ऋषि पृथ्वी को माता कहते हैं और आकाश को पिता
हृदयनारायण दीक्षित : हम सब प्रकृति का अंश हैं। इसलिए प्रकृति से आत्मीय सम्बंध स्वाभाविक ही श्रेष्ठ होते हैं। ऐसे सम्बन्ध बनाना ऋग्वेद के ऋषियों का स्वभाव है। पृथ्वी हम सबको धारण करती है इसीलिए वह धरती धारित्री है। इसी तरह आकाश है। वह सबको आवृत्त करता है। दशों दिशाओं से आच्छादित करता है। वह हमारे भीतर है और बाहर भी। ऋषि पृथ्वी को माता कहते हैं और आकाश को पिता। हम सब पृथ्वी और उसके घटक जल अन्न आदि से निर्मित हैं। आकाश तत्व हमारे जीवन में हैं। हम माता पिता का विस्तार हैं। पृथ्वी माता और आकाश पिता की अनुभूति अभिव्यक्ति सरल और स्वाभाविक है। ऋग्वेद के सुंदर मंत्र (6.70.5-6) में माता पृथ्वी व पिता आकाश से प्रत्येक स्तर पर मधुमयता की स्तुति है। कहते हैं, “मधुनो द्यावा पृथ्वी मिमिक्षितां मधुश्रुचुता मधु दुधे मधुव्रते। द्योश्च पृथ्वी च पिन्वतां पिता माता।” इस कविता में बार-बार मधु आवृत्ति है। सारांश यह है कि माता पृथ्वी व पिता आकाश हमारे जीवन को मधुरस और मधुव्रत से भर दें।
माता पिता संतति को आनंद से भरते रहते हैं। वे संतति के सुख में स्वयं भी सुखी होते हैं। पृथ्वी माता और आकाश पिता से यही अपेक्षा है। पृथ्वी माता धारक है। वह सुजला और सुफला है। वह जलों को मेघ होने के लिए उकसाती है। जल मेघ बनते हैं। आकाश पिता उन्हें अपनी संतति के हित में वर्षा के लिए प्रेरित करते हैं। माता पृथ्वी जल रस से भर जाती है। वनस्पतियां उगती हैं। ऋग्वेद में ऐसी ही स्तुतियां हैं। एक स्तुति (1.159.1-2) में “आकाश पृथ्वी को विचार प्रेरक भी कहा गया है। इनका मन एक है।” दोनो मिले हुए हैं। दोनो विश्व धारक हैं। समृद्धि के आधार है। प्रकृति के नियम मानते हैं। अनुशासित रहते हैं, “द्यावा पृथ्वी विश्वशम्भुव ऋतावरी रजसो धारयत्कवी। (1.60.1)
शक्ति उपास्य है। मनुष्य में शक्ति अभिलाषा है। पृथ्वी में शक्ति है, आकाश में भी शक्ति है। पिता माता दोनो मिलकर महाशक्ति संपन्न हैं। ऋग्वेद में दोनो का साझाा नाम ‘रोदसी’ है। रोदसी से भी स्तुतियां हैं। वैदिक ऋषियों की द्यावा पृथ्वी श्रद्धा अनूठी है। कहते हैं “ये द्यावा पृथ्वी महाशक्ति संपन्न है।” (10.92.11) दोनो अपनी संतति को शक्ति संपन्न बनाते हैं। मां प्रकृति की आदि आत्मीयता है। ऋग्वेद के ऋषियों के चित्त में मां की अनुभूति गहरी है। वे जल को माताएं कहते हैं। नदियों को भी माता कहते हैं। जेसे पृथ्वी को माता कहने की ऋग्वैदिक परंपरा में देश मातृभूमि है वैसे ही नदियों को माता बताने की परंपरा आधुनिक लोकजीवन में भी सरल तरल प्रवाहमान है।
पृथ्वी और आकाश माता पिता को ऋग्वेद (10.36.2) में सचेतन व प्रचेतस कहा गया है। यहां दोनो चेतन युक्त हैं। संवेदनशील और ज्ञानवान हैं। वे प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं। पुत्र का पालन पोषण भी प्रकृति का नियम है। सभी प्राणी संतति को संरक्षण देते हैं। ऋषि उनसे उचित ही संरक्षण की स्तुति करते हैं “वे द्यावा पृथ्वी हमारी रक्षा करें।” (वही)आश्चर्य है कि आधुनिक भारत पृथ्वी माता व आकाश पिता के प्रति आत्मीय भाव से युक्त नहीं हैं। पृथ्वी के मर्मस्थल खोदे जा रहे हैं। खनन से माता पृथ्वी घायल हैं और प्रदूषण से आकाश पिता। ओजोन परत खतरे में है। भूमण्डल का ताप बढ़ा है। माता पिता वाला वैदिक श्रद्धाभाव समय का आह्वान है।
मधुअभिलाषा के एक मंत्र में वायु, नदियां, धरती और जीवन की प्रत्येक गति नियम में माधुर्य मांगा गया है। मंत्र के अंत में ‘मधुद्यौरस्त न पिता – आकाश पिता भी मधुर हैं। माता पिता जीवन के प्रत्येक स्पंदन में उपस्थित रहते हैं। हम सबकी जीवन गति पृथ्वी पर है। पृथ्वी जन्म क्षेत्र कर्म क्षेत्र और यश क्षेत्र है। आकाश पिता हमारी सर्वोत्तम संभावना का प्रेरक है। ऊंचे उठने की कामना आकाश है। सुदृढ़ होने का तल पृथ्वी है। पृथ्वी माता से जुड़े रहना स्वाभाविक ही आश्वस्तिदायी है।
माता और पिता में माता सगंधा है। उसकी सहज निकटता गंध आपूरण है। आकाश का गुण शब्द है। पिता आकाश का प्रसाद शब्द हैं। वैदिक ऋषियों को शब्दो मंत्रों का प्रसाद आकाश पिता से मिला है। शेष सब कुछ माता पृथ्वी की अनुकम्पा है। कहते हैं कि यह पृथ्वी देवों द्वारा संरक्षित है – देव गोपा है। पृथ्वी कल्याण करती है – स्वस्तिरिद्धि है। यह ऐश्वर्य शालिनी – प्रपथे श्रेष्ठा है। (10.63.16) पृथ्वी और आकाश प्रत्यक्ष हैं। ये काव्य कल्पना नहीं है। दोनो स्वाभाविक ही माता पिता हैं।
ऋग्वेद की पंरपरा में अथर्ववेद का विश्व प्रतिष्ठ भूमि सूक्त है। यहां भी पृथ्वी माता है और हम सब पृथ्वी पुत्र हैं। पृथ्वी सगंधा हैं। ऋषि अथर्वा ने इस गंध को कमल में प्रकट होते हुए देखा सूंघा है। देवों ने कमल गंध को सूर्य पुत्री सूर्या के विवाह अवसर पर उपस्थित अभिजनों में विस्तृत किया है। कवि ऋषि के अनुसार इस पृथ्वी पर उत्सव हैं, मेले हैं। माता पृथ्वी के आंचल में नदियां हैं, वन उपवन और पर्वत हैं। पशु पक्षी और कीट पतिंग हैं। ग्राम है, ग्राम मिलन है, संग्राम है। अथर्वा कहते हैं कि हे माता हम सर्वत्र आपकी स्तुति करते हैं।
ऋग्वेद और अथर्ववेद की यही परंपरा पुराणों में भी है। श्रीकृष्ण ने भी पृथ्वी की उपासना की। पृथ्वी प्रसन्न हुई। श्रीकृष्ण ने पूछा कि हे वसुंधरे आपको कैसे प्रसन्न करें? आपका किस तरह पूजन करें? पृथ्वी ने कहा कि थोड़ा अन्न प्रतिदिन पक्षियों आदि के लिए बिखेर दिया करो, पशुओं के भोजन की भी चिंता करो। कथा के अनुसार श्रीकृष्ण ने यही किया। पृथ्वी प्रसन्न हुई। पृथ्वी माता को अपनी प्रत्येक संतान की चिंता रहती हैं। पृथ्वी आराधना आधुनिक काल में भी है। भूमि पूजन अब भी होते हैं। ऋग्वेद की यही परंपरा आधुनिक काल में बंकिम चन्द्र की कविता वंदेमातरम् में श्रेष्ठ रूप में प्रकट हुई है। वंदेमातरम् भारत का राष्ट्रगीत है। यह माता सुजला, सुफला के साथ मलयज शीतला भी है। पूरा गीत राष्ट्रजीवन की मूलभूत चेतना की सुमधुर अभिव्यक्ति है। माता पृथ्वी जन्म से लेकर मृत्यु तक पोषण करती है। पिता आकाश हमारे जीवन का संवर्द्धन करते हैं। मृतक के दाह संस्कार में स्थानीय भूमि तापयुक्त होती है। ऋषि भूमि के प्रति संवेदनशील हैं। स्तुति करते हैं। “हे अग्नि आपने इस भू स्थल को तापदग्ध किया है। इसे तापरहित बनाइए। यहां अनेक शाखाओं वाली घास फिर से उगे। भूमि पहले जैसी हो जाए।” (ऋग्वेद 10.16.3)
माता पृथ्वी और पिता आकाश से सम्बंधित ऋग्वेद के एक देवता हैं पर्जन्य। वे वर्षा के देवता कहे जाते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली में वे प्रकृति का ‘इकोलोजिकल साइकिल’ हैं। जलो का पृथ्वी से आकाश जाना, बादल होकर आकाश में पर्यटन करना और फिर से वर्षा रूप धरती पर आना बड़ी प्राकृतिक कार्यवाही है। यह कार्यवाही मनुष्य सहित सभी जीवों के जीवन का आधार है। ऋग्वेद के एक अन्य मंत्र (7.101.3) में भी “आकाश पिता हैं, उनका पय-रस पर्जन्य है। माता धरती इस रस को ग्रहण करती है। दोनो संवर्द्धित होते हैं, संतति भी संवर्द्धित होती है – पितु पयः प्रति गृभ्णाति माता तेन पिता वर्धते तेन पुत्रः।” पर्जन्य से जल है। जल से औषधियां वनस्पतियां हैं। पर्जन्य जगत का आत्म हैं – तस्मिन्नात्म जगतस्तस्थुष श्रृच। (वही 6) ऐसे सारे प्रपंचों का स्थल नीचे पृथ्वी है, ऊपर आकाश है। बीच में सुंदर प्रपंचों के सुंदर खेल हैं लेकिन मूल हैं माता पृथ्वी और पिता आकाश की अनन्य प्रीति। धरती माता आकाश पिता की यही प्रीति अजर अमर है। ऋग्वेद के ऋषि ऐसे प्रेम प्रपंचों के द्रष्टा हैं।
पूर्वज अनुभूति में पृथ्वी सजीव है। यह निर्जीव नहीं है। लाखों जीवों की धारक है। इसी में उगना उदय और अस्त होना प्रत्येक प्राणी की नियति है। यह जननी है। पृथ्वी को माता कहने वाले यह ऋषि अंधविश्वासी नहीं हैं। वे अपने काव्य सृजन में गहन अनुभूति व दर्शन को आधार बनाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण उनकी सहज वृत्ति है। पृथ्वी उनकी अनुभूति की नींव है और आकाश उनका दार्शनिक वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक क्षेत्र। वे इसी प्रगाढ़ अनुभूति में धरती माता और आकाश को पिता जानने का भाव उनके मन में उगा है तो इसमें आश्चर्य क्या है।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)