उत्तर प्रदेश : जनता सीधे क्यों नहीं चुने जिला पंचायत अध्यक्ष
अजय कुमार
लखनऊ : जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर जिस तरह से सत्ता पक्ष यानी भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति चल रही है, उसको देखते हुए मांग उठने लगी है कि जिला पंचायत अध्यक्ष का चयन भी ठीक वैसे ही होना चाहिए जैसे उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव में जनता के वोटों के आधार पर मेयर का चुनाव किया जाता है। बताते चलें पहले मेयर का चुनाव भी प्रत्यक्ष तौर पर नहीं होता था, बल्कि जीते हुए पार्षदों द्वारा मेयर को चुना जाता था, लेकिन धीरे-धीरे मेयर चुनाव में धनबल-बाहुबल का खुला खेल होने लगा। इसी के बाद मेयर का चुनाव सीधे जनता के द्वारा कराया जाने लगा। जब मेयर की चुनाव प्रक्रिया में बदलाव हो सकता है तो फिर जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लाक प्रमुख का चुनाव जनता से सीधे क्यों नहीं कराया जा सकता है? जब गांव-देहात की जनता को जिला पंचायत अध्यक्ष चुनने का अधिकार प्राप्त होगा तो स्वाभाविक तौर पर जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी के लिए ‘बोली’ लगना भी बंद हो जाएगा। वर्ना अभी तो हाल यह है कि धनबल के सहारे जो नेता जिला पंचायत की कुर्सी पर विराजमान होता है, उसका सारा ध्यान जनसेवा की बजाय इस बात में लगा रहता है कि वह तीन के बदलें में 13 कैसे कमाए। इसी के चलते गांव का विकास रूक जाता है। सरकारी योजनाओं में पैसे की ‘बंदरबांट’ शुरू हो जाती है। धनबल के सहारे जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी हासिल करने वाले तमाम नेता तो अपने पूरे कार्यकाल के दौरान इसी में लगे रहते हैं कि कैसे जिला पंचायत सदस्यों को खुश रखा जाए जिससे उनके खिलाफ कोई अविश्वास का प्रस्ताव नहीं लाए।
आज के हालात तो यही हैं कि चुनाव जिला पंचायत अध्यक्ष का होता है और शर्मसार लोकतंत्र को होना पड़ता है। स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए यह बेहद जरूरी है कि किसी भी सदन के लिए होने वाले चुनाव की निष्पक्षता पर कोई उंगली नहीं उठा सके। बात समाजवादी पार्टी के आरोपों की कि जाए तो आज भले ही वह जिला पंचायत चुनाव में अपने आप को पिछड़ता हुआ देखकर ‘मातम’ मना रही हो, लेकिन इस ‘विष बेल’ को बढ़ावा देने में समाजवादी पार्टी की भूमिका भी कम दागदार नहीं है। जब 2015 में पंचायत चुनाव हुए थे, तब समाजवादी पार्टी की सरकार थी, उसने भी जिला पंचायत अध्यक्ष की कई कुर्सियां इसी तरह का तांडव करके हासिल की थीं। पूर्व सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव तो इस खेल के चतुर खिलाड़ी थे। खैर, जिस तरह से समाजवादी पार्टी को जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में मुंह की खानी पड़ी है, उससे उस दावे की हवा निकल गई है जिसमें अखिलेश यादव दावा कर रहे थे कि जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में समाजवादी पार्टी का 60 से 65 सीटों पर कब्जा रहेगा।
बहरहाल, यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा कि जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में सपा प्रत्याशियों के बिना चुनाव लड़े ही मैदान से बाहर हो जाने से सपा प्रमुख अखिलेश यादव की रणनीति पर सवाल उठने लगे हैं। जिन जिलों में उसके चुने गए जिला पंचायत सदस्यों की संख्या भाजपा से अधिक थी और उम्मीद की जा रही थी ऐसे जिलों में सपा आसानी से अध्यक्ष की कुर्सी पा सकती हैे, वहां भी उसके प्रत्याशियों का पर्चा खारिज हो गया। बेशक सपा ने इस स्थिति के लिए सत्ताधारी भाजपा को निशाने पर ले लिया है पर इसके साथ उसकी अपनी संगठन की कमजोरी भी उजागर हो गई है। कुल मिलाकर सपा के लिए यह बड़ा झटका है। खासतौर पर अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर यह हालात पार्टी के भीतर सब कुछ ठीक नहीं होने के संकेत दे रहे हैं। जानकार कहते हैं कि जिला पंचायत चुनाव में सपा की फजीहत की सबसे बड़ी वजह यह रही कि सब कुछ जिला अध्यक्ष के भरोसे छोड़ दिया गया। वैसे जिलाध्यक्ष के सहयोग के लिए इन चुनावों में सांसद, विधायक व वरिष्ठ नेताओं की समन्वय समिति भी बनी थीं वह कितनी प्रभावी रही, यह ताजा घटनाक्रम से जाहिर है। जिन आधार पर पर्चेे खारिज हुए उसके लिए ज्यादा सतर्कता की जरूरत थी।
समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव को इस बात का मलाल है कि कुछ जिलों में तो लापरवाही के चलते पचायत अध्यक्ष की जीती लग रही सीट, हाथ से निकल गई। उधर, समाजवादी पार्टी के जिला अध्यक्षों की दलील है कि उनके प्रत्याशी नामांकन इसलिए नहीं भर पाए क्योंकि या तो वह (प्रत्याशी) गायब हो गए या कर दिए गए। जिला अध्यक्षों की बातों पर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को भरोसा नहीं है इसीलिए उन्होंने तत्काल कार्रवाई करते हुए 11 जिलों के अध्यक्षों को पद से बर्खास्त किया है, जबकि अभी यह कर्रावाई पूरी नहीं हुई है। कुछ और जिलों में जिला अध्यक्षों व अन्य पदाधिकारियों की काम की पड़ताल हो रही है। संभव है कि आगे कुछ और लोगों पर गाज गिरे। समाजवादी पार्टी के विधान परिषद सदस्य (एमएलसी) उदयवीर सिंह कहते हैं कि भाजपा सरकार मेें सपा के जिला पंचायत चुनाव में जीते सदस्यों को डराया धमकाया जा रहा था। कुछ पर फर्जी मुकदमे करा दिए। जब नामांकन का वक्त आया तो उन्हें पहुंचने नहीं दिया गया। प्रशासन ने डराया धमकाया। नामांकन पत्र में आधारहीन खामियां निकाल कर पर्चा रद् करवा दिया। वैसे सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि पिछली पंचायत में जब सपा की सरकार थी, तब सपा के 36 जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध चुनाव जीते थे, तब इन जिलों में अन्य दलों के प्रत्याशी पर्चा नहीं दाखिल कर पाए थे या जांच के बाद नामांकर रद्द हो गए थे।
बात कांगे्रस और बसपा की कि जाए तो वह इस मामले पर शांत है। हो सकता है कि जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव को लेकर बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस भी इसी तरह के आरोप योगी सरकार पर लगाते जैसे सपा प्रमुख अखिलेश यादव लगा रहे हैं, लेकिन कांगे्रस इस हैसियत में नहीं है कि वह अपने किसी प्रत्याशी को जिला पंचायत की अध्यक्ष बनवा सके, वहीं बसपा ने जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव से किनारा कर लिया है।
अबकी बार 26 जून को जिला पंचायत अघ्यक्ष के लिए हुए नामांकन के बाद 18 जिलों में निर्विरोध अध्यक्ष निर्वाचन हो गये हैं। इनमें से 17 जिलों में भाजपा प्रत्याशियों के अध्यक्षों का निर्विरोध निर्वाचन हुआ। सपा एक मात्र इटावा सीट निर्विरोध जीतने में सफल रही। इटावा में सपा प्रत्याशी अंशुल यादव ने पर्चा भरा। एकमात्र नामांकन होने से उनकी जीत तय हो गई। बाकी जिलों में एक से अधिक नामांकन हुए हैं। यहां तस्वीर 29 जून को नामांकन वापसी के बाद स्पष्ट होगी।
भाजपा प्रत्याशी जिनकी जीत तय हो गई
वाराणसी: पूनम मौर्य, बुलंदशहरः डाॅ अंतुल तेवतिया, मरेठः गौरव चैधरी, मुरादाबादः डाॅ शैफली सिंह, गाजियाबादः ममता त्यागी, बलरामपुरः आरती तिवारी, गौतमबुद्धनगरः अमित चौधरी, मऊः मनोज राय, गोरखपुरः साधना सिंह, चित्रकूटः अशोक जाटव, झांसीः पवन कुमार गौतम, बांदाः सुनील पटेल, गोंडाः घनश्याम मिश्र, श्रावस्तीः दद्दन मिश्रा, आगराः मंजू भदौरिया, ललितपुरः कैलाश निरंजन, अमरोहा ललित तंवर।
नामांकन के बाद 18 जिलों में निर्विरोध निर्वाचन हो गये हैं, इनमें से 17 जिलों में भाजपा प्रत्याशियों ने अध्यक्षों का निर्विरोध निर्वाचन सुनिश्चित कर लिया। सपा एकमात्र इटावा निर्विरोध जीतने में सफल हुई। बाकी जिलों में एक से अधिक नामांकन हुए हैं। यहां तस्वीर 29 जून को नामांकन वापसी के बाद स्पष्ट होगी।