इस ‘घर’ को हमारे बाहर ही रहने दो!
-हृदय नारायण दीक्षित
घर की बाउंड्री होती है। घर की सीमा है। घर असीम होते नहीं। मैं उन्मुक्त रहा हूँ। ससीम उन्मुक्तता में जिया हूँ लेकिन मन में असीम उन्मुक्तता की प्यास गहरी है। सुना है कि यह घर बहुत पहले मुख्य सचिव के लिए चिन्हित था और कुछ साल पहले यह विधानसभा अध्यक्ष के लिए आरक्षित हो गया है। मैं घर प्रिय नहीं रहा। बड़े घर में आनंदित होने का स्वाद नहीं जानता। छोटे घर की मानसिक दरिद्रता कभी रही नहीं। जान पड़ता है कि नियति जहां ले जाती है, वहीं उत्सव। मुझे व्यथा में भी उत्सव आनंद का रस लेने का अनुभव है। घर वैसे भी सुख की गारंटी नहीं होते। सुना है कि घर की कलह से पीड़ित एक व्यक्ति महंगे होटल में गया। होटल का मालिक आया। गृहकलह व्यथित व्यक्ति ने होटल मालिक से पूछा “क्या क्या सुविधाएं हैं?” मालिक बोला “सर यहां सब कुछ घर जैसा ही है।” व्यथित व्यक्ति उठा और भागा। मालिक बोला “सर माफ करें गल्ती क्या है? व्यक्ति बोला। मैं घर से ही परेशान हूँ। यहां भी घर जैसा है तो मैं दूसरे होटल पर जाता हूं। मुझे घर नहीं होटल चाहिए। घरेलू अशान्ति नहीं होटल की तटस्थ शांति चाहिए। मनचाही शांति होटल में भी नहीं। बेशक घर के अपने भिड़ते हैं लेकिन इससे प्रीतिपूर्ण शांति का जन्म संभव है। होटल में प्रीति है ही नहीं। प्रीतिपूर्ण अशांति की भूमि पर ही शांति उगती है।
घर प्राकृतिक आकर्षण है। सभी जीव घर चाहते हैं। ऋग्वेद के एक ऋषि अपने लिए सुन्दर घर की देवस्तुति करते हैं। भारत में दुनिया के तमाम क्षेत्रों से पक्षी आते हैं। यहां की ऋतुओं का आनंद लेते हैं। ऋतु परिवर्तन पर घर लौट जाते हैं। घर की प्रीति गहरी है। घर सघन प्रीति क्षेत्र है – जहां बार-बार लौटने का मन करे वही घर। लेकिन हमारी नियति घर-बदलू है। किसी एक घर में लगातार रहने का अवसर नहीं मिला। गए सप्ताह तक विधायक निवास के एक फ्लैट में था। फ्लैट छोटा नहीं था। पर्याप्त था यह घर लेकिन विधानसभा अध्यक्ष हो गया तो नया घर मिला गया। यहां एक हिस्सा गांव देहात के बाग जैसा। आम, बेल, नीम आदि के बड़े पेड़ है। पक्षी रात दिन चहकते हैं। एक हिस्से में व्यवस्थित घास वाला मैदान। यहां सरकारी व्यवस्था वाले फूल पौधे होते हैं। मुझे पार्क सरकारी दफ्तर जैसे लगते हैं। पार्क के पौधों में परस्पर प्रीति नहीं होती होगी। जान पड़ता है कि वे शासनादेश के अनुसार हरिया रहे हैं। बेमन फूल दे रहे हैं लेकिन अपनी नदी किनारे या गांव में अपने मन से उगे नीम, गूलर, पीपल की बात ही और है। वे अकूत सुगंध उड़ेलते हैं, अकूत खिलते, फलते और फूलते हैं। पक्षी इन पर घर बनाते हैं। नर-मादा इन्हीं घरों घोसलों में चोंच मिलाते हैं। सृष्टि सृजन में भागीदार होते हैं।
हम बचपन से ही अपने घर में नहीं रहे। इण्टर की पढ़ाई के बाद घर गांव का घर छूटा। यह घर प्रीतिरस से भरपूर था। छूटा तो स्वाभाविक ही माता का प्रत्यक्ष स्नेह छूटा, पिता का साथ छूटा। घर के पिछवाड़े का तालाब भी छूटा। तालाब में तैरती बत्तखें छूटी। पुरइन पात छूटे। टोले मोहल्ले के दादा, काका, चाची और भौजाई जैसे अनेक नेह केन्द्र छूटे। दीवालों से घिरे भवन की सीमा के बाहर भी होता है घर। इस घर के साथ बहुत कुछ छूट गया। फिर शहर आया। यहां भी ऐसे ही रिश्ते बने। यार दोस्त आचार्य और नगरीय वातायन लेकिन वह घर भी छूटा तो उपनगर पुरवा आया। किराए का एक कमरा। कालेज की नौकरी। इसे घर कैसे कहें? रात में सोने की जगह के अलावा यहां कुछ नहीं था। जनआन्दोलन में गया जहां रात वही बसेरा। हजारों मित्रों के घर ही हमारे घर होते रहे। विधायक रहा चार बार। पांचवी बार हार गया। मतगणना से सीधे विधायक निवास आया। उसी दिन सरकारी घर छोड़ा। यहां भी घर हमारे आवास के बाहर तक पसरा था। चाय का दुकानदार, टेलर, कर्मचारी, पड़ोसी छूट रहे थे। नियति घर बदलू ही है। घर बार-बार बदलता रहता है। पुराना छूटता है। नया मिलता है। पुराने की प्रीति बार-बार ताजी होती है। कई दफा नया सरकारी आवास मिला। पहले से बड़ा और सुघड़ भी लेकिन मन अटका रहा पुराने घर में।
मैं मुक्त हूँ। घर बांधता है। संतो ने इसे माया मोह कहा है। ठीक ही कहा होगा पर माया मोह का भी अपना प्रीतिरस है। हमारे एक सरकारी आवास के बगल में पीपल और नीम एक साथ घुले मिले थे। नीचे अलग-अलग लेकिन ऊपर दोनों की डालें शाखाएं पत्तियां डोलती थीं, मैना बोलती थी। बंदर उधम करते थे। एक बार वे बालकनी से हमारे लेखन कक्ष में कूद आए। हमारी पालतू कुतिया ने दौड़ाया, बंदर का बच्चा छूटकर कुतिया के पेट से चिपक गया। लेकिन कुतिया शांत। हमारे सहयोगी अजय प्रताप ने बच्चा अलग किया। तब तक बाहर सौ सवा सौ बंदर आ गये। बच्चा उन्हें मिल गया। वे लौट गये। संभवतः अपने घर की ओर भाग गए। लेकिन बंदरो के घर का स्थाई पता नहीं होता। नया घर धांसू है। ढेर सारे कमरे। चकाचौंध करती रोशनी। लेकिन यहां घर का मजा नहीं है। मैं नया निवासी हूं इस घर में। यहां मैं, रहकर भी नहीं रहता। यह विधानसभाध्यक्ष का आवास है। इसमें विधानसभा अध्यक्ष रहता है। यहां निवर्तमान अध्यक्ष द्वारा पाले गए खरगोश है वे हमें देखकर दुबक गए। हमारे भीतर प्यार उमड़ा वे भाग कर बिल खोजने लगे। वे निर्दोष है। नहीं जानते कि अब विधानसभा अध्यक्ष बदल गया है।
बड़े आकार वाले इस घर में मैं पालतू खरगोशो की तरह पिंजड़े में हूँ। ढेर सारे सुरक्षाकर्मी, सहायक, टेलीफोन आपरेटर, भीड़ और प्रशंसा का घेरा। मेरा ‘मैं’ इसमें दब गया है। मेरा प्राकृतिक हास्य और आह्लाद खो गया है। इसमें मेरा अपनत्व भी खो गया है। मेरी प्रिय पुस्तकें भी अभी दुबकी हुई हैं। पुराने घर में वे हमारे सामने थीं। हमसे बतियाती थीं। मेरे मित्र नए घर से प्रसन्न हैं लेकिन मैं, मेरी सरलता और सहज तरलता का पता नहीं। घड़ी की सुईयां क्रूर हैं। बार बार उनकी ही ओर ध्यान जाता है। अब यह, 10 मिनट बाद वह। अगले घंटे वे इसके बाद ये। मैं अन्तराल खोजता हूं। आखिरकार कितने बजे हम सिर्फ हम हो सकते हैं। संसार में हमारा होना सिर्फ गतिशीलता ही नहीं होता। इसे प्रकृति का रजस् गुण कहते हैं। तम गुण हमारा पूरक है। तम ही ज्योति की पूर्वपीठिका है। ऋषि ने ठीक ही ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की अभिलाषा की है। रजसो मा ज्योतिर्गमय की नहीं। भारी भरकम यह घर मुझे अपने अंक में नहीं लेता। यह मेरे अपने भीतर के अन्तस् घर के गीत छन्दस् में घुस रहा है, अवैध कब्जेदार की तरह। स्तुति है कि हे दिव्य शक्ति इस घर को हमारे बाहर ही रहने का निर्देश दो। मेरे अन्तस् घर की रक्षा करो।