अद्धयात्म

कर दें इन चीजों का त्याग, नहीं सताएगा कोर्इ दुख

sad00-1442314216भगवान महावीर और बुद्ध ने कहा था कि जीवन दुख है। उन्होंने विकल्प दिया सुख या दुख में से एक मार्ग चुनने का। अधिकांश मनुष्यों ने मार्ग तो दुख का पकड़ा है परंतु खोजते सुखों को हैं।

इन्होंने सुझाया कि असल आनन्द पाना है तो सारे मार्ग छोड़कर स्वयं पर टिक जाओ। जब हम कुछ छोड़ने की प्रवृत्ति विकसित करेंगे तभी प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं रहेगा। और जब पाने का संघर्ष नहीं होगा तब सब कुछ स्वाभाविक और अनयास ही मिलता चला जाएगा। सुख और खुशी से वह ज्यादा व्यापक  होगा और स्थाई भी!

सुख और खुशियां कौन नहीं चाहता? चौबीस घंटे में ऐसे कई या कुछ मौके आते भी हैं। परन्तु हमारा मन और अधिक प्राप्त करने की दिशा में इतना व्याकुल हो उठता है कि हम ऐसे मौकों को कुछ ही क्षणों में नजरअंदाज कर जाते हैं।

समस्त मानव जाति के ये जन्मजात संस्कार हैं, जो उसे पूर्ण सुख या खुशी दिलाने में हमेशा बाधा उत्पन्न करते हैं। भगवान महावीर और बुद्ध को जीवन का यह सूत्र देने के लिए नकारात्मक दृष्टिकोणधारी माना गया, लेकिन ऐसा समझने वालों को इस बात को गहराई से समझना भी चाहिए।

भगवान महावीर और बुद्ध ने कहा है कि जीवन दुख है। कदापि गलत नहीं कहा। वे जानते थे कि मानव मन में तृष्णाओं का कभी अन्त होगा नहीं और इसके बिना सुख प्रकट हो ही नहीं सकता। उन्होंने पाया कि सुख, दुख का सारा खेल मन में ही पैदा होता है।

मन है क्या? मन हमारे शरीर का कोई अंग नहीं हैं, फिर भी मन है। मन, शरीर में एक वैक्यूम की तरह है, जिसमें अतीत की स्मृतियों और भविष्य की कल्पनाओं का विशाल संसार समायोजित हो सकता है।

छोटे से इस वैक्यूम में हमारी भावधाराएं क्या क्या संजोती हैं, इसी से दुख और सुख की अनुभूति हमें जीवन पर्यन्त होती है। बुद्धि से यह भावधाराएं और अधिक पोषित होती हैं, अत: सुख और दुख के समस्त अनुभवों (कष्टों और खुशियों) के जिम्मेदार भी हम स्वयं ही होते हैं। संजोने की हमारी काबिलियत पर निर्भर करता है कि हम कितने सुखी अथवा दुखी होकर जीवन यापन करते हैं।

खुशी और सुख है सच्चा आनंद

एक बहाव में बहते-बहते हमने खुद को मशीनी बना लिया है। मूर्छित अवस्था में दौड़े चले जा रहे हैं। काम कुछ कर रहे होते हैं, परन्तु हमारा मन हमें सुदूर कहीं और ही की यात्राएं करा रहा होता है। इस दृष्टि का कोण जब बदलकर स्वयं पर टिकता है तो हर पल, हर सांस हम होशपूर्वक जीने लगते हैं।

यही वर्तमान में जीना है। वर्तमान में जीने का अर्थ यह नहीं है कि हम भविष्य की योजनाएं न बनाएं या भूतकाल में हुई घटनाओं का आवश्यक विश्लेषण ही न करें। यह सब भी होशपूर्वक करें, पूर्ण सजगता से करें, यही वर्तमान में जीने के मायने हैं। वर्तमान में जीना एक कला है।

भगवान महावीर और बुद्ध ने इस कला को हासिल करने का जो मार्ग दिया वह है ध्यान। ध्यान का अर्थ ही होशपूर्वक से है। व्यक्ति जब सजगता से जीवन आरम्भ करता है, तो भटकाव स्वत: निषेध हो जाता है। क्रोध, लोभ, अंहकार, मोह, माया आदि समस्त राग द्वेषों से धीरे-धीरे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। जीते जी, मोक्ष की अनुभूति अंतिम चरण पर पहुंचकर होने लगती है, यही सच्चा आनन्द है।

शांति आत्मा का स्वभाव है

प्राथमिकता की दृष्टि से जीवन के लक्ष्यों की यदि फेहरिस्त बनाई जाए, तो सर्वप्रथम स्थान शान्ति का है। पद, प्रतिष्ठा, समृद्धि सब कुछ हो परन्तु शान्ति न हो तो जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं हो सकती। ज्यादातर लोग इस भ्रम में जीते हैं कि सब कुछ प्राप्त करके शान्ति को भी हासिल किया जा सकता है। वे सर्वथा गलत हैं। शान्ति आत्मा का स्वभाव है और उसके समीप रहकर उसे पाने का यही एकमात्र रास्ता भी है। आज के दौर में सबजन शांति ही पाना चाहते हैं।

जीवन को खुशियों से भरें 

महावीर और बुद्ध ने जब यह दृष्टिकोण दिया कि जीवन दुख है, तो इससे उनका आशय यह कदापि नहीं था कि व्यक्ति सुखों और खुशियों को नजरअंदाज करके दुखों का ही रोना पीटता रहे। दोनों महापुरुषों ने यह जानकर कि तृष्णाएं असीमित हैं और इनसे ऊपर उठकर कैसे यह मानवजाति सम्यक जीवन जी सके, उसकी कला सिखाने का कार्य किया है।

सुख और खुशी से ऊपर की बात उन्होंने कही। खुशी और सुख तो विषयों के अधीन है। जो चीज किसी के अधीन हो, भला वह स्थाई कैसे हो सकती है? विषय के बदलते ही उसकी भावदशा भी बदल जाती है। इसकी अधिकता कई बार विचलन पैदा करती है।

मन जानता है कि यह स्थाई नहीं है, इसलिए आते ही उसके जाने का दुख पकड़ लेता है। यह विचलन शान्ति नहीं दे सकता। सुख और खुशी से भी अधिक व्यापक शब्द उन्होंने दिया- आनन्द, यह स्थाई है और शान्त भी।

यही आत्मा का स्वभाव है। इस जगत में केवल यही स्थाई सुख का स्त्रोत है। महावीर और बुद्ध ने हमें जगाने का कार्य किया। प्रयास किया कि हम उस स्थाई की ओर आकृष्ट हो पाएं। यह आकर्षण जब पैदा होगा तब हम जानने लगेंगे कि आत्मा के स्वभाव में जीने से बड़ा कोई सुख नहीं। जगत के समस्त भौतिक सुखों के प्रति हमारा सम्बन्ध धीरे-धीरे विच्छेद हो जाएगा।

 

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