कन्हैया पर गुस्सा क्यों आता है मायावती को?
आपके पत्र
पिछले महीने 14 अप्रैल को लखनऊ में अंबेडकर जयंती के अवसर पर सर्वजन की रैली को संबोधित करते हुए मायावती ने जेएनयू के कन्हैया कुमार पर अपना गुस्सा दिखाया और दलितों को उससे सावधान रहने के लिए कहा। उन्होंने कन्हैया के बारे में मुख्यतया चार बातें कहीं: (1) कन्हैया दलित नहीं भूमिहार है (2) कन्हैया अम्बेडकरवादी नहीं कम्युनिस्ट है (3) कन्हैया लाल सलाम और नीला सलाम को मिलाकर दलितों को धोखा देना चाहता है तथा (4) कन्हैया जय भीम का नारा लगा कर दलितों को गुमराह करना चाहता है। इससे स्पष्ट है कि मायावती को अपने को छोड़ कर किसी अन्य द्वारा दलितों की राजनीति करने या अंबेडकर के बारे में बातचीत करने या नारा लगाने पर सख्त आपत्ति है क्योंकि वह समझती है कि दलितों की राजनीति या अंबेडकर पर उस का ही एकाधिकार है और किसी दूसरे का इस क्षेत्र में प्रवेश बिलकुल वर्जित है। इससे यह भी स्पष्ट है कि मायावती को कम्युनिस्टों से सख्त नाराज़गी और खतरा है। मायावती की कम्युनिस्टों से यह नाराज़गी उनके गुरु कांशीराम की ही देन है क्योंकि उन्हें भी कम्युनिस्टों से बहुत एलर्जी थी। वह अपनी जनसभाओं में खुले तौर पर कहा करते थे कि कम्युनिस्ट आस्तीन के सांप हैं और दलितों को इनसे दूर रहना चाहिए।
वर्ष 1995 में मायावती के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने से पहले जब मैं एक बार कांशी राम जी से कम्युनिस्टों और दलितों के आपसी गठजोड़ के बारे में बातचीत कर रहा था तो कांशीराम जी ने कहा कि कम्युनिस्ट हमारे लड़कों को नक्सली बना कर मरवा देते हैं। मैंने जब उनसे यह कहा कि जो भी नक्सली मरते हैं वे तो दलितों और किसानों की लड़ाई को लेकर ही मरते हैं अपने लिए नहीं। जब मैंने उनसे यह पूछा कि जो नक्सली मरते हैं उनमें से कितने दलित होते हैं और कितने गैर दलित? कांशीराम जी के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। कांशीराम जी की कम्युनिस्टों के बारे में यह धारणा दरअसल दलितों के बीच डॉ. आंबेडकर के कम्युनिस्ट विरोधी होने के दुष्प्रचार पर आधारित थी जो कि बिलकुल सही नहीं है। डॉ. अंबेडकर का वामपंथियों से कुछ मतभेद माक्र्सवाद के कुछ पहलुओं को लेकर था। एक तो उनका मत था कि राज्य का कभी भी लोप नहीं होगा जैसा कि वामपंथी सोचते हैं। दूसरे बाबा साहेब सर्वहारा के अधिनायकवाद के पक्ष में नहीं थे क्योंकि वे लोकतंत्र में विश्वास रखते थे। तीसरे वे हिंसक क्रांति के पक्षधर नहीं थे जबकि इतिहास बताता है कि क्रांतियां प्राय: हिंसक हो जाती हैं क्योंकि शासक वर्ग का आखिरी हथियार हिंसा ही होती है जिसके लिए शोषित वर्ग को आत्मरक्षा में हिंसा करनी पड़ती है। अभी तक लगभग सभी क्रांतियां हिंसक ही हुयी हैं। इसके अलावा बौद्ध धर्म जिस को बाबा साहेब ने अपनाया था भी माक्र्सवाद का विरोधी नहीं है। इससे स्पष्ट है कि बाबासाहेब के माक्र्सवाद से कुछ वैचारिक मतभेद थे परन्तु वे किसी भी तरह से कम्युनिस्ट विरोधी नहीं थे। वे समाजवाद के प्रबल पक्षधर थे जो कि माक्र्सवाद का एक अभिन्न अंग है।
-एस.आर. दारापुरी
डा. अम्बेडकर का महत्व
इस साल डा.अम्बेडकर के जन्म दिवस पर सभी राजनीतिक दलों द्वारा उत्साहपूर्वक कार्यक्रम आयोजित किए गये, यह अच्छा भी है। राष्ट्र के महानायकों का नमन करना पूरे देश का कर्तव्य है। पर ऐसा भी लगा जैसे कि डा. अम्बेडकर के नाम पर राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति की जा रही है। सन 1956 में उनके निधन से लेकर सन् 90 तक डा.अम्बेडकर लगभग अप्रसंगहीन बने रहे। हमसे पहले की पीढ़ी में डा.अम्बेडकर की छवि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के रास्ते में खलल डालने वाले एक ऐसे नेता की बनायी गई थी। कारण था कि सत्ता में बैठे लोग कुछ नेताओं को ही देश का महान व्यक्ति घोषित करना चाहते थे। यहां तक कि क्रांतिकारियों को भी उग्रवादी तक कहा गया था। डा. अम्बेडकर को राष्ट्रीय परिदृश्य पर स्थापित करने का श्रेय कांशीराम को जाता है। बामसेफ का सफर तय करते हुए कांशीराम ने उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया। जैसे-जैसे उनका आंदोलन और संगठन का फैलाव होता गया। आज सभी राजनीतिक दल डा. अम्बेडकर को अपना बता रहे हैं। शायद ही किसी को ज्ञात हो कि डा. अम्बेडकर को राज्यसभा में भेजने के लिए सर्वाधिक सहयोग हिंदू महासभा ने किया था।
-अजय खन्ना, इलाहाबाद
अखंडता सदा बनी रहे
किसी को भी बोलने की आजादी के नाम पर इतनी आजादी नहीं दी सकती कि वह भारत की अखंडता पर ही प्रहार करने लगे। इस समय इस आजादी का लाभ उठाने वालों की कमी नहीं है। भारतीय संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। इसका यह मतलब नहीं कि हम कुछ भी बोलते चले जाएं। उसमें मर्यादाओं का होना परम आवश्यक है। भारत एक विशाल देश है। यह विविधताओं का देश है। यहां अनेक प्रकार की जातियां तथा धर्म को मानने वाले लोग रहते हैं। यदि कोई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ऐसे शब्दों का प्रयोग करने लगे, जो किसी दूसरे धर्म को मानने वालों की भावनाओं को ठेस पहुंचाते हैं तो यह अपराध की श्रेणी में आता है। ऐसे में भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध तो नहीं लगाया जा सकता, किन्तु नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है अन्यथा समाजघाती तत्व वातावरण खराब कर देंगे। सरकार को भी चाहिए कि मजहबी उन्माद पैदा करने वालों पर कार्रवाई हो।
संजय शर्मा, अमेठी
तीन बार तलाक बोलना मान्य नहीं
नारी जीवन को असुरक्षित बनाने में तलाक की अहम भूमिका है। इसलिए तलाक को अधार्मिक घोषित कर दिया जाना चाहिए। पति-पत्नी के रिश्ते को जीवनभर का बंधन माना गया है लेकिन आधुनिक युग में हिंदू समाज में भी तलाक होने लगे हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है जिसे ‘शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य’ के रूप में जाना जाता है। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ कह देने भर से तलाक नहीं हो जायेगा। तलाक की प्रक्रिया पूरी करनी होगी। इसके अलावा हाइकोर्ट ने कई मामलों में यह साफ किया है कि मर्द की तरफ से एकतरफा जबानी तलाक नहीं दिया जा सकता, पहले सुलह-समझौते की कोशिश होनी चाहिए, तलाक की ठोस वजह होनी चाहिए। वरना तलाक नहीं माना जाएगा। तीन बार तलाक बोलने पर तलाक आज भी हो रहे हैं, जबकि उसकी कोई वैधानिक मान्यता नहीं है।
-अंकित कुमार गुप्ता, बरेली