प्रोफेसर केएन उडुपा को एक पत्र अवश्य लिखा था जिसमें मैंने उन्हें सूचित किया था कि मैं जेल में मीसा कानून के तहत अनिश्चित काल के लिए बंद था और इसलिए कक्षाओं में उपस्थित नहीं हो सकता था। उडुपा साहब ने इस पत्र का उत्तर नहीं दिया। मेरे बाबू जी उनसे मिलने गए तो उनसे मिले भी नहीं। उडुपा साहब की गलती नहीं थी। सारे देश में आतंक का साम्राज्य था। मीसा के बंदी से मिलना, उसके घर वालों से मेलजोल रखना खतरे से खाली न था। ऐसे में कौन इन चक्करों में पड़े? बड़े-बड़े क्रांतिकारी नेता मेरे जैसे लोगों को देख (बंदी होने के पहले) मुँह फेर लेते थे। सरकारी संत विनोबा भावे के शब्दों में सर्वत्र अनुशासन पर्व का उत्सव मनाया जा रहा था। प्रबुद्ध वर्ग, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, पत्रकार इंदिरा की बीस सूत्री और संजय की पांच सूत्री योजनाओं की अखंड माला जप रहे थे-अखंड रामायण की तरह। तो फिर उडुपा क्या करते, वे कोई राधाकृष्णन थोड़े ही थे जिन्होंने अंग्रेजी राज के दिनों में पुलिस को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर में घुसने से रोक दिया था।
उन दिनों कई ऐसी घटनाएं हुईं जिन्होंने मानव हृदय के रहस्य को समझने में मेरी मदद की। जैसा मैंने पहले बताया उन दिनों आपके परिचित, मित्र, परिवार के लोग, रिश्तेदार कुछ यूँ बर्ताव करते थे जैसे आप कभी पैदा ही न हुए हों। ये सारे बहुत भले लोग थे। पार्टियों में जाते थे, बर्थ-डे मनाते थे, रेडियो पर गाने सुनते थे, सिनेमा हॉल में पिक्चर देखते थे, नौकरियां करते थे, कई हीरे जवाहरातों से भी शायद लदते रहे हों। ये उच्च आदर्शों के समुद्र में तैरने वाले लोग थे। इनके सिद्धांत बहुत ऊंचे थे-जैसे कि पढ़ने वालों को पढ़ने से काम रखना चाहिए वगैरह। ये समाज के पहरुआ थे। ऐसे में आपको कोई जेल में पत्र भेजे! सवाल ही नहीं उठता सर, लोग पागल थोड़े ही हैं। पर एक चिट्ठी आई। एक ही आई। मेरे एक सहपाठी की। दुर्भाग्य से वह चिट्ठी गुम हो गई है। मेरे और भी मित्र थे, इस शख्स से तो मेरी बहुत करीबी दोस्ती भी नहीं थी, राजनीति में तो उसकी कोई खास दिलचस्पी भी न थी। चिट्ठी आई और वहाँ से आई-आज तक मेरे लिए यह हैरत का विषय है। इस छोटी सी बात में मेरे देखे जीवन की कुंजी छिपी है। जिन रिश्तों को आप जिंदगी भर सहेजते हैं, चिड़िया की तरह पंख के नीचे सेवते हैं, वे समय आने पर कपूर की तरह उड़ जाते हैं और जिनका खयाल भी दिमाग में न आया था, वे धीरे से आपके पीछे खड़े हो जाते है और आपके कंधों पर अपने नरम हाथ रख देते हैं।
उन्हीं दिनों, शुरुआत के दिनों, एक और दिलचस्प घटना हुई। मेरे चाचा जी बनारस शहर के एक सम्भ्रांत नागरिक थे। बड़े-बड़े लोगों के साथ उनका उठना बैठना था। तब के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और एक समय में इंदिरा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे कमलापति त्रिपाठी के पुत्र लोकपति त्रिपाठी और बहू चन्द्रा त्रिपाठी से विद्यार्थी जीवन के दिनों की गाढ़ी पारिवारिक मित्रता थी। उन्हें लगा कि नौजवान लड़का है, भटक गया है, शायद समझाने से रास्ते पर आ जाय। वे मुझसे मिलने जेल में आए। यहाँ यह बताता चलूँ कि जेल में मीसा के कैदी से मिलना कोई हंसी खेल न था। महीने में एक घंटे की एक मिलाई का प्रावधान था। कोई गड़बड़ की तो वह भी बंद। और इस एक मिलाई की अनुमति लेने के लिए घर वालों को बहुत पापड़ बेलने पड़ते थे। इस दफ्तर, उस दफ्तर का चक्कर। कोई सीधे मुँह बात नहीं करता था। हर समय अपमानित होने का खतरा। और हो सकता था कि कई दिनों का चक्कर लगाने के बाद भी आपको मिलाई की अनुमति न मिले। अनुमति देने का अधिकार सिर्फ कलेक्टर को था। मेरे बाबूजी हर महीने दो महीने पचास मील दूर भभुआ से बनारस आते और मुझसे एक घंटे की भेंट के लिए इस लम्बी अपमानजनक प्रक्रिया से गुजरते।
यह कहना गलत न होगा कि चाचा जी अपने भतीजे की मन:स्थिति से ठीक से वाकिफ नहीं थे। बेचारे अपना धर्म निभा रहे थे जैसे घर के बड़े निभाते हैं। उन्होंने मुछसे कहा कि यदि मैं अपने अनुशासनहीन व्यवहार के लिए खेद जताते हुए एक पत्र लिख दूँ तो वे कमलापति त्रिपाठी से कह कर मामला रफा दफा करवाने की कोशिश करेंगे। यहाँ दो बातें कहना चाहूँगा। पहली बात तो यह कि आतंक का जो माहौल उन दिनों था उसमें कमलापति त्रिपाठी जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और केन्द्र सरकार में मंत्री तक की किसी मीसा बन्दी को छोड़ने की सिफारिश करने की औकात न थी। क्या पता बात फैले और संजय गांधी तक पहुँचे तो फिर क्या हो? कौन डाले अपना जी जंजाल में? और दूसरी बात। वह लिहाज का जमाना था। मेरी बात तो क्या मेरे बाबूजी अपने बड़े भाई की बात का जवाब नहीं देते थे। उन्हें “सरकार”, “अपने के” कह कर कभी-कभी सम्बोधित करते थे। जिन लोगों ने वह जमाना नहीं देखा है, उन्हें मेरी बात समझने में दिक्कत होगी। चाचा जी मेरे पिताजी के छोटे भाई थे। तो मैं तो उनसे कुछ कह न सका। लौट कर जब बैरक में आया तो मैंने उन्हें पत्र लिखा-“मैं आपकी चिंता समझता हूँ। पर आप ही बताइए, सिद्धांत सिर्फ किताबों में लिख कर आलमारियों में सजाने के लिए बने हैं?” वे मासूम जवानी के दिन थे, तब तक चालाकी ने दिल में डेरा न डाला था। हवा अभी ताजी थी, फूल अभी मुरझाए न थे।
दिन बीतते गए। जाड़ों का मौसम बीता, वसंत ऋतु फागुनी बयार लाई। फिर तपती हुई गर्मियाँ आईं, बरसात ने धावा बोला। फिर जाड़ा आया और फिर वसंत आया। होली, दशहरा, दीवाली और फिर होली। दो होलियां हमने ख़ूब खेलीं भांग पी-पी कर। तस्करी तो चलती ही थी, कई दफा सज्जन लोग जेलर जो बन कर आ जाते थे। हमारे ऊपर समय का कोई बंधन तो था नहीं। हमें बस रात और दिन का भेद मालूम था। दिन कौन सा, तारीख़ कौन सी, महीना कौन सा – इससे हमें क्या? अखबार एक दो आते थे-उनसे देश दुनिया की खबर मिल जाती थी। देश में हर दिन गिनी चुनी ख़बरें ही होती थीं। कृतज्ञ राष्ट्र के पालनहार महान युवा नेता संजय गांधी और उनकी सहधर्मिणी महान युवा नेत्री मेनका गांधी का भारत के क्षितिज पर उदय। उनके पांच सूत्री कार्यक्रमों की विद्वानों, बुद्धिजीवियों द्वारा गाई जा रही विरुदावली। इंदिरा जी के बीस सूत्री कार्यक्रम का अखंड पाठ। घर-घर में वृक्षारोपण की बाढ़ और नसबंदी की बहार। देश का मौन आकाश “इंदिरा इज़ इंडिया और इंडिया इज़ इंदिरा” के नारों से गुंजायमान था। नारायणदत्त तिवारी संजय गांधी का चप्पल ढो कर कृतकृत्य थे। ओम मेहता गृह राज्यमंत्री थे, जिसे चाहे बंद कर सकते थे। विद्याचरण शुक्ल सूचना प्रसारण मंत्री थे, “आंधी” और “किस्सा कुर्सी का” जैसी फिल्मों को प्रतिबंधित कर सकते थे, अखबार वालों को रास्ते पर रखते थे। बंसीलाल विपक्ष के देशद्रोहियों को अरब सागर में फेंकने की वकालत कर रहे थे। साम्यवादी क्रांतिकारी अमरीकी साजिश की छत्रछाया में पल रही देसी पूँजीवादी और प्रतिक्रियावादी फासिस्ट ताकतों के विरुद्ध सर्वहारा नेत्री इंदिरा जी के हाथ मजबूत कर रहे थे। उदीयमान राष्ट्रनेता संजय राष्ट्रसेवा में जान की बाजी लगाती उदीयमान सुंदरियों-अम्बिका सोनी और रुखसाना सुल्ताना (अमृता सिंह की माता) के संग दिन रात देश की मिट्टी को मथ रहे थे। संत विनोबा ने मौन व्रत धारण कर लिया था और कागज पर लिख कर देश की जनता को अनुशासन पर्व का जश्न मनाने का प्रवचन दे रहे थे। रेलें समय पर चल रहीं थीं, दफ्तर के बाबू टाइयां बांधना सीखने लग गए थे, चपरासी चैन से बीड़ी फूंक रहे थे। चारों तरफ एक अद्भुत सुकून का माहौल था। देशद्रोही रास्ते से हट गए थे और देश प्रगति के रथ पर सवार स्वर्ग की ओर तेजी से अग्रसर था।
यहाँ यह सब चल रहा था और मैं अपनी अंग्रेजी सलटा रहा था। देहाती गंवार लड़का था। किताबी अंग्रेजी लिख तो लेता था, बोलने का धड़का नहीं खुला था। अब धड़का तो जेल में कहाँ खुलता, पर मैंने अंग्रेज़ी पढ़ने समझने पर ख़ूब जोर दे दिया। टाइम्स ऑफ इंडिया का सम्पादकीय बार बार बांच कर जितने नए शब्द या मुहावरे दिखते, उन्हें टीपता और याद करने की कोशिश करता। पता नहीं कहां से पर्ल बक की किताब ळँी ॅङ्मङ्मिएं१३ँ हाथ लगी। तीन दिनों तक साँस रोक कर पढ़ गया। थॉमस हार्डी के उपन्यास पढ डाले, एलेस्टर मैक्लीन और जेम्स हेडली चेज़ का भी रसास्वादन किया। फिर हजारीप्रसाद द्विवेदी की वाणभट्ट की आत्मकथा और रेणु की मैला आँचल जैसी पुस्तकें घोंटीं और उनपर बहसों मुबाहसों में हिस्सा लिया। आप शायद कल्पना कर सकते हैं कि ये मेरे जैसे शख्स के लिए कारावास के नहीं, अनंत मुक्ति के दिन थे। समय, जिसने दुनिया को दास बना रखा है, हमारे चरणों में लोट रहा था।
कुछ दिन भोर में आसन करने का जोश चढ़ा। ध्यान का भी पहला प्रयास यहीं हुआ। बाहर मैदान में शवासन करते सो गया तो कल्याण सिंह (अरे वही) ने मेरी दोनों टाँगें पकड़ कर जमीन पर ३६० डिग्री का चक्कर लगा दिया। बहसा बहसी वाला आदमी था। सवाल पूछता था। चुपचाप दिमाग की खिड़कियां बन्द कर हाँ में हाँ नहीं मिला सकता था-इसी कारण यहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ और गरिष्ठ पदाधिकारियों से खटपट हुई जिसने मेरे जीवन की दशा और दिशा बदल दी। जेल न गया होता तो आज शायद किसी सुदूर वनवासी क्षेत्र में अविवाहित प्रचारक होता। जेल ने मोहभंग का बीज बोया जो बाद में संघ से सम्बंध विच्छेद का कारण बना। मोहभंग को कुछ तो करना था इसलिए आपातकाल के तुरंत बाद 1977 में वाराणसी में हुए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय अधिवेशन में संघ और विद्यार्थी परिषद के सम्बन्धों के बारे में कठिन प्रश्न उठाने वाले पैम्पलेटों को बंटवाने की अनुशासनहीन हरकत से लेकर मंच पर चढ़ कर माइक छीनने का सवब बना, पढ़ाई लिखाई, शादी ब्याह की दिशा में झोंक दिया। अच्छा हुआ या बुरा-मुझे क्या पता?
मीसा का कानून प्रारंभ में एक वर्ष के लिए था। बहुत लोग हफ्तों से आस लगाए समाचार की प्रतीक्षा में बैठे थे कि जून 1976 में एक वर्ष पूरा होगा, मीसा का कानून हटेगा और लोगबाग जेल के बाहर हो जाएंगे। पर अवधि पूरी होने के पहले ही इन्दिरा प्रियदर्शिनी ने उसे एक वर्ष के लिए और बढ़ा दिया। आपातकाल का प्रावधान भी बढ़ा दिया। एकाध सेठ टाइप के लोग बेहोश होते-होते बचे। और मेरे जैसे लखैरों ने आपातकाल की अवधि बढ़ाए जाने के स्वागत में-“नाहीं छोड़ी, नाहीं छोड़ी, नाहीं छोड़ी रे, सन बयासी तक नाहीं छोड़ी रे” का गीत गाया। ध्यान रहे यह 1976 का वर्ष था। बहुत से भोलेभाले लोग समझते हैं कि इंदिरा ने आपातकाल सिर्फ इक्कीस महीनों के लिए लगाया था। पर उस समय तो ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं था। किसे पता था कि आपातकाल कितने दिनों तक चलेगा? शायद इंदिरा गांधी को स्वयं नहीं पता था। उन्हें चुनाव न जीत पाने का हल्का सा भी अनुमान होता तो आप क्या सोचते हैं वे 1977 का चुनाव घोषित करतीं? जैसा तानाशाहों के साथ सदा से होता आ रहा है, वे चमचों से घिरी अपनी कृत्रिम दुनिया में विचरती थीं, वही सुनती थीं जो सुनना चाहती थीं, बाहर की वास्तविक दुनिया से उनका सम्बंध विच्छेद हो चुका था ।
यहां दो बातें और गौर कर लें। पहली बात-चुनाव के दौरान आपातकाल लागू था। इंदिरा गांधी के चुनाव हारने के बाद और मोरारजी के प्रधानमंत्री बनने के चंद घंटे पहले ही आपातकाल हटाया गया। दूसरी बात मीसा में बंद अधिकांश कैदी सारे चुनाव के दौरान कारावास में ही रहे। मैं अपना उदाहरण देता हूँ-मेरी रिहाई का आदेश मोरारजी के शपथ ग्रहण के बाद आया। इन दो बातों से इंदिरा की लोकतंत्र में अद्भुत आस्था के पुख्ता सबूत मिलते हैं। यदि इंदिरा चुनाव जीत जातीं तो आपातकाल के प्रावधान का और मेरे जैसों के कारागार प्रवास की अवधि का भविष्य क्या हो सकता था-यह समझने के लिए आइंस्टाइन या वेदव्यास जैसी मेधा की आवश्कता नहीं होनी चाहिए। जब इंदिरा गांधी ने चुनाव कराने की घोषणा की, सारे देश में सन्नाटा छाया था। हम सब स्वाभाविक रूप से मान कर चल रहे थे कि चुनाव एक धोखा है जो इंदिरा ने अपनी तानाशाही के सिर पर लोकतंत्र का फर्जी मुकुट सजाने के लिए घोषित किया है। जॉर्ज फ़र्नांडिस बड़ौदा डायनामाइट मुकदमे में जेल में बंद थे । वे मेरे जैसे युवकों के नायक थे। उन्होंने नई-नई बनी जनता पार्टी के संयोजक मोरारजी देसाई को सार्वजनिक पत्र लिख कर चुनाव का बहिष्कार करने की सिफ़ारिश की थी। बनारस केन्द्रीय जेल में बंद हम राजनीतिक कैदियों ने सर्वसम्मति से जॉर्ज की बात का समर्थन करने का प्रस्ताव पारित किया और जनता पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को लिखा।
जैसे भोर में तीन बजे म्युनिसपैलिटी के नल से पानी छुर-छुर कर निकलना शुरू होता है वैसे ही बारी बारी से धीरे-धीरे राजनीतिक कार्यकर्ताओं की रिहाई के आदेश आने लगे। पहले इक्का-दुक्का, फिर थोड़ा अधिक। बड़े लोग, खास तौर पर भूतपूर्व मंत्री, सांसद, विधायकों का नम्बर पहले आया। आज फ़लाना तो कल ढेकाना। मेरे जैसे छोटे लोगों का जिनकी संख्या कुल राजनीतिक कैदियों का तीन चौथाई शायद रहा हो, नम्बर आया ही नहीं। बड़े लोगों में भी जार्ज की रिहाई तो इंदिरा के चुनाव हारने के बाद हुई। कारागार के अंदर माहौल बदलने लगा। आज एक हमें छोड़ कर जाता तो कल दूसरा। अठारह बीस महीनों में जो फलता-फूलता बाग बना था, उसका उजड़ना शुरू हुआ। एक तरफ साथियों के छूटने की ख़ुशी तो दूसरी तरफ इतने लम्बे समय तक चौबीसों घंटों का साथ समाप्त होने का दुख। इतने लम्बे अरसे तक दिन रात लगातार चौबीस घंटे एक छोटी सी जगह में तो पति पत्नी भी नहीं रहते।
तभी एक दिन एक ब एक इस राजनीतिक सन्नाटे को तोड़ता हुआ एक बड़ा धमाका हुआ। इंदिरा सरकार के दो वरिष्ठ मंत्रियों-जगजीवन राम और हेमवतीनंदन बहुगुणा ने सरकार से त्यागपत्र दे दिया। जगजीवन राम ने इंदिरा सरकार को डेढ लोगों की-गाय बछड़े की- सरकार का नाम दिया। यह बहुत महत्वपूर्ण घटना थी। इसने देश में सर्वव्याप्त भय के कुहासे को आसमान में अचानक चमकी बिजली की तरह चीरा। डरे हुए चुप लोगों को बोलना आ गया। और फिर जैसे ताश के पत्तों से बना महल एक झटके में बिखर जाता है, वैसे एक समय इंदिरा का अभेद्य लगने वाला दुर्ग भरभरा कर गिरने लगा। अख़बारों का धड़का खुला। विरुदावली अभी भी गाई तो जा रही थी, पर उसकी तीव्रता कम होने लगी और विरोधियों की रैलियों में इकट्ठा हो रहे भारी जनसमूह की ख़बरें डरते-डरते छपने लगीं। पर फिर भी भय तो था कि किसी भी समय एक झटके में यह आंशिक आजादी छिन सकती थी और आतंक का साम्राज्य लौट सकता था। रायबरेली से किन्हीं सज्जन का एक पत्र आया जिसमें इंदिरा गांधी के अपने क्षेत्र में लोकसभा की सीट हारने की भविष्यवाणी थी, पर हमें विश्वास नहीं हुआ। उन्हीं दिनों पता नहीं कैसे बाहर से गैर क़ानूनी तरीके से हमारे पास एक ट्रांजिस्टर आ गया। हम जेल अधिकारियों की नजर बचा कर फिल्मी गाने सुन सकते थे और समाचार, जो मूलत: इंदिरा और संजय का मंगलगान थे, भी सुन सकते थे।
और फिर आई वह ऐतिहासिक रात। मतगणना की रात। ध्यान रहे, यह कोई मामूली चुनाव नहीं था। और हम कैदियों के लिए तो हमारी जिंदगी दाँव पर लगी थी। रात बारह बजे तक आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु की सीटों के परिणाम आते रहे जहाँ कांग्रेस जीत रही थी। तभी कुछ अचानक घटा और उत्तर भारत के बक्से खुले। सूपड़ा साफ होने लग गया। आकाशवाणी के उद्घोषक की आवाज बदल गई। चहकने लगी। जैसे कि पिंजरे में बंद किसी चिड़िया को अचानक आसमान में उड़ने के लिए छोड़ दिया गया हो। और फिर रेडियो पर वह मशहूर गाना बजा – “कल सबेरे वाली गाड़ी से चले जाएंगे”।
इतनी बड़ी जेल में उस रात चोरी से लाया गया वह सिर्फ एक ट्रांजिस्टर था जिसे घेर कर हम राजनीतिक क़ैदी अपनी बैरक में इकट्ठा थे। हमने पर्चियों पर लिख कर पक्कों से बाकी अन्य क़ैदियों के बैरकों तक चुनाव के नतीजों की खबर पहुँचाई। और थोड़ी देर में सारा कारागार परिसर थालियों के पीटने की ध्वनि से गूँज उठा। ये सामान्य कैदी थे जिन्हें राजनीति से कुछ लेना देना न था। ऐसा लगा जैसे बरसों बाद एक ब एक हमारी बंद सांस खुल गई हो और हमारे फेफड़ों में ताजी प्राणदायिनी हवा घुसी हो। या कि फिर हमारे कंधों पर से सालों से लदा एक पर्वत उतर गया हो। जिन लोगों ने वह समय नहीं देखा है, खास तौर पर कारागार के अंदर का वह समय, उन्हें शायद मेरी बात समझ न आए। हम सारी रात जगे रहे। कौन कम्बख्त ऐसे में सो सकता था? सुबह जेल के सुपरिंटेंडेंट राउंड पर आए। बहुत कड़क साहब हुआ करते थे, पर आज उनकी आवाज में मीठी लोच उतर आयी थी, उनके हावभाव से हमारे लिए हिकारत गायब थी, बल्कि हमारे लिए अतिरिक्त लिजलिजे सम्मान से वे भारी और लिसलिसे हो गए थे।
मेरे जैसे लोग इंदिरा के हारने के बाद भी बंद ही रहे। पर कब तक बंद रहते? जिस दिन मोरारजी ने प्रधानमंत्री पद का शपथ ग्रहण किया, हमारी रिहाई का फरमान भी आ गया। मीसा खत्म हुई। डीआईआर (डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल्स) के चार मुक़दमों पर ज़मानत पहले से थी (बाद में वे मुक़दमे उठा लिए गए)। राजनीतिक बंदियों के अतिरिक्त सामान्य कैदियों से भी प्रेम सम्बंध स्थापित हो गया था। कई सामान्य कैदियों के लिए हमारे जैसे लोग कारागार की अधखुली खिड़की से अंदर प्रवेश करती सामान्य जिन्दगी की ताजी हवा का एक झोंका थे। जहां कोई उनसे कायदे से बात तक नहीं करता था वहां हम लोगों से हमारी तरह, आदमियों की तरह, प्रेम सम्बंध स्थापित हो गया था। अब उनकी यह खिड़की बंद हुई। हमने सब से विदा ली। सभी भावुक हुए। फिर मिलने, चिट्ठी पत्री लिखने के वादों का आदान प्रदान हुआ। शाम के पाँच बजे मैंने सोलह महीनों के अपने आवास-वाराणसी केन्द्रीय कारागार की वह बैरक – को विदाई दी और बोरिया बिस्तर हाथों में लिए परिसर का लम्बा रास्ता तय कर कारागार के विशाल द्वार के बाहर कदम रखा। मैं बाहर आया। गोधूलि बेला थी। आसमान में चाँद उतर रहा था। सामने सड़क थी, साइकिलें थीं, लोग थे, वासंती हवा थी। और हम थे। (समाप्त)