साहित्य

कहानी : दृष्टिकोण 

उदय यादव
वह चली गयी?’ अविश्वास से मेरे मुंह से निकला और मैं शर्माजी का मुंह ताकता रह गया। उसके एकाएक चले जाने का मेरी दृष्टि में कोई कारण नहीं था। उसके साथ ही पिछले एक साल का अंतर्वृत्त मेरी आंखों के सामने उभर आया। मुझे उस दिन सिर्फ इतना मालूम हो सका था कि छत वाला कमरा किराये पर उठ गया है। उसे एक महिला ने लिया है, जो ठण्डी सड़क के किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती है। अकेली है। मैंने उसे अभी तक देखा नहीं था लेकिन दो दिन बाद ही मुझे शर्माजी के जरिये बातें मालूम हुई ‘मास्टरनी बदचलन है, वह देखने में जितनी भोली लगती है, वास्तव वो ऐसी है नहीं। भीतर से बहुत गिरी हुई और नीच है। उसके कई लोगों से गलत संबंध हैं। एक मोटा काला सा मास्टर रोज उसके घर आता है।’
kahaniयह जानते हुए भी कि मिथ्या आरोप लगाना शर्माजी का विशेष शौक है, मुझे उनकी बातों पर आश्चर्य हुआ, क्योंकि मास्टरनी को आये अभी पांच दिन ही हुए थे। फिर इनको इतनी बातें कैसे मालूम हो गयी। मैंने शर्मा जी की बातों को महत्व नहीं दिया। हां, मास्टरनी को देखने की इच्छा जरूर प्रबल हो उठी।
अपने बारे में बता दूं। इस बिल्डिंग के बाकी किरायेदारों की तरह मैं भी रेलवे में खलासी हूं। वैसे मैंने एमए किया है, मगर कई कम्पटीशन देने के बाद भी जब कोई नौकरी हाथ नहीं लगी, तो रेलवे का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी बनना ही ठीक लगा। कम से कम एक नौकरी तो हाथ में है। अभी अकेला हूं, इसलिए कम वेतन में भी काम चल जाता है। यह बिल्डिंग स्टेशन के नजदीक है और किराया भी ज्यादा नहीं है। इसलिए ज्यादातर रेलकर्मी इसमें रह रहे हैं। यहां सुविधा के नाम पर सबके पास सिर्फ एक-कमरा ही है, न कोई लैटरीन और न बाथरूम की सुविधा। मैं तो सुबह ही स्टेशन चला जाता हूं अपनी दैनिक क्रियाएं निपटाने। दूसरों का नहीं मालूम। इसी तरह तलाशते होंगे कोई जगह। सुविधाओं के बिना भी सभी लोग यहां कई-कई साल से रह रहे हैं। लगता है, उन्हें सुविधाओं में जीने की आदत नहीं है। हो सकता है, कम वेतन के चलते इस तरह रहने को विवश हों, लेकिन मैंने कभी किसी को इन मुद्दों पर बात करते नहीं सुना।
इसीलिए जब मास्टरनी ने कमरा लिया तो पहली बार कोई गैर रेलकर्मी यहां आकर बसा था। सबकी नजरें उसकी गतिविधियों पर ही टिकी रहती थीं। मेरे दरवाजे के सामने ही पानी की टंकी लगी है, जिस पर दिन भर औरतों की कांव-कच्च होती रहती है। उसी के बगल से एक जीना ऊपर जाता है। वहीं मास्टरनी का कमरा है। अगले दिन ड्यृूटी जाने के लिए कमरे में ताला लगा रहा था, कि वह आ गयी, मास्टरनी।
‘आपकी घड़ी में का टाइम है रऔ एै? उसने मुझसे ही पूछा था। वह देखने में सुशील और सभ्य दिखी, छह फिट लम्बी, मोहक आंखें, स्निग्ध केश राशि, आकर्षक व्यक्तित्व। उतना ही विनम्रता भरा उसका लहजा था। मुझे वह नख से शिख तक सभ्यता-सलीके के परिवेश में कसी-बंधी लगी। वह नीचे से पांचवीं सीढ़ी पर खड़ी थी। कुछ क्षण तो मैं उसे देखता ही रह गया। शर्माजी की सोच पर पहली बार कोफ्त हुई। किसी पर भी बिना सोचे समझे उल्टा-सीधा आरोप लगा देते हैं।
‘पौने आठ बजे हैं’ मैंने बताया तो चली गयी। शायद उसे स्कूल जाना होगा। मैंने सोचा। हमारी इस बिल्डिंग की औरतों के पास खाना बनाने के अलावा किसी के पास कोई काम नहीं है। न बच्चों की पढ़ाई की चिंता, न कुछ सीखने की ललक। इसीलिए दोपहर में झुण्ड बनाकर बैठ जाती हैं और आक्षेप-आक्षेप चर्चायें शुरू हो जाती हैं। यह भोजन और सोने की उनकी नित्य क्रिया है। इसका नतीजा यह है कि आयेदिन झगड़े होते रहते हैं। इस वजह से मैं, मोहल्ले वालों से औपचारिक संबंध रखता हूं। हां, शर्माजी से अवश्य कुछ बातें हो जाती हैं। एक तो वे हमारे ही कैरिज विभाग में मिस्त्री हैं, दूसरे मियां-बीबी दो ही प्राणी हैं। इसलिए अक्सर बातचीत के लिए बुला लेते हैं।
शाम को उन्होंने बुलाया,‘विनय, बात सुनो’ मुझे अनुमान नहीं था कि वे उसी के बारे में बात करेंगे। निकट पहुंचते ही तपाक से बोले ‘मास्टरनी के बारे में कुछ सुना तुमने?’ मेरे न मैं गरदन हिलाने पर कहने लगे,‘ साल भर से इसके आदमी ने छोड़ रखा है, इसका खराब चाल-चलन देख कर। तब से ऐसे ही घूम रही है।’
‘उसका नाम क्या है?’ मुझे मालूम नहीं था, इसलिए पूछ लिया?
‘अर्चना, ब्राह्मण है। बेहद रूखे अंदाज में बताया। उनके अंदाज से साफ लगा कि उन्हें ऐसे कतई पसंद नहीं। उस पर अर्चना तो पंडित थी। पंडितों के बारे ऐसा-वैसा सुनना भी उन्हें पसंद नहीं। फिर मुझे बिल्डिंग का हर चेहरा उसी पर बात करता दिखा। सबको जैसे बैठे-बिठाये एक काम मिल गया था और सभी उसे पूरी ईमानदारी और तन्मयता से निभा रहे थे। हर एक चटकारे लेकर सुनाता और पहले की जानकारी में कुछ न कुछ जोड़ना न भूलता। इसलिए बात जहां से शुरू होती, वहां से काफी आगे तक जाती। सच तो ये कि जितने मुंह, उतनी बातें।
इसी बीच मैं आठ दिन की छुट्टी लेकर अपने घर चला गया। जब वापस लौटा तो चर्चायें थमी नहीं थीं, अपितु और तीव्र हो उठी थीं। मैं ही उनसे अनभिज्ञ था, इसलिए वे सब अपनी जानकारी का रेला मेरी तरफ उड़ेलने को तत्पर दिखे। पड़ोसिन बुढ़िया तुरंत आयी। उसका लड़का दिन भर आवारागर्दी करता रहता है। पिछले महीने एक राहजनी में पकड़ा गया था, लेकिन बुढ़िया को उससे कभी कोई शिकायत नहीं हुई। पुलिसवालों को ही गाली सुनाती रहती ‘मर जायें इनके… असली चोर डकैतों को तो पकड़ते नहीं हैं, सीधे-साधे लोगों को ही परेशान करते रहते हैं।’ पास आकर बेहद रहस्य भरे अंदाज में कहने लगीं ‘गुप्ता आता है मास्टरनी के पास, उसी के स्कूल में पढ़ाता है। दिन भर उसके कमरे में घुसा रहता है। रोज उसके साथ फिलिम देखने जाती है।’ लेकिन जब उन्हें मेरी इस विषय में अरुचि और दृष्टि की कठोरता का आभास हुआ तो वह नाली में तम्बाकू की पीक थूकने का अभिनय करती चली गयी।
शर्माजी की अपनी जानकारियां थीं। वे भी मुझे वे सब सौंपने को उतावले थे। शाम को निकला तो बुला लिया। बिल्कुल मेरे बगल में खिसक कर बैठ गये,‘यह सब मकान मालिक की बदमाशी है। ऐसी को तो कमरा ही नहीं देना चाहिए था, इससे बिल्डिंग का माहौल खराब होता है। बच्चों पर तो इसका बुरा असर पड़ता है। बच्चों की सुन कर अटपटा लगा। यहां किसी को अपने बच्चों से कोई मतलब ही नहीं है। कोई पढ़ाई की बात ही नहीं करता। फिर कैसा बुरा असर। कहने लगे, ‘सिर्फ छह हजार रुपये पाती है, लेकिन देखा है, कितनी महंगी साड़ी पहनती है, हम अपनी बीवी को ऐसी साड़ी नहीं दिला पाये।’ मैंने कहना चाहा कि कहां से दिलाओगे, पूरी तनख्वाह तो सट्टे में गंवा देते हो, उधार लेकर घर चलाते हो, लेकिन कहा नहीं,इनको सच अच्छा नहीं लगेगा। यहां रेल कर्मियों को जुआ और सट्टे का बुरा चस्का लगा हुआ है। इसका फायदा शहर के बनिये उठा रहे हैं। वे बीस रुपये सैकड़ा पर उधार देते हैं। सभी हजारों रुपये के कर्जदार हैं। हालत यह है कि जब वेतन बंटता है, तो बनियों के लड़के वहीं खड़े रहते हैं। पैसा हाथ में आते ही पहले अपना ब्याज लेते हैं और फिर हजार दो हजार देने के बाद सब अपनी जेब में रख लेते हैं। जब जरूरत होती है फिर उधार के लिए उन्ही के आगे गिड़़गिड़ाते हैं। शर्माजी कई हजार के कर्जदार हैं। वेतन वाले दिन पत्नी बहुत झगड़ा करती है, मगर कुछ भी सुधार नहीं होता। जिंदगी कर्ज के सहारे कट रही है।
खाना खाने के बाद रात को मैं लेटा ही था कि किसी ने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोला तो सामने अर्चना खड़ी थीं ‘ आप ?’ मेरे मुंह से निकला। नैक अपनौ स्टोव दै दिंगे… चाय बनानी एै, मट्टी कौ तेल खतम है गऔ,कल लै लूंगी। उसने अनुग्रह भरे स्वर में कहा ‘ ले जाइये’ मैंने स्टोव उठाकर दे दिया। स्टोव लेकर वह तेजी से सीढ़ियां चढ़ीं। मैं कमरे में बैठकर ऊपर की आहट लेने का प्रयास करने लगा। फिर सोचा, हो सकता है, गुप्ता आया हो, उसी के लिए चाय बनानी होगी। बातचीत की आवाज से लग रहा था कि कोई आदमी मौजूद है। फिर मुझे अपनी कोशिश बेकार की कसरत लगी, इसलिए सो गया।
वह स्टोव देने नहीं आयी, तो सुबह मुझे मांगने जाना पड़ा। वह दीवार से पीठ टिकाये पैरों पर कम्बल डाल कर बैठा था। सिगरेट पी रहा था और सिर के बाल बेतरतीब थे। लगता है,आज रात यहीं सोया था। मुझे देखकर तुरंत नमस्कार किया। मुझे मास्टरनी की पसंद पर ताज्जुब हुआ। कहां गौरवर्णा मास्टरनी और कहां काला चिट्टा गुप्ता, लेकिन मुझे क्या, मैं स्टोव लेकर चला आया। वह दिन में टाइम पूछने आती। उसके पास न तो घड़ी थी और न मोबाइल। उसके होठों पर हमेशा लुभावनी मुस्कान खेलती रहती। उसकी बेहद खूबसूरत आंखें हर समय दमकती रहतीं। इस बिल्डिंग के सामने जो मंदिर है,वह हमेशा सुबह छह बजे सफेद वस्त्रों में टीका लगाये देवी सरीखी मंदिर से बाहर आती दिखती। तिस पर मोहल्ले वालों की टिप्पणी थी,‘ रांड़, अपने पाप धो रही है।’
इसी बीच मास्टरनी बाहर चली गयी। सूटकेस लेकर लेकर निकली थी, इसीलिए सबको पता चला। उसके बाद सबसे पहले मिसेज श्रीवास्तव लपकी हुई आयीं-‘ देखा विनय,मास्टरनी मोहल्ले को बदनाम किये पड़ी है, मगर मकान मालिक के कान पर जूं नहीं रेंग रही।’ ‘ क्या हुआ ,चाची?’ मैं इन बातों को चस्के लेकर सुनने लगा था। ‘मास्टरनी, अपने यार गुप्ता के संग मजे लूटने गयी है’ कहां ? ‘आगरे’। मुझे भी लगा, मास्टरनी की ऐसी हरकतों से मोहल्ले की बदनामी तो होगी ही। उसे कुछ तो लिहाज करना चाहिए। उस दिन मैं नाइट ड्यूटी पर था,जब वह ट्रेन से उतरती दिखी, बेहद चिंतित और परेशान लग रही थी। तभी मुझे ध्यान आया कि यह ट्रेन तो लखनऊ से आयी है। इसका मतलब अर्चना आगरे नहीं, लखनऊ गयी थी। सामने पड़ जाने पर मैंने पूछ ही लिया, ‘अर्चना जी, बाहर गयी थीं क्या?’
मुझे देखते ही उसने अपने को तुरंत सहज बना लिया। जैसे चेहरे के पहले भाव कृत्रिम थे। मुस्कराते हुए बोली,‘ हां, लखनऊ गये थे’
तब मुझे मोहल्ले भर की विद्वेशप्रियता प्रयोजन युक्त लगी। विशेष रूप से शर्माजी का यह कथन पूरी तरह सत्य लगा कि उड़ती चिड़िया को देख कर बता देता हूं कि यह किस डाल पर बैठेगी।
kahani_1ऐसा नहीं था कि मोहल्ले वालों के शिगूफे उस तक नहीं पहुंच रहे थे, मगर वह नितांत निरपेक्ष बनी हुई थी, प्रतिक्रिया रहित। वह सबका आदर करती और बड़ों को नमस्कार करना कभी न भूलती। किसी का कोई काम होता ,तो तुरंत कर देती। इसी तरह एक साल गुजर गया। वह हर पन्द्रह दिन पर बाहर जाती और फिर तेज हो जातीं चर्चाएं।
इस बार जब वह बाहर गयी, तो मोहल्ले वालों का रोष देखने लायक था। शर्माजी तो बेहद गुस्से में थे। वे एक तरह से मोहल्ले वालों को उकसाते हुए बोले, ‘पूरा रण्डीखाना बना रखा है। ऐसी को तो जबरन निकाल बाहर करना चाहिए। मकान मालिक नहीं सुनता तो सबको मिल कर उसका सामान उठा कर फेंक देना चाहिए।’ मुझे शर्माजी के अंदाज पर हंसी आ गयी। इस पर चिढ़ते हुए बोले,‘ तुम्हारे जैसे लोगों की वजह से ही उसे बढ़ावा मिल रहा है, वरना मोहल्ले में ऐसी हरकत करने की उसकी हिम्मत न पड़ती।’ मैं कुछ बोला नहीं, चुप रहा। बस इतना कहा‘ अरे कभी उससे भी पूछ लेते कि वह ऐसा क्यों कर रही है? हो सकता है, वह किसी और काम से बाहर जाती हो।’ मगर मेरी बात से कोई सहमत नहीं था। सब इसी बात पर अड़े थे ,अब उसे निकाल बाहर करना होगा। बस, आ जाने दीजिए।’
अगले दिन उसका तार आया। वह थी नहीं इसलिए डाकिया वापस ले गया, लेकिन इतना पता चला कि एटा से आया है। ‘ जरूर उसके खसम ने बुलाया होगा। अरे कैसा भी आदमी हो,कोई ऐसी हरकत बर्दाश्त नहीं कर सकता।’ वह तीन दिन बाद लौटी, लेकिन इस बार बेहद उदास और चिंतित थी। चेहरा बुझा-बुझा सा था। अपने आप में खोई रहती। कोई बात करता तो मुस्करा भर देती, लेकिन उसके चेहरे पर पहले वाली बात नहीं थी। कभी वह असहजबोध से निरपेक्ष होने का प्रयास करती दिखती और दूसरों के हाल चाल पूछने लगती, लेकिन उससे किसी ने नहीं पूछा, अर्चना, क्या बात हो गयी? तुम इतनी उदास क्यों हो, कोई बात हो गयी क्या?’
कौन पूछे रंडी से, अपने यार के संग गुलछर्रे उडा़ रही होगी।’ सबकी एक ही राय थी, लेकिन अब मुझे विश्वास हो गया है कि जो चेहरे-मोहरे से अच्छे होते हैं,जरूरी नहीं,वे चरित्र के भी अच्छे हों। इसलिए मुझे अपनी सोच बदलनी होगी।
वह बेहद उदास और बोझिल शाम थी, गंदे नाले के पानी सरीखी। मैं ड्यूटी से लौटा तो मोहल्ले में चारों तरफ खामोशी छायी हुई थी। सबके सब लुटे-पिटे से। जैसे तूफान आकर चला गया हो। वाचाल मोहल्ले की खामोशी मैं समझ नहीं पाया। साश्चर्य शर्माजी के पास पहुंचा। वे अपनी आदत के अनुसार अपने गठिया प्रेमी घुटने की मालिश कर रहे थे। मुझे देखा, तो दुखी स्वर में बोले,‘बैठो विनय।’ ‘शर्माजी मोहल्ले में कोई खास बात हो गयी क्या? सब लोग खामोश हैं।’ मैं अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाया। उन्होंने उदास और दुखी नजरों से मेरी ओर देखा। ‘मास्टरनी चली गयी, विनय’
‘ तो इसमें इतना उदास होने की क्या बात है?’ मेरी जिज्ञासा को अभी सही उत्तर नहीं मिला था। शर्माजी ने जैसे मेरी बात नहीं सुनी। बोले जा रहे थे, ‘ बेचारी बहुत महान है।’
मैंने हैरत से उनकी ओर देखा। शर्मा जी क्या कह रहे हैं…..ये तो उसे…. वे बोले जा रहे थे, ‘आज उसकी सास आयी थी। रो रही थी बेचारी। बता रही थी, अर्चना ने क्या-क्या नहीं सहा अपने पति की जान बचाने के लिए। कितनी उपेक्षा और घृणा सही उसने। अर्चना के पति की दोनों किडनी खराब थीं। लखनऊ के पीजीआई में उसका इलाज चल रहा था। महीने में चार बार डायलिसिस कराने वहां जाना पड़ता था। उनके परिवार की हालत अच्छी नहीं है, इसलिए यहां आकर अर्चना ने नौकरी कर ली। उसकी सास बता रही थी कि गुप्ता ने उसकी बहुत मदद की। उसने अर्चना को कई ट्यूशन दिलाईं, जिससे पांच-छह हजार अलग से कमा लेती थी। गुप्ता ने उसके पति के इलाज के लिए स्कूल मैनेजमेंट से कुछ रुपये उधार भी दिलाये, लेकिन उसके पति की जान न बच सकी। कोई इंफेक्शन हो गया, जिससे शरीर भी बहुत कमजोर हो गया था। अब अर्चना के सिवा उस बुढ़िया का कोई सहारा नहीं है। वही लिवा ले गयी उसे।
मैं भी अपराधबोध से घिर गया। मैंने भी बिना सच जाने कितना उल्टा-सीधा सोचा उसके बारे में। शर्माजी को गहरे अपराध बोध में देखा। ‘लेकिन विनय, हम लोग बेहद कमीने हैं, किसी की परेशानी,किसी का दर्द नहीं समझते, सिर्फ दूसरों को बुरा कहने में ही अपनी शान समझते हैं। मुझे अपने आप से घृणा हो गयी है। अब मैं ऐसी जगह नहीं रहना चाहता, जहां इतने जहरीले लोग रहते हैं।’ शर्माजी का स्वर बेहद आहत और शर्मिंदगी भरा था। अगले दिन सचमुच शर्माजी ने अपना कमरा खाली कर दिया। =

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