कल्याण यूपी में बीजेपी का चेहरा होंगे या पार्टी का मोहरा
उनकी इस बात में दम इसलिए भी दिखने लगा, क्योंकि बीजेपी को प्रदेश में अपने सीएम के उम्मीदवार के लिए जिस योग्यता की दरकार है, उनमें से कुछ में वे पूरी तरह फिट बैठते हैं। वे दो बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं।
इसके अलावा प्रदेश के जातीय समीकरण के लिहाज से भी वे अनुकूल ही माने जा रहे हैं। कल्याण का नाम सामने आने से पहले पिछड़े समाज से ही बीजेपी का उम्मीदवार होने की चर्चा तेज थी।
इन सबके अलावा कल्याण सिंह की पहचान अयोध्या की घटना से भी जुड़ी है। 1992 में जब वह घटना हुई थी, तब वे ही प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने अयोध्या में ढांचे की सुरक्षा की जवाबदेही ली थी और उसमें नाकाम रहने पर मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया था।
बीजेपी के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर उनके नाम के साथ जुड़ा यह वाकया उनके लिए किस कदर मददगार साबित हो सकता है, इसके अधिक विश्लेषण में जाने की जरूरत ही नहीं।
मंदिर निर्माण को लेकर लोगों की उम्मीदों पर बीजेपी नेताओं के बयान थम नहीं रहे हैं। एक बयान का असर खत्म होता है तो दूसरे नेता बयान देकर उस मुद्दे को जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं।
खुद कल्याण सिंह ने भी यूपी में कदम रखते ही इस बारे में राज्यपाल राम नाईक के बयान को आगे ही बढ़ाया है। सभी जानते हैं कि बिहार में पराजय के बाद यूपी की जंग बीजेपी के लिए कितनी अहम और मुश्किल है।
यूपी के सिंहासन पर कब्जे की दौड़ में शामिल अन्य दल जहां चुनावी तैयारियों को दूसरे स्तर पर ले जा चुके हैं, वहीं पार्टी अभी तक अपने सीएम कैंडिडेट को लेकर ही दुविधा में दिख रही है।
पार्टी के सांगठनिक चुनावों की प्रक्रिया भी हिचकोले खा रही है। अब देखना यही है कि इस मामले में पार्टी कितनी तेजी से आगे बढ़ती है।
नजरें इस पर भी रहेंगी कि कल्याण सिंह सचमुच मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर पेश किए जाते हैं या उनके नाम को मोहरे के तौर पर इस्तेमाल कर पार्टी जनमानस को जानने-बूझने की कोशिश करती हुई किसी और दिशा में आगे बढ़ जाती है।