अद्धयात्म
कथा: फिर भी टूट गई संन्यासी की प्रतिज्ञा
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एक मशहूर सूफी संत बगदाद में रहते थे। उनके पास रोज बड़ी संख्या में लोग मिलने आते थे। एक बार एक दरवेश उनके पास पहुंचा। उसने देखा कि कहने को तो वह संत हैं, लेकिन वे जिस आसन पर बैठे हैं, वह सोने का बना है।
चारों ओर सुगंध है, जरी के पर्दे टंगे हैं, सेवक हैं तथा रेशमी रस्सियों की सजावट है। कुल मिलाकर हर तरफ विलास और वैभव का साम्राज्य है।
दरवेश देखकर चकित रह गया। संत उसके सम्मान में कुछ कहते, इसके पहले ही दरवेश बोल उठा, आपकी फकीराना ख्याति सुन दर्शन करने आया था, लेकिन देखता हूं आप तो भौतिक संपदा के बीच मजे में हैं।
संत ने कहा, तुम्हें ऐतराज है तो मैं इसी पल यह सब वैभव छोड़कर तुम्हारे साथ चलता हूं।
दरवेश ने हामी भरी और कुछ ही पलों में संत सब छोड़कर उसके साथ चल पड़े। दोनों पैदल कुछ दूर चले होंगे कि अचानक दरवेश पीछे मुड़ा। संत ने वजह पूछी तो उसने बताया कि वह संत के ठिकाने पर अपना कांसे का एक कटोरा भूल आया है। उसे लेना जरूरी है, इसलिए उसे फिर वहीं लौटना होगा।
इस बात पर संत ने हंसते हुए कहा, बस यही बात है। मैं तुम्हारी एक आवाज पर अपना साम्राज्य पल भर में ठोकर मारकर आ गया, लेकिन तुम एक कटोरे का मोह भी न निकाल पाए। मेरे ठिकाने की रेशमी रस्सियां तो धरती तक धंसी थीं।
यह कटोरे का मोह तुम्हारे मन में धंसा है। जब तक मन में किसी भी चीज का मोह है तब तक सत्य को पाना कठिन है। मोह-माया से दूर रहने की तुम्हारी प्रतिज्ञा इस कटोरे ने भंग कर दी। यह सुनकर दरवेश लज्जित हो गया।